नागरिक का दर्जा सबसे ऊपर है। जब नागरिक और राज्य के बीच टकराव हो तो राज्य या सरकार की असीमित बल प्रयोग की शक्ति पर अंकुश लगाने और नागरिक की आज़ादी की हिफ़ाज़त करना अदालतों का सबसे बड़ा फ़र्ज़ है।
यह बात बार-बार कही जाती रही है। इधर कई बड़े वकील और पूर्व न्यायाधीश इस प्राथमिक सिद्धांत को हर मौक़े पर दुहरा रहे हैं। ज़ाहिर है, वे नागरिक और राज्य को ही सिर्फ़ संबोधित नहीं कर रहे वे अदालत को भी कुछ बता रहे हैं।
कृषि से जुड़े नए क़ानूनों का विरोध कर रहे किसान-संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थता की पेशकश की जयकार नहीं की है। वे इस प्रस्ताव को एक लुभावना फंदा मान रहे हैं जिसपर एक बार क़दम रख देने के बाद उनका निकलना असंभव नहीं तो मुश्किल हो जाएगा। अदालत को लेकर जो संकोच किसानों में है, उससे अदालत के बारे में सामान्य जनता में, ख़ासकर इस सरकार के आलोचकों और विरोधियों में जो संदेह है, उसी का एक और प्रमाण मिलता है। उसकी निष्पक्षता और न्यायधर्मिता शक के घेरे में है और अब अदालत को साबित करना है कि वह सरकार से ज़्यादा इन्साफ़ के लिए चिंतित है।
अदालत पर यक़ीन क्यों घट गया है? क्यों अब वकील और दूसरे जानकार नागरिक अधिकार के मामलों में मश्विरा देने लगे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय आने की जगह उसके पहले की अदालतों को आज़मा लेना चाहिए? अभी उत्तर प्रदेश के विवाह के लिए धर्मांतरण को रोकने का दावा करनेवाले क़ानून को चुनौती देने एक संगठन सर्वोच्च न्यायालय पहुँच गया है। अदालत के रवैये पर नज़र रखनेवालों ने ठीक ही इसे लेकर सवाल किया है कि क्यों नहीं पहले उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई!
इस ऐतराज़ की एक वजह तो यह है कि उच्च न्यायालय भी संवैधानिक न्यायालय हैं। संवैधानिक उलझनों पर विचार करने का दायित्व उनका भी है। इसलिए संवैधानिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए उनके पास पहले जाना तर्कसंगत है। दूसरे कि पिछले सालों में देखा गया है कि कुछ उच्च न्यायालय नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों के प्रति सर्वोच्च न्यायालय के मुक़ाबले अधिक संवेदनशील हैं। जैसे, पिछले साल जामिया मिल्लिया इस्लामिया के परिसर में जबरन घुसकर दिल्ली पुलिस ने छात्रों पर हमला किया। अगली सुबह इंदिरा जयसिंह और कोलिन गोंज़ाल्वेस यह अर्जी लेकर सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे कि अदालत पुलिस को नियंत्रित करे और एक समिति बनाकर जामिया में हुई हिंसा की जाँच करवाए। अदालत ने वकीलों को उच्च न्यायालय जाने को कहा और पुलिस की ताईद करने की जगह सीएए एनआरसी का विरोध कर रहे छात्रों को सड़क से हट जाने की सलाह दी।
सर्वोच्च न्यायालय ने आगे भी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं द्वारा चलाए जा रहे घृणा अभियान को लेकर दायर याचिका को तुरत सुनने से मना कर दिया। कहा गया कि इतनी हिंसा के बीच ठहर कर विचार करना बड़ा मुश्किल है। उसकी हिचकिचाहट से उलट दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली में हिंसा के दौरान ही दिल्ली पुलिस को पहले स्वास्थ्य सुविधा में बाधा पहुँचाने से रोका और निर्देश दिया कि वह घायलों को हस्पताल पहुँचाने में मदद करे। उसी अदालत ने यह निर्देश भी दिया कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के घृणा और हिंसा प्रचार के चलते उनपर मुक़दमा दायर किया जाए।
सीएए का विरोध
जब उत्तर प्रदेश सरकार ने सीएए का विरोध करनेवाले आंदोलनकारियों की तस्वीरों के साथ चौराहों पर बैनर लगा दिए तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सरकार को फ़ौरन इन्हें उतारने का आदेश दिया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस आदेश के ख़िलाफ़ सरकार सर्वोच्च न्यायालय चली गई जिसने इस मसले पर एक गोलमोल सा रुख़ अपना लिया। उसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने उच्च न्यायालय के फ़ैसले की अवहेलना करते हुए बैनर लगाए रखे, बल्कि वैसे ही नए बैनर लगा दिए।
आन्दोलनकारियों को ज़मानत उच्च न्यायालयों से मिलना उतना मुश्किल नहीं है। लेकिन इसके उदाहरण हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने ज़मानत रद्द कर दी है। जैसे कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा सीएए के विरोधी आंदोलनकारियों को, जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था, ज़मानत दे दी गई और सर्वोच्च न्यायालय ने उसे रद्द कर दिया।
आम तौर पर सर्वोच्च न्यायालय को नागरिकों के संवैधानिक अधिकार का पहरेदार माना जाता है। इसलिये जब सीएए पारित हुआ तो उसकी संवैधानिकता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। जम्मू-कश्मीर में जब राजनीतिक नेताओं को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से गिरफ्तार कर लिया गया तो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएँ दायर की गईं। सर्वोच्च न्यायालय ने इन सबपर होंठ सिल लिए।
कोरोना वायरस के संक्रमण के दौरान जब लाखों लोग बिना साधन के पैदल ही घर लौटने लगे तो भी उन्हें राहत या मदद दिलाने के लिये की गई प्रार्थना पर सर्वोच्च न्यायालय ने जनता का पक्ष लेने की जगह सरकार का साथ दिया।
इन उदाहरणों के कारण ही सर्वोच्च न्यायालय को लेकर साधारण जन आश्वस्त नहीं रह गए हैं। यही वजह है कि जब अदालत ने कहा कि एक समिति बन जायेगी जो किसानों और सरकार के बीच गतिरोध को समाप्त कर सके तो किसानों को सहज ही भरोसा नहीं हुआ। सुनवाई जिस तरह हुई, उसमें पिछले प्रकरणों में अदालत के रुख़ से अलग व्यवहार देखा और उससे भी शक पैदा हुआ।
अदालत ने सरकार को मीठी फटकार लगाई। कहा कि रास्ता किसानों ने नहीं आपने, यानी आपकी पुलिस ने रोका है। कहा कि सरकार किसानों पर कोई ज़बर्दस्ती नहीं करेगी। आंदोलन भी जारी रहने दिया जाएगा।
अदालत ने सरकार को कहा कि वह गतिरोध ख़त्म नहीं कर पाएगी। आगे उसकी वार्ता बेकार साबित होगी। इसलिए वह विशेषज्ञों, सरकार और किसानों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक समिति बनाएगी जो कोई समाधान निकाले। किसानों की माँग को वह कितनी तरजीह देती है, यह इससे साबित होता है कि उसने सरकार को आगे बढ़कर सुझाव दिया कि वह बातचीत तक क़ानूनों को क्या स्थगित कर सकती है!
आंदोलनकारियों के प्रति अदालत की यह नरमी और सहानुभूति उसके पिछले व्यवहार से इतनी असंगत है कि अविश्वसनीय जान पड़ती है। कविता और साहित्य में तो असंगति चल सकती है जैसा वाल्ट व्हिटमैन ने लिखा है। लेकिन न्याय के मामले में असंगति उसे संदिग्ध बना देती है।
तो क्या अदालत जनता का भरोसा हासिल करने की कोशिश कर रही है और उसे नकारना ठीक न होगा? क्या अदालत ने जनता को अधिकारयुक्त या अधिकारसंपन्न नागरिक के रूप में राज्य सत्ता के समकक्ष सम्मान देना दुबारा शुरू कर दिया है?
किसानों ने अदालत की तजवीज़ ठुकराई नहीं है, लेकिन यह भी साफ़ कर दिया है कि विशेषज्ञता के रुआब और उसकी आड़ में अपने हितों का अपहरण वे नहीं होने देंगे। आंदोलनकारी किसान किसानी के मामले में पर्याप्त शिक्षित हैं, अपना भला बुरा वे उस सरकार से बेहतर समझते हैं जो ख़ुद को उनका माई-बाप घोषित कर चुकी है और जो सैकड़ों मील चलकर दिल्ली की सरहद पर डेरा डाले हज़ारों किसानों को गुमराह बता रही है।
उन्हें हक़ और इन्साफ़ की राह मालूम है और वे यह देख रहे हैं कि वह किसने रोक रखी है। बेहतर हो कि अदालत कुछ ऐसा न करे जिससे किसानों को लगे कि पुलिस और राज्य को उसके आशीर्वाद का भरोसा है। निराला के राम की तरह किसान यह न कहें, ‘अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।’ अपनी साख वापस हासिल करने का ऐसा मौक़ा शायद सबसे बड़ी अदालत को फिर न मिले।
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