पहचान की राजनीति को नया आयाम देने और हिन्दुत्व को अपना राजनीतिक औजार बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 के पहले इसे नई ऊँचाई देने का तरीका अपना लिया है।
उसने राज्य के उपेक्षित और हाशिए पर खड़े समुदायों को 'समग्र हिन्दुत्व' के दायरे में लाने और उनका राजनीतिक दोहन करने की रणनीति अपनाई है। इसे मातुआ, नामशूद्र और आदिवासियों के प्रतीकों को हिन्दुत्व से जोड़ने के चालाकी भरे अभियान से समझा सकता है।
मातुआ नामशूद्र दलित
प्रधानमंत्री नरेंद्र जल्द ही जब बांग्लादेश जायेंगे तो ओरकांदी के मातुआ मंदिर भी जाएंगे, यह घोषणा चौंकाने वाली कम और समझने वाली ज़्यादा है। मातुआ नामशूद्र दलित हैं, जिनकी संख्या पश्चिम बंगाल में लगभग दो करोड़, यानी 20 प्रतिशत से ज़्यादा है।
अलग-अलग दलों में बँटे और राज्य के अलग-अलग हिस्सों में फैले इस समुदाय के लोग एकमुश्त राजनीतिक वोट बैंक नहीं हैं, पर पहचान की राजनीति के बीजेपी के सोच में बिल्कुल फिट बैठते हैं। यही कारण है कि 2019 के चुनाव के पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पश्चिम बंगाल के नदिया ज़िला जाकर उस समय लगभग 100 साल की हो चुकी वीणापाणी देवी के चरण स्पर्श किए तो उसका राजनीतिक संदेश साफ था। बीजेपी इस समुदाय को अपनाना चाहती है।
बीजेपी अपने जन्म के बाद से ही अलग-अलग जातियों, पंथों व समुदायों में बँटे हिन्दुओं को एक साथ लाना चाहती है। वह उन्हें 'समग्र हिन्दुत्व' के झंडे तले लाकर एक ऐसे मजबूत और एकमुश्त वोट बैंक में तब्दील करना चाहती है, जिस पर उसका और सिर्फ उसका क़ब्ज़ा हो।
एक ऐसा वोट बैंक जो सिर्फ हिन्दुत्व के नाम पर वोट देता हो और आर्थिक समेत तमाम मुद्दे गौण हों।
हालांकि हिन्दू धर्म का यह चरित्र कभी नहीं रहा है और न ही वह हिन्दुत्व के नाम पर कभी एकजुट हुआ है। पर बीजेपी के इसमें आंशिक सफलता मिली है और वह उसे बेहतर तरीके से करना चाहती है।
आदिवासी
इसे कुछ उदाहरणों से बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के पहले बीजेपी ने मातुआ ही नहीं, आदिवासियों की ओर भी ध्यान दिया है। यही कारण है कि झारखंड से सटे पुरुलिया और मेदिनीपुर के कुछ सीमाई इलाक़ों में वह आदिवासियों को भी इसी 'समग्र हिन्दुत्व' के छाते के अंदर लाने की कोशिश कर रही है। यह अकारण नहीं है कि गृह मंत्री अमित शाह यकायक आदिवासी इलाक़े जाकर बिरसा मुंडा की जम कर तारीफ करते हैं और उनके योगदान को याद करते हैं। हालांकि वे बिरसा मुंडा को पहचानने में ग़लती कर बैठे और किसी दूसरे आदिवासी नेता की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर मज़ाक के पात्र बन बैठे, लेकिन बीजेपी ने आदिवासियों को अपनी ओर लाने की कोशिश ज़रूर की।
बीजेपी आदिवासियों को उनके प्रकृति पूजक समुदाय के बदले हिन्दू पहचान पर अधिक ध्यान दे रही है। वह उनके बीच भी 'जय श्री राम' का नारा उछाल रही है, जिससे आदिवासी खुद को जोड़ नहीं पाते हैं।
सबरी माता
बीजेपी की इस नीति का ही नतीजा है कि अरुणाचल प्रदेश में उसने बालि, सुग्रीव, परशुराम और सीता तक को आदिवासी समुदाय से जोड़ने की कोशिश की। इसके तहत रामायण और महाभारत में वर्णित नदियों और पहाड़ों को इलाक़े के आदिवासी प्रतीकों से जोड़ा गया।
उत्तर प्रदेश के वारणसी के पास अटल नगर में मुशहर समुदाय ने सबरी माता का मंदिर बनाया है। रामायण में वर्णित पिछड़ी जाति की सबरी को यहाँ मुशहर समुदाय से जोड़ने और उनके प्रतीक के रूप में स्थापित करने का काम बीजेपी ने किया है।
बीरभूमि-पुरुलिया
पश्चिम बंगाल में यह काम अधिक होशियारी से किया जा रहा है। बीजेपी नेताओं ने पुरुलिया के आदिवासी इलाक़ों के अलावा बीरभूमि के तारापीठ मंदिर जाकर भी पूजा अर्चना की थी। यह शक्तिपीठ माना जाता है और इससे बंगाल ही नहीं बाहर के हिन्दू भी खुद को जोड़ कर देखते हैं।रामकृष्ण आश्रम और अनुकूल चंद्र के अनुयायियों के बीच जाकर हिन्दुत्व की बात करना भी बीजेपी की इस रणनीति का ही हिस्सा है। मजे की बात यह है कि रामकृष्ण मिशन, अनुकुल चंद्र आश्रम, तारापीठ, मातुआ या आदिवासी, इनमें से किसी की संस्कृति 'जय श्री राम' कहने या उनसे जुड़े होने की नहीं है। लेकिन बीजेपी इनके बीच भी 'जय श्री राम' का नारा लगाती है और उन्हें भी ऐसा करने के लिए उत्साहित करती है। सवाल यह है कि क्या बीजेपे इन सबको समग्र हिन्दुत्व के झंडे तले एकत्रित कर लेगी?
लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या बीजेपी इनके बीच हिन्दुत्व के नैरेटिव को स्थापित कर लेगी, उन्हें एकमुश्त वोट बैंक में बदल लेगी और उनसे वोट हासिल कर लेगी? पश्चिम बंगाल का चुनावी नतीजे आने और उनका विश्लेषण होने का बाद ही कोई मुकम्मल तसवीर उभर कर आएगी। लेकिन यह तो साफ है कि वामपंथी आन्दोलन का गढ़ रहे, भारतीय रेनेसाँ की जन्मस्थली रहे और गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक बाऊल की भूमि रहे पश्चिम बंगाल को भगवा रंग में रंगने की कोशिश की जा रही है।
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