एग्ज़िट पोल के नतीजे रविवार को आ गए हैं और उनमें आपस में ही इतना अंतर है कि कोई भी कह सकता है कि या तो एग्ज़िट पोल करने के तरीक़ों में बहुत गड़बड़ है या सबने केवल नंबर बिठा दिए हैं। कुल दस एग्ज़िट पोल में इंडिया टुडे-ऐक्सिस का पोल एनडीए को 365 सीटें दे रहा है जबकि न्यूज़ एक्स-नेता एग्ज़िट पोल 242। बाक़ी का फ़िगर इन दोनों एक्सट्रीम के बीच में कहीं है - कोई 336 दे रहा है, कोई 300 तो कोई 277। ऐसे में जिसका भी नंबर अंतिम परिणाम से मैच कर जाएगा, वह कॉलर ऊँचा करके कहेगा कि देखो, मेरा पोल सबसे ठीक निकला जबकि सच्चाई यह है कि दस तुक्कों में से एक तुक्का चांस से सही निकल गया होगा।
लेकिन आज हम एग्ज़िट पोल के परिणामों में दिख रहे भारी अंतर के बारे में बात नहीं करेंगे। आज हम यह चर्चा करेंगे कि इंडिया टुडे-ऐक्सिस और टुडेज़ चाणक्या जो एनडीए को 350 या उससे भी अधिक सीटें दे रहे हैं, उनके अनुमान/तुक्के क्या सही साबित हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, क्या एनडीए के वोट और उसी कारण मिली सीटें पिछली बार के आँकड़े - 38% और 336 - से भी आगे निकल सकते हैं, ख़ासकर तब जबकि उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में इस बार विपक्ष का गठबंधन है?
चुनाव विशेषज्ञ उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में बीजेपी को 30 से 40 सीटों का नुक़सान होते देख रहे हैं, ऐसे में बंगाल या उड़ीसा में 10-20 सीटें बढ़ भी जाएँ तो एनडीए का कुल आँकड़ा पहले से तो कम ही रहना चाहिए।
ऐसे में कोई भी यह नहीं समझ पा रहा है कि आख़िर एनडीए की सीटें कैसे बढ़ सकती हैं? ऐसा हो ही कैसे सकता है कि किसी राज्य में विपक्ष के एकजुट होने से सत्तारूढ़ दल की सीटें घटने के बजाय बढ़ जाएँ? यह तो असंभव है। लेकिन नहीं। यह असंभव नहीं है। हाल ही के वर्षों में दो राज्यों में ऐसा ही हुआ है जब विपक्ष के एक होने से सत्तारूढ़ दल को नुक़सान के बदले फ़ायदा हो गया। ये राज्य हैं पश्चिम बंगाल और तेलंगाना। आइए, देखते हैं, इन राज्यों में पहले क्या स्थिति थी और बाद में क्या हुआ।
पहले बंगाल को लेते हैं। बंगाल में 2011 में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस सत्ता में आई। उस साल उसका कांग्रेस से तालमेल था। तृणमूल को उस विधानसभा चुनाव में अकेले 184 सीटें मिलीं और उसका वोट शेयर था 39%। कांग्रेस को 42 सीटें मिलीं और उसका वोट शेयर था 9%। इन दोनों का कुल वोट शेयर हुआ 48% जो लेफ़्ट फ़्रंट के कुल वोट शेयर 40% पर भारी पड़ा क्योंकि 8% का मतांतर बहुत बड़ा होता है।
कांग्रेस-लेफ़्ट ने मिलाया हाथ
अब आइए 2016 में। तब तक कांग्रेस, तृणमूल से अलग हो चुकी थी। कांग्रेस और लेफ़्ट दोनों तृणमूल से त्रस्त थे और 'दुश्मन का दुश्मन दोस्त' और 'एक और एक दो' का हिसाब सोचकर दोनों ने गठजोड़ करने का फ़ैसला किया। काग़ज़ पर यह गठजोड़ बहुत ही तगड़ा था। कांग्रेस के 9% लेफ़्ट के 40% से मिल जाएँ तो 49% हो जाते हैं और तृणमूल (5 साल की ऐंटी-इनकंबंसी के बावजूद) यदि अपना पुराना वोट शेयर बचा भी ले तो केवल 39% होती है। ऐसे में 2016 में नतीजा बिल्कुल उलटने की स्थिति थी। मीडिया भी यही आकलन कर रहा था कि मुक़ाबला गठबंधन के पक्ष में न हो तो भी बराबरी का है।लेकिन परिणाम क्या हुआ? तृणमूल पहले से भी ज़्यादा सीटों पर विजयी हुई। उसका वोट शेयर 39% से बढ़कर 45% हो गया और सीटें 184 से बढ़कर 211 हो गईं। दूसरी तरफ़ लेफ़्ट का वोट शेयर 40% से घटकर 26% रह गया और सीटें 60 से घटकर 32 पर आ गईं। रोचक बात यह रही कि कांग्रेस इस बार भी घाटे में नहीं रही। उसकी सीटें भी पहले से दो बढ़ीं (42 से 44) और वोट शेयर भी (9% से 12%)।
विश्लेषक इस पर माथापच्ची करते रहे और आज तक कर रहे हैं कि ऐसा क्यों हुआ। क्या कांग्रेस से तालमेल वाम समर्थकों और वोटरों को रास नहीं आया? क्या 2014 में बीजेपी के उभार को देखते हुए लेफ़्ट का मुसलिम वोटर तृणमूल में चला गया?
साधारण गणित से तो लग रहा है कि लेफ़्ट का जो 14% वोट शेयर गिरा, वह तृणमूल (6%), बीजेपी (6%) और कांग्रेस (3%) में बिखर गया। लेकिन चुनावी गणित इतनी आसान नहीं होती। कई बार इधर का उधर और उधर का इधर भी होता है। ख़ैर, हम इसे यहाँ छोड़ते हैं और अपने दूसरे उदाहरण की ओर जाते हैं - तेलंगाना।
तेलंगाना में 2014 में लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए थे और उसमें केसीआर के नेतृत्व में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को 34% वोट शेयर के साथ 63 सीटें मिली थीं। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को 25% वोट के साथ 21 सीटें और एनडीए के घटक दल तेलुगू देशम को 15% वोट के साथ 4 सीटें मिली थीं। बीजेपी को तब 7% वोट के साथ 5 सीटें मिली थीं।
अब आते हैं साल 2018 में, जब केसीआर ने छह महीने पहले ही चुनाव करवा दिए। तब तक गोदावरी में काफ़ी पानी बह चुका था। तेलुगू देशम, एनडीए से अलग हो चुका था, उसने और कांग्रेस ने सोचा कि क्यों नहीं हम साथ मिलकर लड़ें। तेलंगाना जन समिति के रूप में एक तीसरा पार्टनर भी उनके साथ जुड़ गया।
2014 के हिसाब से संयुक्त विपक्ष का वोट शेयर 40% के आसपास बनता था जो टीआरएस के 34% से 6% ज़्यादा था और लगता था कि वह आसानी से बाज़ी पलट देगा। लेकिन जब नतीजा आया तो टीआरएस को नुक़सान होना तो दूर, ज़बरदस्त फ़ायदा हो गया। उसका वोट शेयर 34% से बढ़कर 47% हो गया और सीटों की संख्या 63 से बढ़कर 88 हो गई। दूसरी तरफ़, टीडीपी का वोट शेयर 15% से घटकर 4% तक रह गया जबकि कांग्रेस के वोट शेयर में बंगाल की ही तरह 3% की वृद्धि हो गई। गठबंधन का कुल वोट 32% रहा जो टीआरएस के 47% से काफ़ी नीचे था।
13% की बढ़ोतरी आश्चर्यजनक
किसी भी सत्तारूढ़ दल के वोट शेयर में 13% की बढ़ोतरी, और वह भी संयुक्त विपक्ष के सामने, मेरी जानकारी में तो आज तक ऐसा नहीं हुआ। इस वृद्धि में टीआरएस और ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम की दोस्ती का भी निश्चित रूप से कुछ हाथ था, फिर भी साढ़े चार साल के शासन के बाद किसी सत्तारूढ़ दल के समर्थन में 13% की वृद्धि अभूतपूर्व है। इसने तो तृणमूल कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया जिसके वोट शेयर में हुई 6% की बढ़ोतरी इसके सामने मामूली दिखती है।
अब सवाल यह है कि क्या इस बार के लोकसभा चुनाव में भी क्या ऐसा हो सकता है कि उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में विपक्ष की एकजुटता ने, बीजेपी और एनडीए को नुक़सान के बजाय फ़ायदा पहुँचाया हो?
बंगाल और तेलंगाना के उदाहरणों को देखते हुए कर्नाटक में तो यह असंभव नहीं लगता क्योंकि वहाँ से ख़बरें आई हैं कि कांग्रेस और जेडीएस के वोटों का एक-दूसरे को ट्रांसफ़र इस बार पूरा-पूरा नहीं हुआ है। वैसे भी वहाँ कांग्रेस और जेडीएस के प्रभाव क्षेत्र अलग-अलग हैं, इसलिए उनके साथ आने से हर सीट पर 1+1=2 की स्थिति नहीं बनती। लेकिन उत्तर प्रदेश के मामले में स्थिति बिल्कुल अलग है। यहाँ जिन दो प्रमुख विपक्षी दलों के बीच गठबंधन हुआ है, उनका मताधार बरसों से स्थिर रहा है और उनके वोट ट्रांसफ़र में कोई दिक़्क़त नहीं आती, इसका सबूत पिछले साल राज्य में हुए तीन उपचुनावों में दिख चुका है जब तीनों की तीनों सीटें विपक्ष ने बीजेपी से झटक ली थीं। ऐसे में इसका कोई कारण नहीं दिखता कि क्यों एक साल बाद हुए लोकसभा चुनावों में यह धारा अचानक बदल जाए। यानी इस सवाल का जवाब कि क्या विपक्षी गठजोड़ के बावजूद बीजेपी का वोट शेयर कर्नाटक और यूपी में बढ़ सकता है। जवाब - कर्नाटक में संभव है लेकिन यूपी में नहीं।
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