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पश्चिम बंगाल: राजनीति के दो ध्रुव बने राम और दुर्गा

राजनीति किस तरह साहित्य और मिथकों से प्राण लेती है, पश्चिम बंगाल की मौजूदा राजनीति इसका एक उदाहरण है। बीजेपी के ‘जय श्री राम’ की चुनौती का जवाब तृणमूल की ओर से ‘जय माँ दुर्गा’ के रूप में आया। जब अमित शाह ने राम को पूरे भारत का आराध्य कहा, तब ममता बनर्जी ने पूछा, “क्या ये (बीजेपी वाले) दुर्गा के बारे में जानते हैं? क्या ये जानते हैं कि उनकी कितनी भुजाएँ हैं और वह कितने अस्त्र धारण करती हैं?”
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हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति के इतिहास में शायद यह पहला मौक़ा था जब बीजेपी को उसकी ही भाषा में जवाब मिला। संदेश स्पष्ट था - आपके ‘जय श्री राम’ का जवाब ‘जय माँ दुर्गा’ हैं। हिंदुत्व की राजनीति करने वालों के लिए यह एक उलझन पैदा करने वाला क्षण था। उनके अब तक के प्रशिक्षण का बंगाल की राजनीति में एक सीमित उपयोग ही दिखा - राम यहाँ संप्रभु ईश्वर के रूप में पेश नहीं किए जा सकते थे। कारण स्पष्ट था, यहाँ जनमानस में ‘कृत्तिवास’ के राम मौजूद हैं - दुर्गा के उपासक राम। 'मैस्क्युलिन'-आक्रामक रामानन्द  सागर के राम का बंगाल में कोई ख़ास असर नहीं रहा है, जैसा कि हिंदी भाषी प्रदेशों में है।
बाबरी मसजिद ढहाने के आंदोलन के दौरान देखते ही देखते देवी-देवताओं के श्रेणीक्रम में राम का स्थान सबसे ऊपर हो गया, शिव हों या दुर्गा; सभी राम के बाद आते हैं।
यह बात याद रखनी चाहिए कि हिन्दी भाषी प्रदेश के लोग जिस राम को जानते हैं, वे तुलसी के राम हैं - लोक मर्यादा के संरक्षक, पितृसत्ता और पौरुष के प्रतीक, सामाजिक पद सोपान तथा वर्ण व्यवस्था के संरक्षक। शिव जिनके भक्त हैं और जिन पर संशय करने की इजाज़त किसी को नहीं है, चुहल की तो बिलकुल भी नहीं - भले ही वे आदिशक्ति-स्वरूपा शिव-पत्नी ‘सती’ ही क्यों न हों। उन्हें भी राम की परीक्षा लेने की सज़ा मिलती है। शिव उनका त्याग कर देते हैं। सती यह देखकर पछताती हैं कि इस शरीर के रहते (जिसमें मैंने राम पर संदेह किया) शिव मुझे स्वीकार नहीं करेंगे। दक्ष के अग्निकुंड में कूदते समय वह राम की प्रार्थना करती हैं और राम से दोबारा शिव की पत्नी बनने का आशीष माँगती हैं - 

सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम-जनम शिव पद अनुरागा।।

तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तवु पाई।।

स्पष्ट है कि तुलसी की दुर्गा राम की उपासक हैं, न कि राम, दुर्गा के। वहीं, बांग्ला की राम कथा तुलसीदास की कथा से अलग भी है और सौ वर्ष पुरानी भी। बांग्ला भाषी इस राम कथा को ‘श्री राम पंचाली’ या ‘कृत्तिवास रामायण’ के नाम से जानते हैं।
कृत्तिवास रामायण के राम अधिक मानवीय हैं, वह करुण हैं, दुःख में रोते हैं, विलाप करते हैं तथा जीवन के अधिक निकट जान पड़ते हैं। वह रावण जैसे शक्तिशाली शत्रु से बिना देवी का आश्वासन पाए नहीं जीत सकते। रावण को काली से अभय प्राप्त है। काली ख़ुद उसे गोद में लेकर रथ पर बैठ गयी हैं -

स्तवे तुष्टा हये माता दिला दरशन। बसिलेन रथे कोले करिया रावण।

आश्वास करिया कन, ना कर रोदन। भय नाइ, भय नाइ, बाछा दशानन। 

आसियाछि आमि, आर कारे कर डर। आपनि जूझबि, यदि आनेन शंकर।

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राम, देवी से जीत नहीं सकते। वह भी दुर्गा को मनाने का अनुष्ठान करते हैं- अकाल बोधन। राम की पूजा-अर्चना, तंत्र और अनुष्ठान से भी देवी रीझती नहीं। उन्हें राम की अभी और परीक्षा लेनी है। वह सामने नहीं आतीं। विभीषण सुझाव देते हैं कि देवी को एक सौ आठ नीलकमल भेंट किए जाएँ। हनुमान वायु मार्ग से देवी दह में जाकर उन दुर्लभ कमलों को इकट्ठा करते हैं। देवी उनमें से एक कमल चुरा लेती हैं, बस चुहल के लिए। राम तरह-तरह से विलाप करते हैं - 

जन्मावधि दुःख मा गो कि कहिब आर। तबु दुःख दाओ, दया ना हय तोमार।

क्लेशे अवसन्न तनु, शुन गो तारिणि। दया कर दयामयि, पतितोद्धारिणि।

कत दुःख दिले माता, भेवे देख मने। राज्य बिनाशिया शेषे आनिला कानने।

तथापि नाहिक क्षमा अरण्ये आनिले। रावणेर द्वारा शेषे जानकी हराले।

अंत में उन्हें याद आता है कि सभी उन्हें ‘कमललोचन’ कहा करते थे और वे नीलकमल के बदले अपनी आँख निकाल कर चढ़ाने के लिए तीर उठाते हैं। अब देवी प्रकट होती हैं और उनका हाथ पकड़ लेती हैं-

एत बलि तूण हैते लइलेन बाण। उपाड़िते जान चक्षु करिते प्रदान।

कान्दिते कान्दिते राम करेन स्तवन। देवीर हइल दुःख देखिया रोदन।

चक्षु उपाड़िते राम बसिला साक्षाते। हेन काले कात्यायनी धरिलेन हाते।

कि कर कि कर प्रभु जगत गोसाँइ। संकल्प तोमार पूर्ण, चक्षु नाहि चाइ।

कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने भी कृत्तिवास की इस कथा को हिंदी में उतारा था लेकिन ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ के साथ। राष्ट्रवाद के गाँधी युग में यह भी एक राजनीतिक प्रतीक का साहित्यिक सृजन था-

आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर

तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों परशक्ति की करो मौलिक कल्पना

करो पूजन, छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनन्दन!

लेकिन राम, निराला के यहाँ भी तुलसीदस के राम ही हैं, कृत्तिवास के नहीं - अपने निश्चय से शक्ति को झुकाने वाले, शक्ति की मौलिक कल्पना करते हुए राम। हिन्दी जनमानस में तुलसीदास की राम कथा काफ़ी गहरे पैठी हुई है, जो अपनी ताक़त पितृसत्ता के कसे हुए प्रतिमानों से लेती है और बदले में वह इस पितृसत्ता को ताक़त भी देती है। रामकथा के इस स्वरूप में दुर्गा या पार्वती सबसे पहले स्त्री या किसी की पत्नी हैं। आदिशक्ति दुर्गा का वह स्वरूप इस क्रम में कहीं बहुत पीछे छूट जाता है। ‘रामचरितमानस’ में देवी का स्थान वह नहीं है जो मार्कण्डेय पुराण या कृत्तिवास रामायण में था। यहाँ देवी पार्वती भी स्त्री होने के नाते अपनी हीनता स्वीकार करते देखी जा सकती हैं। राम कथा सुनने की इच्छा प्रकट करते हुए पार्वती यह सफ़ाई भी देती चलती हैं - “यद्यपि योशिता(स्त्री) होने के नाते मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मन, वचन, कर्म से आपकी दासी हूँ”-

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी।।

गूढंऊ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं।।

तुलसी ने भले ही कृत्तिवास के लगभग एक शती बाद राम कथा लिखी हो और तमाम प्रसंग कृत्तिवास से ही उधार लिए हों लेकिन देवी के इस स्वरूप को तुलसी का रामचरितमानस पचा नहीं सका।
तुलसी के राम, युद्ध से पहले महज़ शिव की आराधना करते हैं, देवी की नहीं। हालाँकि शिव और राम का परस्पर आदर-भाव कृत्तिवास के यहाँ भी है, लेकिन तुलसी रामायण की तरह कृत्तिवास के शिव इतने बेदर्द नहीं हैं कि वह राम के लिए देवी का परित्याग कर दें। हाँ, रावण को लेकर शिव-पार्वती कलह ज़रूर करते हैं। पार्वती शिव को ताना मारती हैं-
तुमि त भांगड़ सदा बेडाओ श्मशाने। कोन गुणे पूजे तोमा लंकार रावणे।
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रामविलास शर्मा, जो हिन्दी के एक बड़े आलोचक थे, उन्हें कृत्तिवास रामायण में राम का देवी के सामने बार-बार रोना अच्छा नहीं लगता। राम कथा के तुलसीदास मॉडल में प्रशिक्षित हिंदी के यह प्रगतिशील आलोचक भी इसे स्वीकार नहीं कर पाते। कृत्तिवास पर कटाक्ष करते हुए शर्मा लिखते हैं-“कृत्तिवास के राम रोते बहुत हैं, रोते-रोते धूल में लोटने लगते हैं। यही नहीं, उनके साथ लक्ष्मण रोते हैं, ‘वीर हनुमान’ भी रोते हैं।...फिर सुग्रीव, अंगद, नल, नील, जाम्बवान भी रोना शुरू करते हैं। देवता स्वर्ग में दुखी हो जाते हैं - सौभाग्य से रोते नहीं हैं। राम के बार-बार रोने-गिड़गिड़ाने से चरित्र का धीरोदात्त गुण नष्ट हो गया है।”
तुलसी का पाठक दुर्गा के सामने रोते हुए करुण राम की कल्पना से घबरा जाता है, राम के आगे दुर्गा को खड़ा किया जाना उसके लिए अकल्पनीय है।
दो सांस्कृतिक क्षेत्रों की स्मृति में राम और दुर्गा के प्रतीकों के जो अलग-अलग अर्थ हैं, उनकी छाया राजनीति में भी देखी जा सकती है। एक तरफ़ की राजनीति में सर्वोच्च सत्ता एक अतिमानवीय पुरुष ही हो सकता है, जिसके अपने लोग उसके आगे हाथ जोड़े खड़े रहते हैं और शत्रु जिसके आगे टिक नहीं सकता। वहीं, दूसरी ओर दुर्गा हैं, जो ममतमायी भी हैं और चंचल भी। जिन्हें ख़ुश करके रखना बहुत ज़रूरी है। उन्हें पति या पितृसत्ता का भय दिखाकर वश में नहीं किया जा सकता। जिनकी सहयोगिनी कई देवियाँ हैं, वे सब भी दुर्गा की ही रूप हैं। जिनकी पूजा किए बिना राम भी सफल नहीं हो सकते।बंगाल की राजनीति में हमें ये दोनों प्रतीक आमने-सामने खड़े दिख रहे हैं। जहाँ एक तरफ़ ‘जय श्री राम’ के रूप में पौरुष की दहाड़ है तो दूसरी ओर तृणमूल की सभाओं में महिलाओं द्वारा की जा रही ऊलू ध्वनि और घर- घर में दुर्गा जगाए जाने का आह्वान।
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चारू सिंह

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