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बिहार : तो क्या इस बार जाति और धर्म पर वोट नहीं पड़ेगा? 

जिस प्रदेश का सारा हिसाब जाति पर चलता माना जाता रहा हो, जहाँ बालाकोट मसले ने 40 में से 39 सीटें मोदी जी की झोली में डाल दी हों, वहां का यह चुनाव हैरानी पैदा कर रहा है। पर यह हैरानी बाहर बैठे राजनैतिक पंडितों, चुनावी रणनीतिकारों और जाति-सम्प्रदाय की राजनीति करने वालों को ही है। बिहार चुनाव में जो प्रभावी खिलाडी हैं, वे खुश हो रहे हैं कि उन्होंने जो बातें उठाई हैं, वे लोगों को पसन्द आ रही हैँ, उन पर चर्चा हो रही है और उसी पर मतदान होने की उम्मीद है।
अरविंद मोहन
चुनाव और जाति का रिश्ता हमारे लोकतंत्र का एक अखिल भारतीय ‘गुण’ है, लेकिन राजनैतिक मामलों में अगुआ माने जाने वाले बिहार को इस मामले में बाकी मुल्क़ से चार कदम आगे माना जाता है। पर जो लोग दो और दो चार के हिसाब से जातियों के आँकड़े और उम्मीदवारों की जाति तथा पार्टियों-नेताओं के साथ जातीय गोलबन्दियों का हिसाब किताब लगाने पहुँच रहे हैं, बिहार उनको निराश कर रहा है। 
बिहार से जाति बिला गई हो, ऐसा तो नहीं  है, लेकिन इस विधानसभा चुनाव में जातिगत पहचान और उसके आधार पर वोटिंग का मसला काफी पीछे हो गया लगता है। इससे भी ज़्यादा निराशा उन राजनेताओं को हो रही है जो पाकिस्तान, कश्मीर, राहुल गांधी द्वारा केरल के मुसलमान पत्रकार से भेंट करने के बाद अब मदरसा शिक्षा का सवाल उठाते जा रहे हैं और लोगों में ये मुद्दे वांछित असर नहीं पैदा कर रहे हैं।
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बिहार में जातियाँ नहीं रहीं?

जिस प्रदेश का सारा हिसाब जाति पर चलता माना जाता रहा हो, जहाँ बालाकोट मसले ने 40 में से 39 सीटें मोदी जी की झोली में डाल दी हों, वहां का यह चुनाव हैरानी पैदा कर रहा है। 
यह हैरानी बाहर बैठे राजनैतिक पंडितों, चुनावी रणनीतिकारों और जाति-सम्प्रदाय की राजनीति करने वालों को ही है। बिहार चुनाव में जो प्रभावी खिलाड़ी हैं, वे खुश हो रहे हैं कि उन्होंने जो बातें उठाई हैं, वे लोगों को पसन्द आ रही हैं, उन पर चर्चा हो रही है और उसी पर मतदान होने की उम्मीद है।

नई शुरुआत?

शुरुआत तो उसी बदनाम पप्पू यादव ने काफी पहले से कर दी थी जिस पर लोगों का भरोसा ज्यादा नहीं रहा है। फिर लन्दन पलट और 'प्लूरल्स' नामक एकदम विलायती नाम वाली पार्टी और सीधे मुख्यमंत्री का दावा करने वाली पुष्पम प्रिया चौधरी अर्थात ‘गोर रंग कपड़ा करिया, अबकी बार पुष्पम पिरिया’ के नारे वाली लड़की ने सबका ध्यान खींचा और कम से कम नौजवानों में बिहार के पिछड़ेपन और रोजी-रोटी के मुद्दे की चर्चा शुरू की। 
दलितों और उसमें भी मात्र दुसाधों के नेता बताए जाने वाले रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति के नए नेता चिराग पासवान ने ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ ने बिहारी पहचान का सवाल ऊपर किया और नीतीश कुमार से सीधे भिड़ने की हिम्मत दिखाकर जताया कि उन्हें 2020 की जगह 2025 के चुनाव की चिंता है और वे लम्बी रेस का घोडा हैं।

नया एजेंडा

चाहे बीजेपी का इशारा हो या अपनी समझ, जिस तरह चिराग ने उम्मीदवार दिए और नीतीश पर हमले किए वह मात्र दलित या अपने वोट बैंक की चिंता करने वाली बात नहीं रही। खुद को महागठबन्धन का नेता मनवाने में तेजस्वी यादव को खासी मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन एक बार यह मसला तय होते ही उन्होंने जो रजनीति शुरू की, उसने चुनाव का एजेंडा सेट करना शुरू कर दिया और विपक्ष ही नहीं पक्ष के लोग और राजनैतिक पंडित भी हैरान रह गए।
उनके चाहने या अपनी ज्यादा ऊँची महत्वाकांक्षा से शुद्ध जातिगत पहचान वाली पार्टियाँ, 'हम', 'वीआईपी' और 'रालोसपा' बाहर गए और दो को तो एनडीए ने ‘लपक’ लिया। उपेन्द्र कुशवाहा भी उधर जाकर अपना मोर्चा बनाने मेँ लगे।
इन पार्टियों के बाहर जाने का लाभ यह हुआ कि राष्ट्रीय जनता दल को तीनों कम्युनिष्ट पार्टियों को साथ लेने और कांग्रेस को भी कुछ ज़्यादा सीटें देने की गुंजाइश बन गई।

नया समीकरण

पिछले चुनाव में उसने मात्र एक ब्राह्मण और एक कायस्थ उम्मीदवार दिया था, तो इस बार सारे अगड़ों को भी ठीक- ठाक सीट देने और कांग्रेस से ‘दिलाने’ के चलते उसने और लोजपा ने अगड़ों को ‘लुभाने’ का खेल भी शुरु किया जो पिछले 15 साल से एक अलग तरह की ‘अल्पसंख्यक मानसिकता’ से लगातार लालू- विरोधी मजबूत दल को वोट देते थे।
असली अल्पसंख्यकों को तो उनके अनुपात से ज्यादा कौन कहे, बराबर भी टिकट किसी दल ने नहीं दिया है। लेकिन इस बार सभी दल अगड़ों को अपनी तरफ करने में लगे हैं, जिन्हें बीजेपी और उससे ज्यादा जदयू के अगड़ा समर्थन के बदले ठगे जाने का एहसास साफ दिखता है। बिहार में जाति से अलग मुद्दों के प्रभावी होने में इसका भी हाथ है।

जाति से बाहर निकलने की कोशिश

पहली चीज तो राजद और तेजस्वी यादव का जाति का मसला उठाना छोड़ना है, हालांकि टिकटों में उन्होंने अनुपात से कई गुन यादवों को टिकट दिया है। बीजेपी या संघ की तरफ से भी आरक्षण पर या दलितों-पिछडों के मसले पर कोई नया टंटा खडा न करना महत्वपूर्ण है। योगी आदित्यनाथ जैसे कई नेताओं द्वारा कम्युनिष्ट पार्टियों पर हमला करना ज़रूर इस बात को बताता है कि ये तीन दल भी जमाने बाद ज्यादा प्रभावी भूमिका में आए हैं। उनका प्रभावी होना ही बताता है कि बिहार जाति सम्प्रदाय की राजनीति से बाहर निकलने का प्रयास कर रहा है।
लेकिन निश्चित रूप से तेजस्वी यादव द्वारा 10 लाख लोगों को नौकरी देने के वायदे ने सबसे बडी चुनावी हलचल मचाई। वे भी इस पर डटे रहे और तैयार होकर आए लगे। हमले हुए, खर्च का हिसाब पूछा गया। उन पर और उनके भाई पर निजी हमले हुए। नीतीश कुमार ने सारे लिहाज छोडकर तेज प्रताप की पत्नी ऐश्वर्या, जिनके साथ उनका तलाक़ का मुकदमा चल रहा है, को अपने मंच पर लाने से नहीं हिचके। लेकिन जब यह मुद्दा जमता गया और तेजस्वी की सभाओं में भीड उमडने लगी तो मजबूरी में बीजेपी को भी 19 लाख रोजगार और एक करोड़ महिलाओं के स्वरोजगार का वायदा करना पडा।
अब कौन सच्चा माना जाता है और कौन झूठा और कौन 2 करोड़ रोजगार का वायदा करके मुकरा है, यह सब चुनाव तय कर देगा। लेकिन बिहार में रोज़गार, बिहारी अस्मिता, पलायन का सवाल, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली मुख्य चुनावी मुद्दे बन जाएँ तो इससे शुभ कुछ नहीं हो सकता।
जाहिर है जब भी भर्तियाँ होंगी शिक्षा और स्वास्थ्य को ही प्राथमिकता मिलेगी जिसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है और जिसके बगैर उद्योग लगाने तथा विदेशी निवेश लाने जैसी बातें बकवास हैं। नीतीश कुमार और बीजेपी ने शुरू में  लालू राबड़ी के 15 साल बनाम अपने शासन के 15 साल को मुद्दा बनाने की कोशिश की, जिसका अब कोई प्रभाव नहीँ दिखता है।
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