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बीजेपी-जदयू ने डेढ़ दशक के शासन में ध्वस्त किए बिहारियों के सपने!

नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में बहुत सुनहरे सपने लेकर सत्ता में आए थे। विधानसभा चुनाव के पहले जब नीतीश कुमार जनता से वादा करते थे कि किसी बिहारी को भूख के कारण बिहार नहीं छोड़ने दूँगा। यह बहुत मार्मिक अपील थी। नीतीश उसके लिए बाक़ायदा कार्ययोजना बताते थे कि राज्य में सत्ता में आने पर विभिन्न इलाक़ों में कृषि से जुड़े क्लस्टर और विनिर्माण केंद्र बनाए जाएँगे। लोगों को स्थानीय स्तर पर रोज़गार दिए जाएँगे। आख़िरकार वह बिहार के लोगों को समझाने में सफल रहे। लालू प्रसाद के शासन से अकताए सवर्णों ने बीजेपी का दामन थाम लिया और नीतीश कुमार कुछ पिछड़ों और दलितों का वोट खींच लाए। बिहार में लालू प्रसाद के शासन का अंत हुआ और भाजपा-जदयू का शासन शुरू हो गया।

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क्या-क्या थे वादे?

लीची उद्योग-

देश में कुल लीची उत्पादन का 80 प्रतिशत बिहार के मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, वैशाली, पश्चिम चंपारण, सीतामढ़ी में होता है। सरकार ने सपने दिखाए थे कि बिहार के मुजफ्फरपुर इलाक़े की पहचान लीची के लिए है। फ़सल के उत्पाद ख़राब न हों, इसके लिए राज्य के इस इलाक़े में लीची से जुड़ी प्रोसेसिंग इकाइयाँ स्थापित की जाएँगी, जिससे लीची को वैश्विक पहचान दिलाई जा सके। तमाम सर्वेक्षणों से पता चलता है कि बिहार में कुल लीची उत्पादन का 25 प्रतिशत यानी 70 हज़ार टन से ज़्यादा लीची फटकर और गिरकर बर्बाद हो जाती है। बीजेपी की सरकार अभी भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव के पहले लीची को लेकर प्रसंस्करण संयंत्र, शोध संस्थान, प्रशिक्षण केंद्र आदि की स्थापना करने के वादे से लेकर छोटे-मोटे उद्घाटन करने में लगी रहती है। अभी भी बिहार के लीची किसानों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। कुछ निर्यातक ज़रूर बढ़े हैं, जो काम कर रहे हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि बिहार लीची निर्यात का बड़ा केंद्र बनकर उभरा है और राज्य की आमदनी में कोई बड़ा हिस्सा लीची का हो गया है।

तलमखाना उद्योग-

बिहार की एक प्रमुख पहचान तलमखाना है। बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, जम्मू कश्मीर, मणिपुर, मध्य प्रदेश राजस्थान और नेपाल के तराई वाले इलाकों में भी इसकी खेती होती है, लेकिन उत्पादन में 80 प्रतिशत हिस्सा बिहार का है। दरभंगा, सहरसा, सुपौल और मधुबनी ज़िलों में तलमखाने की खेती होती है, जिसे मिथिलांचल कहा जाता है। मखाने की खेती के मामले में भी बिहार कोई यूएसपी नहीं बन पाया है। इसकी समस्याएँ भी यथावत बनी हुई हैं। इलाक़े के मल्लाह ही पानी के ज़हरीले जीवों, विषाणुओं, काँटेदार छिलकों के बीच से मखाना निकालते हैं, जो मज़दूर ही रह गए हैं। साँस रोककर तालाब में गोते लगाना उनकी मज़बूरी है और उनके अपने तालाब न होने के कारण उन्हें मुनाफ़ा नहीं हो पाता। पानी से मखाना निकालने की प्रक्रिया में अमूमन 25 प्रतिशत मखाना तालाब में ही छूट जाता है और 25 प्रतिशत छिलका उतारते समय ख़राब हो जाता है। 

कुल मिलाकर स्थितियाँ यथावत हैं। थोड़ा बहुत प्रोसेसिंग में निवेश और पट्टे पर ज़मीन देने की कार्रवाई ज़रूर हुई है, लेकिन देश में आज भी बहुत कम लोगों को जानकारी है कि बिहार मखाना बेचता है।

दुग्ध उद्योग

दुग्ध उद्योग को बढ़ावा देना भी सरकार के सपनों में शामिल था। पहली बार जब भाजपा-जदयू सत्ता में आई तो इसका भी ख़ूब प्रचार-प्रसार किया गया कि बिहार के दुग्ध उत्पाद को देश में पहचान दिलाई जाएगी। बिहार स्टेट मिल्क कोऑपरेटिव फ़ेडरेशन लिमिटेड ने सुधा नाम से उत्पाद का प्रसार शुरू किया। देश के कुछ इलाक़ों में सुधा डेयरी खोलने की भारी-भरकम घोषणाएँ हुईं। दूध उत्पादन के कई यूनियन भी बने हैं। इस क्षेत्र में कुछ काम ज़रूर हुआ है और क़ारोबार 3 हज़ार करोड़ रुपये से ऊपर पहुँच गया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि अमूल ब्रांड की तरह इसकी कोई खास पहचान बन पाई हो।

फूलों की खेती 

इसके अलावा औरंगाबाद ज़िले में कुछ किसान चेरी की खेती कर रहे हैं। फूलों की खेती से किसानों की आमदनी बढ़ाने के भारी भरकम दावे किए गए। कद्दू, नेनुआ, करेला, तरबूज, भिंडी आदि की खेती के लिए दियारा विकास योजना चलाई गई। बक्सर, भोजपुर, पटना, वैशाली, मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, खगड़िया, सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, पूर्णिया, कटिहार, भागलपुर, मुंगेर, लखीसराय, समस्तीपुर, दरभंगा, मधुबनी, बेगूसराय, सारण, सिवान, गोपालगंज, शिवहर व सीतामढ़ी सहित 25 ज़िलों में दियारा विकास योजना पर काम हो रहा है। लेकिन यह काम अभी चल ही रहा है। 15 साल के शासन के बाद इसके परिणाम आने अभी बाक़ी हैं।

बौद्धिक संपदा

बिहार की बौद्धिक संपदा का प्रचार प्रसार ख़ूब किया जाता है। दुनिया भर में बिहार के साइबर मज़दूर मिल जाते हैं। इसके अलावा तमाम औद्योगिक क्षेत्रों में प्रबंधक से लेकर रिक्शाचालक तक बिहारी पाए जाते हैं। तमाम लोगों को अभी भी याद होगा कि बिहार सरकार के एक अधिकारी प्रत्यय अमृत बहुत प्रसिद्ध हुए थे। उस समय अख़बारों में ख़ूब कहानियाँ छपवाई जाती थीं कि जम्मू तक जाकर बिहार का लोक निर्माण विभाग पुल बना रहा है। 

इसे ऐसा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता कि बिहार के इंजीनियर अब बिहार को भारत का सबसे बड़ा बिल्डर बना देंगे और पूरे देश में पुल और भवनों का निर्माण बिहार ही कराया करेगा। लेकिन अब यह सब योजनाएँ परिदृश्य से ग़ायब हैं।

न कोई अस्पताल, न विश्वविद्यालय

कुल मिलाकर देखें तो बिहार सरकार के हाथ में आज कुछ भी नहीं है। भाजपा-जदयू सरकार के पास दिखाने के लिए कोई एक मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, यूनिवर्सिटी, प्रबंध संस्थान तक नहीं है, जो उसने पिछले 15 साल के दौरान सेंटर ऑफ़ एक्सिलेंस के तौर पर विकसित किया हो और पूरी दुनिया में उसका नाम हो। नालंदा विश्वविद्यालय की घोषणा और उसे वैश्विक शिक्षा केंद्र बनाने की घोषणा कागजों में ही सिमटी रह गई। बिहार में कोई बीमार पड़ता है तो वह दिल्ली का रुख करता है। ग़रीब हुआ तो एम्स, अमीर हुआ तो वेदांत या फोर्टिस। न तो बिहार में निजी क्षेत्र का कोई हॉस्पिटल है, न सरकारी। इसके अलावा शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी बिहार के विद्यार्थी दूसरे राज्यों में भागने के लिए मजबूर हैं।

राज्य के वित्त मंत्री और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी 15 साल से हर साल क़रीब 2 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश कर रहे हैं। कोई भी विचारवान व्यक्ति उम्मीद कर सकता है कि इसमें से हर साल कुछ हज़ार करोड़ रुपये मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज, विश्वविद्यालय के लिए निकालने चाहिए थे, जिससे राज्य में 3-4 वैश्विक स्तर के संस्थान बन जाते। लेकिन बिहार के लोग अभी भी बेहतर पढ़ाई, बेहतर इलाज के लिए जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय और एम्स के चक्कर काटने को मजबूर हैं।

सरकार के पहले कार्यकाल में ग्रामीण इलाक़ों को सड़कों से जोड़ने और बिजली सुधार के कुछ सुनहरे पहलू हैं, लेकिन इसमें राज्य सरकार का कोई ख़ास योगदान नहीं है। मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल में ग्रामीण इलाक़ों की सड़कों पर बड़े पैमाने पर धन ख़र्च किया गया था, और देश भर में गाँवों में सड़कें दुरुस्त हुईं। बिहार भी इसका लाभार्थी बना। इसी तरह से मनमोहन सिंह सरकार का दूसरा कार्यकाल पूरा होने तक देश में बिजली उत्पादन की क्षमता कुल माँग से ज़्यादा हो गई, जिसका लाभ बिहार को मिला। हालाँकि सप्लाई के लिए तार न बिछा पाने, ट्रांसफ़ॉर्मर न लग पाने जैसी वजहों से अब भी बिजली लोगों तक पहुँच नहीं पा रही है और उत्पादन न करने के कारण बिजली कंपनियों पर दो लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का कर्ज चढ़ गया है।

भाजपा और जदयू के पास 15 साल के शासन के बाद भी दिखाने के लिए केवल लालू और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की सत्ता वापसी का भय है। इसके अलावा सुशांत की आत्महत्या और हत्या के फैलाए भ्रम के बीच उभरा बिहारी गौरव है। राजद के ऊपर लगाने के लिए परिवारवाद या यादववाद का आरोप है। राजद की वापसी होने पर सवर्णों के उत्पीड़न और दलितों-पिछड़ों के फिर से सिर पर चढ़ जाने का भय है, जिसे सरकार भुनाकर 2020 के चुनाव में भी सत्ता की फसल काट सकती है।
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प्रीति सिंह

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