सरकारी स्कूल की पाँचवीं कक्षा की छात्रा आमना हिंदी में सिर्फ़ अपना नाम लिख पाती हैं, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद सड़क, गाड़ी, बाज़ार, चीनी, जागरण जैसे आसान शब्दों को पढ़ने में वह नाकाम रहती हैं। उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों की उन्हें कोई पहचान नहीं है। उनकी संख्यात्मक अभियोग्यता भी शून्य है। आमना की माँ शकीला कहती हैं, ‘मास्टरवा ही ठीक से नहीं पढ़ाता होगा। आमना तो रोज़ स्कूल जाती थी, बस लाॅकडाउन के बाद से वह स्कूल नहीं गई है।’
आमना के पिता मुजीब गुजरात में मजदूर हैं। माँ शकीला भी गाँव में खेतों में काम करती हैं। आमना का बड़ा भाई और दो छोटी बहनें कभी स्कूल नहीं गए हैं।
बेगूसराय के मंसूर चक में रहने वाले हाशिम और उसके भाई जुबैर की बेटी तहरीन और मुसर्रत पिछले साल 10वीं की परीक्षा पास कर अभी ग्यारहवीं में पढ़ती है। तहरीन और मुसर्रत दोनों मृत्युंजय, अरुण, शमशेर, अलंकृता, इंजीनियर, अतिथि और चीनी जैसे शब्द सही-सही नहीं लिख पाती है। उसे यह भी नहीं मालूम है कि इस वक़्त देश का राष्ट्रपति कौन है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वह अच्छे से पहचानती हैं। हालाँकि उत्तर प्रदेश बिहार में है या दिल्ली में इस सवाल में वह उलझ जाती हैं। वातावरण में नाइट्रोजन और कार्बन के अलावा कौन सा गैस होता है, इस सवाल को सुनते ही दांत निपोर कर दोनों आंगन से उठकर कमरे में भाग जाती हैं। बीड़ी बनाने का काम करने वाले उनके माता-पिता अपनी बेटियों का बचाव करते हुए कहते हैं, ‘इन दोनों ने सिर्फ़ हिसाब (गणित) का टयूशन किया है इसलिए दूसरे विषयों में कमज़ोर हैं जबकि 32 रुपये प्रति लीटर बिकने वाले दूध का 250 ग्राम का कितना पैसा होगा दोनों में से कोई भी लड़कियाँ जवाब नहीं दे पाती हैं।
मुजफ्फरपुर के रतनपुरा गाँव की सबिहा दो साल पहले 12वीं पास कर चुकी है। उसी घर में उसके चाचा की लड़की जैनब ने भी उसके साथ 12वीं पास की थी। सबिहा और जैनब दोनों आगे पढ़ना चाहती थी, लेकिन दोनों के अभिभावकों ने उनकी शादी कर दी। इत्तेफाक से दोनों एक साथ ससुराल आई हुई हैं। उन दोनों में से किसी को नहीं पता है कि अभी बिहार में कौन सा चुनाव हो रहा है। उनका अभी वोटर कार्ड भी नहीं बन पाया है। दोनों लड़कियों के पास स्मार्ट फ़ोन है। वह फ़ेसबुक के बारे में जानती है लेकिन इस प्लेटफ़ॉर्म पर अभी उनका अकाउंट नहीं है।
ये दोनों लड़कियाँ अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी की पहली लड़की है जो स्कूल गई हैं। हालाँकि इसी घर में सबिहा का बड़ा भाई शकील पाॅलिटेकनिक की पढ़ाई कर पुणे में नौकरी करता रहा है। पुरुषों में भी पढ़ने-लिखने वाला परिवार का वह पहला आदमी है।
इन दोनों के पिता कोलकाता में प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते हैं। सबिहा और जैनब मेरे कैमरे में अपनी तसवीरें खींचने से मना कर देती हैं।
इसी गाँव के उच्च जाति के मुसलमानों के घरों की कई लड़कियाँ दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, हैदराबाद और कोलकाता में रहकर उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हैं जबकि पसमांदा समाज की लड़कियाँ थोड़ी-बहुत जो शिक्षा ले रही हैं, वह भी स्तरहीन है। पढ़ने का साहस करने वाली लड़कियाँ ज्ञान नहीं बल्कि डिग्रियाँ ज़्यादा बटोर रही हैं। ये हालात पूरे बिहार के हैं। कई लड़कियाँ पढ़-लिखकर वाक़ई अच्छा करना चाहती हैं, लेकिन उनकी राह में पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक पस्थितियों के अलावा प्रदेश का बीमार शिक्षातंत्र भी रोड़े अटका देता है। काॅलेजों में शिक्षक नहीं हैं। समय पर परीक्षाएँ नहीं होती हैं। बिहार में तीन साल का ग्रेजुएशन करने में 5 से 7 साल तक लग जाते हैं।
सरकारी स्कूल के सेवानिवृत्त शिक्षक रफीक अहमद कहते हैं,
‘शैक्षणिक रूप से हमारा समाज हाशिए पर है। आज भी उन्हीं घरों के बच्चे और लड़कियाँ पढ़ती हैं जो पहले से पढ़ा-लिखा परिवार है। प्राथमिक, मध्य विद्यालय और उच्च विद्यालय के स्तर पर मीड-डे मील, छात्रवृत्ति, पोशाक, साइकिल और 10वीं-12वीं पास करने पर सरकार की तरफ़ से मिलने वाली प्रोत्साहन राशि के कारण स्कूलों में नामांकन तो बढ़ गया है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता पहले से भी ज़्यादा ख़राब हो गई है। ढेर सारे ऐसे बच्चे होते हैं जो 5वीं कक्षा पास कर जाते हैं और उन्हें अक्षर ज्ञान तक नहीं होता है। ऐसे बच्चों में सभी धर्मों के अर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों के लड़के और लड़कियाँ दोनों शामिल हैं। मुसलमानों और ख़ासकर पसमांदा मुसलिम समुदाय में यह समस्या बहुत ज़्यादा है।’
देश में इस समय महिला साक्षरता का प्रतिशत 64.6 प्रतिशत है जबकि बिहार में महिला साक्षरता की दर अभी 51.5 प्रतिशत है। 2001 के जनगणना के अनुसार, मुसलिम समाज के ऊंची जाति के मुसलमानों में महिला साक्षरता ग्रामीण इलाक़ों में 34.1 प्रतिशत है जबकि शहरी इलाक़ों में 47 प्रतिशत है। मध्य श्रेणी की जातियों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महिला साक्षरता का दर क्रमशः 26.2 प्रतिशत और 42.2 प्रतिशत है जबकि निम्न जातियों में यह प्रतिशत क्रमशः 26.2 और 39.4 प्रतिशत है।
मुसलिम लड़कियों की शिक्षा में कम भागीदारी और सरकारी स्कूलों में गिरते गुणवत्ता के सवाल पर मुसलिम मोहल्ले के सरकारी स्कूल के एक शिक्षक जुनैद अहमद बताते हैं,
‘इसके कई कारण हैं। स्कूलों में पठन-पाठन का कोई माहौल ही नहीं है। अभी पढ़ाई से ज़्यादा मिड-डे मील महत्वपूर्ण है। शिक्षकों के पास ग़ैर शिक्षकेत्तर कार्यों का इतना अधिक बोझ होता है कि वह अपना पढ़ाई का मूल काम ही नहीं कर पाते हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की बेहद कमी है। जो सक्षम लोग हैं उनके बच्चे तो इन्हीं स्कूलों में पढ़-लिख लेते हैं, जो नहीं पढ़ते हैं उनके साथ कई दिक्कतें हैं। आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चों और लड़कियों को स्कूल के अलावा मज़दूरी भी करनी होती है। उन्हें घर का काम भी करना होता है। स्कूल से घर जाने के बाद वह पढ़ाई नहीं कर पाती हैं, अगर करती भी हैं तो उसकी निगरानी नहीं की जाती है।’
प्राइमरी से ऊपर और सेकंड्री से नीचे ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में मुसलिम महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत क्रमशः 29.1 और 36.1 प्रतिशत है जबकि सामान्य महिलाओं का प्रतिशत ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में क्रमशः 23.3 और 34.1 प्रतिशत है। स्नातक या उससे ऊपर की पढ़ाई में सामान्य श्रेणी की महिलाओं (ग्रामीण और शहरी 3.9 एवं 13.8 प्रतिशत) के मुक़ाबले में मुसलिम महिलाओें का प्रतिशत ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में क्रमशः 1.6 और 8.1 प्रतिशत है। स्कूल कभी न जाने वाली और नामांकन करा कर पढ़ाई छोड़ने वाले में भी मुसलिम समाज की लड़कियों का प्रतिशत सामान्य श्रेणी की महिलाओं से ज़्यादा है।
उच्च शिक्षा में भी मुसलिम और ख़ासकर पसमांदा समाज की लड़कियों की भागीदारी काफ़ी कमज़ोर है। उन्हें कई स्तरों पर समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
पसमांदा मुसलिम समस्याओं का अध्ययन करने वाले दरभंगा के शिक्षाविद डॉ. अयूब राईन कहते हैं, ‘इसके लिए सरकार की नीतियों के अलावा मुसलिम समाज का टाॅप नेतृत्व भी ज़िम्मेदार है। मुसलमानों का नेता और पढ़े-लिखे वर्ग ने कभी इस समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया। एक ही बस्ती में अशराफ मुसलमानों के घरों की लड़कियाँ पारंपरिक बीए, बीएससी और एमए, पीएचडी के साथ इंजीनियरिंग, मेडिकल, डेंटल जैसी तकनीकी शिक्षा ग्रहण करती हैं जबकि पसमांदा समाज की लड़कियाँ ढंग से दसवीं तक पास नहीं कर पाती हैं।’ वह कहते हैं, ‘आज़ादी के 72 सालों बाद भी पूरे बिहार में बक्खो समाज के सिर्फ़ 12 लोग ग्रेजुएट बने हैं और उनमें लड़कियों की संख्या सिर्फ़ एक है। हालाँकि वह यह भी स्वीकार करते हैं कि पिछले दस सालों में हालात काफ़ी बदले हैं। अशराफ और पसमांदा दोनों वर्ग की मुसलिम लड़कियों की शिक्षा में भागीदारी बढ़ रही है।
सामाजिक कार्यकर्ता रूबीना कहती हैं,
‘मुसलमानों में चाहे वह अशराफ हों या पसमांदा वर्ग, दोनों में आज भी अधिकांश लड़कियों को सिर्फ़ धार्मिक शिक्षा या फिर इतनी ही तालीम दी जाती है कि उसकी शादी हो सके। उसे कोई अच्छा लड़का मिल जाए। गुणवत्तापूर्ण और आला तालीम पर यहाँ कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। लड़कियाँ काॅलज में सिर्फ़ एडमिशन करवाती हैं और एग्ज़ाम देने जाती हैं। बिहार का बदहाल उच्च शिक्षा भी उसके इस क़दम में सहयोग करता है।’
बिहार अल्पसंख्यक आयोग के 2017 के एक सर्वे से भी यह बात पुष्ट होती है कि ग्रामीण इलाक़ों के 26.3 और शहरी इलाक़ों के 12.2 प्रतिशत अभिभावक अपनी लड़कियों को सिर्फ़ धार्मिक शिक्षा तक महदूद रखना चाहते हैं।
60.2 प्रतिशत ग्रामीण और 51.8 प्रतिशत शहरी अभिभावक अपनी लड़कियों को सेकंड्री स्तर तक स्कूली शिक्षा दिलाने की हिमायत करते हैं। यहाँ यह जानना दिलचस्प है कि सिर्फ़ 13.6 प्रतिशत ग्रामीण और 36.1 प्रतिशत शहरी अभिभावक अपनी बच्चियों को स्नातक या उससे ऊपर की शिक्षा दिलाना चाहते हैं।
मुसलिम समाज में स्त्री शिक्षा के पिछड़ेपन के मुद्दे पर महात्मा गाँधी सेंट्रल विश्वविद्यालय में डिवेलपमेंट कम्यूनिकेशन के व्याख्याता डाॅ. साकेत रमण इसके लिए कई कारकों को ज़िम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं,
‘इसके मूल में मुसलिम समाज में प्रचलित पर्दा प्रथा और कम उम्र में लड़कियों की शादी का रिवाज़ रहा है। आर्थिक पिछड़ापन, बहु विवाह और परिवारों का बड़ा आकार भी इस समस्या का कारण रहा है। बड़े परिवारों में हमेशा शिक्षा से ज़्यादा रोज़गार को प्राथमिकता दी जाती है। यही वजह है कि मुसलिम परिवारों में लड़कों के बीच भी सामान्य शिक्षा के बजाए हुनर पर जोर दिया जाता रहा है।’
डाॅ. साकेत कहते हैं,
‘इसके लिए हमारी सरकारें भी ज़िम्मेदार रही हैं। आज भी स्कूल और काॅलेज घर के पास नहीं हैं। लड़कियों को स्कूल-काॅलेजों के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। वे रोज-आने जाने में सहज नहीं हैं। यहाँ महिलाओं की सुरक्षा का भी सवाल है। आज़ादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ज़्यादा रचनात्मक कार्य नहीं किए गए हैं, जिसका खामियाजा अन्य वर्गों के साथ मुसलिम समाज की लड़कियों को भी उठाना पड़ा है।’
हैदराबाद स्थित मौलाना आज़ाद नेशनल ओपन उर्दू यूनिवर्सिटी से बीएड की पढ़ाई पूरी करने वाली पूर्वी चंपारण की शाजिया परवीण कहती हैं,
‘मेरे लिए घर से हैदराबाद जाकर पढ़ाई करना बिल्कुल आसान नहीं था। इसमें सबसे चुनौतीपूर्ण काम अभिभावकों को इस बात के लिए राज़ी करना था। घर से दूर लोग जाने देना नहीं चाहते थे लेकिन आज मेरे गाँव की तीन लड़कियाँ वहाँ से बीएड की पढ़ाई कर रही हैं।’
शाजिया जैसी ढेर सारी ऐसी लड़कियाँ हैं जो तमाम समस्याओं और बाधाओं को पार करते हुए समाज की अन्य लड़कियों और अभिभावकों के लिए मिसाल बनने और प्रेरणा देने का काम कर रही हैं।
(यह रिपोर्ट सेंटर फ़ॉर रिसर्च एंड डायलग ट्रस्ट के बिहार चुनाव रिपोर्टिंग फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।)
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