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क्या दिल्ली की राजनीति में वापस लाया जाएगा हर्षवर्धन को?

डॉ. हर्षवर्धन को मोदी सरकार से हटाया जाना दिल्ली की राजनीति के लिए ऐसी घटना है जिसकी कल्पना डॉ. हर्षवर्धन ने तो क्या उनके विरोधियों ने भी नहीं की होगी। डॉ. हर्षवर्धन की छवि एक भलेमानस की है और कोरोना काल के दौरान जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन पर विश्वास जाहिर कर रहे थे, कोरोना के ख़िलाफ़ जंग में जीत के दावे कर रहे थे, उसे देखकर किसी को यह नहीं लगता था कि केवल डॉ. हर्षवर्धन ही नहीं बल्कि उनके डिप्टी अश्विनी चौबे भी इस तरह अपमानित होंगे और सरकार से निकाल दिए जाएंगे। किसी को भी मंत्रिमंडल में लेना या फिर निकालना प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है लेकिन जिन हालात में डॉ. हर्षवर्धन को हटाया गया है, वह उनके लिए एक बड़ा झटका कहा जा सकता है। इस झटके से वह कैसे उबरेंगे या कैसे उन्हें उबारा जाएगा, यह आने वाला वक़्त ही बताएगा।

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डॉ. हर्षवर्धन को हटाए जाने के पीछे कोई भी कारण या राजनीति हो लेकिन एक जोखिम भी छिपा हुआ था। विपक्ष मोदी सरकार पर लगातार यह आरोप लगाता रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर को संभालने में वह नाकामयाब रही है। इसके बाद वैक्सीनेशन की रफ्तार को लेकर भी जो बातें कही जा रही हैं, उनमें सरकार की नाकामी ही झलक रही थी। डॉ. हर्षवर्धन को हटाए जाने के बाद सरकार ने एक तरह से यह मान लिया है कि विपक्ष जो आरोप लगा रहा था, वे बिलकुल सही हैं। सरकार ने डॉ. हर्षवर्धन और अश्विनी चौबे को हटाकर अपनी नाकामी स्वीकार कर ली है। हालाँकि यह सभी जानते हैं कि मोदी सरकार में अगर किसी की चलती है तो वह मोदी-अमित शाह ही हैं। उनकी मर्जी के बिना कोई मंत्री अपनी मर्जी से पत्ता भी नहीं हिला सकता। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि डॉ. हर्षवर्धन को बलि का बकरा बनाया गया है लेकिन यह सच है कि डॉ. हर्षवर्धन को हटाए जाने का मतलब है कि मोदी सरकार कोरोना के मोर्चे पर फेल रही है।

यह नाकामी स्वीकार करना खासतौर पर दिल्ली के लिए बहुत ही मायने रखता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पूरी फौज केंद्र सरकार को कोरोना की दूसरी लहर की तमाम अव्यवस्थाओं के लिए ज़िम्मेदार बताती रही है। पहली लहर में पीपीई किट, टेस्टिंग किट से मचाए गए शोर की गूंज दूसरी लहर में तो बहुत ही चिंताजनक रूप से सामने आई। 

ऑक्सीजन की कमी से अस्पतालों में हुई मौतें, केंद्र द्वारा दिल्ली को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन न देना, वैक्सीन को दूसरे देशों को बेच देना और वैक्सीनेशन के लिए भी पर्याप्त टीके उपलब्ध न कराना ऐसे गंभीर आरोप हैं जो आम आदमी पार्टी मोदी सरकार पर लगाती रही है।

डॉ. हर्षवर्धन को हटाए जाने के बाद अब आम आदमी पार्टी को एक बड़ा मुद्दा मिल गया है। वे अब यही कहेंगे कि डॉ. हर्षवर्धन को इसीलिए हटाया गया है कि दिल्ली सरकार ने इतना शोर मचाया और अब राजधानी में हुई नाकामी केंद्र सरकार ने खुद ही स्वीकार कर ली है। बीजेपी के लिए यह ज़्यादा जोखिमपूर्ण इसलिए है कि अगले साल के शुरू में दिल्ली में तीनों नगर निगमों के चुनाव होने वाले हैं। अब दिल्ली बीजेपी किस मुंह से केजरीवाल सरकार को कोरोना के मोर्चे पर निकम्मा साबित करेगी।

harsh vardhan resigns to return to delhi politics - Satya Hindi

डॉ. हर्षवर्धन को हटाए जाने के पीछे मोदी-शाह की क्या मंशा रही है, यह अभी कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन राजनीति समझने वाले इसके पीछे छिपे संदेशों को पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं और कयास लगा रहे हैं। डॉ. हर्षवर्धन दिल्ली में बड़ी ही साफ़ छवि वाले नेता रहे हैं। वह ऐसे नेता रहे हैं जिनपर बीजेपी दांव लगाती रही है और जीतती भी रही है। भारत से पोलियो के उन्मूलन में उनके योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता और यह श्रेय उन्होंने तब हासिल किया था जब वह दिल्ली में 1993 से 1998 के दौरान स्वास्थ्य मंत्री थे। वह और उनकी पार्टी वही कमाई अब तक कैश कर रहे हैं।

वह दिल्ली के चंद उन नेताओं में से हैं जो विधानसभा चुनावों में कभी नहीं हारे। 1993 से लेकर 2013 के चुनावों तक वह कृष्ण नगर से लगातार जीतते रहे हैं। 2013 में जब केजरीवाल ने ईमानदारी का झंडा उठाकर राजनीति में एंट्री की थी, तब दिल्ली में बीजेपी के अध्यक्ष विजय गोयल थे। 

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केजरीवाल शीला दीक्षित के साथ-साथ उन्हें भी भ्रष्ट साबित करने में जुटे हुए थे। तब बीजेपी ने डॉ. हर्षवर्धन पर ही दांव खेला था और सचमुच केजरीवाल एंड पार्टी के पास इसका कोई जवाब ही नहीं था। तब आम आदमी पार्टी यह कहती थी कि डॉ. हर्षवर्धन ईमानदार हैं लेकिन ग़लत पार्टी में हैं। डॉ. हर्षवर्धन के चेहरे पर लड़े उस चुनाव में बीजेपी ने सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सफलता हासिल की थी। 

तब डॉ. हर्षवर्धन ने चार विधायक कम होने के कारण सरकार बनाने से इनकार कर दिया था। बीजेपी के बहुत-से नेता इसे एक ऐतिहासिक ग़लती मानते हैं लेकिन डॉ. हर्षवर्धन ने ईमानदार राजनीति करने की अपनी ज़िद को तब भी साबित किया था।

2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की जीत ने डॉ. हर्षवर्धन को केंद्र का ही बना दिया और दिल्ली से उन्हें दूर ही रखा गया। 2015 के विधानसभा चुनावों में किरण बेदी को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर पेश किया गया और 2020 में भी उन्हें दिल्ली नहीं उतारा गया। अब उन्हें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री पद से हटाए जाने के बाद यह पूछा जा रहा है कि क्या डॉ. हर्षवर्धन को दिल्ली सौंपी जा सकती है? क्या उन्हें केंद्र से इसीलिए मुक्त किया गया है कि दिल्ली में बीजेपी के पास केजरीवाल का मुक़ाबला करने के लिए कोई बड़ा नेता नहीं है। दिल्ली में पिछले कुछ समय से जो प्रदेश अध्यक्ष बनाए जा रहे हैं, वे बहुत बड़े नाम नहीं रहे हैं। मनोज तिवारी कभी दिल्ली की राजनीति से जुड़े नहीं रहे और आदेश गुप्ता भी उत्तरी दिल्ली नगर निगम तक सीमित थे। इससे पहले सतीश उपाध्याय का कद भी दक्षिण दिल्ली नगर निगम तक ही बन पाया था। 

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डॉ. हर्षवर्धन को पूरी दिल्ली के बीजेपी के नेता रूप में पेश किया जा सकता है। अभी आदेश गुप्ता का कार्यकाल डेढ़ साल बचा हुआ है। अगले साल के शुरू में होने वाले नगर निगम चुनावों के लिए डॉ. हर्षवर्धन को अतिरिक्त ज़िम्मेदारी दी जा सकती है और फिर 2025 के विधानसभा चुनावों के लिए अभी से रणनीति बनाकर डॉ. हर्षवर्धन को प्रोजेक्ट किया जा सकता है। मगर, ये सारी बातें अभी कयास ही हैं। अगर डॉ. हर्षवर्धन को इसलिए हटाया गया है कि वे स्वास्थ्य मंत्री के रूप में फेल हो गए हैं तो फिर पार्टी उन्हें कोई बड़ी ज़िम्मेदारी देने से बचना चाहेगी। दिल्ली बीजेपी वैसे भी इतने ज़्यादा गुटों में बंटी हुई है कि सभी के लिए डॉ. हर्षवर्धन को स्वीकार करना आसान नहीं होगा। ऐसे में पार्टी को एकजुट रखने की चुनौती भी आएगी और अब उभर रही लीडरशिप भी इसे डॉ. हर्षवर्धन के अपने ऊपर थोपने के समान ही लेगी।

यह तो स्वाभाविक ही है कि इस तरह मंत्री पद से हटाया जाना डॉ. हर्षवर्धन के लिए अप्रत्याशित है। उन्होंने कभी ऐसी राजनीतिक स्थिति का सामना भी नहीं किया। विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव, उन्होंने कभी हार नहीं देखी। इस तरह हटाया जाना उनके लिए एक बड़ी हार है। इस हार से उनमें कितनी राजनीतिक परिपक्वता आती है, यह भी देखना होगा।

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दिलबर गोठी

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