दिल्ली की सत्ता का रास्ता भले ही उत्तर प्रदेश से होते हुए गुजरता हो, लेकिन दक्षिण भारत की पार्टियों को साथ लिए बिना किसी के लिए भी केंद्र की सत्ता हासिल करना आसान नहीं है। दक्षिण में अब भी क्षेत्रीय पार्टियों का ही दबदबा है और इनका साथ लिए बिना बीजेपी और कांग्रेस, दोनों के लिए ही केंद्र में सरकार बनाना बेहद मुश्किल काम है।
हिंदी पट्टी के तीन राज्यों – राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता गँवाने के बाद बीजेपी की मुश्किलें बढ़ गई हैं। कांग्रेस के नेतृत्व में मजबूत होते महागठबंधन, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मिलकर चुनाव लड़ने की कोशिश, एक के बाद एक कर खिसकते सहयोगी दलों ने बीजेपी के रणनीतिकारों की नींद ख़राब कर दी है।
बीजेपी के लिए दक्षिण से भी अच्छी ख़बर नहीं है। दक्षिण के पाँचों राज्यों – आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में बीजेपी अलग-थलग पड़ती जा रही है। कोई भी असरदार और ताक़तवर क्षेत्रीय पार्टी लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी से गठजोड़ करने की इच्छुक नहीं दिखाई दे रही है।
दक्षिण भारत की राजनीति पर क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा इस तरह है कि बीजेपी और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियाँ भी अपने बलबूते वहाँ बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकतीं। लिहाज़ा, उन्हें क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेना ही होगा।
मोदी के ख़िलाफ़ हैं नायडू
आंध्र प्रदेश में बीजेपी को सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ है। तेलगु देशम पार्टी के साथ छोड़ने के झटके से बीजेपी अभी उबर भी नहीं पाई थी कि चंद्रबाबू नायडू के महागठबंधन में शामिल होने से बीजेपी के अस्तित्व पर ही ख़तरा पैदा हो गया है। और तो और, चंद्रबाबू नायडू इन दिनों प्रधानमंत्री के सबसे बड़े आलोचक बनकर उभरे हैं। मौक़ा मिलते ही चंद्रबाबू मोदी पर तीखे हमले कर देते हैं। चंद्रबाबू का कहना है कि मोदी ने आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्ज़ा न देकर वादाख़िलाफ़ी की है। चंद्रबाबू सिर्फ़ वादाख़िलाफ़ी के आरोप तक ही नहीं रुकते, वे मोदी को ‘ब्लैकमेल’ की राजनीति करने वाला नेता क़रार देते हैं। चंद्रबाबू ने महागठबंधन का हाथ थाम लिया है और बीजेपी के ख़िलाफ़ दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों को भी साथ लेने की कोशिश में जुट गए हैं। सूत्रों की मानें तो चंद्रबाबू नायडू ने मोदी का साथ इस वजह से छोड़ा क्योंकि उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री उनके धुर विरोधी जगन मोहन रेड्डी को ज़्यादा तवज्ज़ो दे रहे हैं।
उधर, जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस के भी चुनाव से पहले बीजेपी के साथ जाने की कोई संभावना नहीं है। इसकी बड़ी वजह वाईएसआर कांग्रेस की दलितों, आदिवासियों और मुसलामानों के बीच पैठ है। जगन मोहन रेड्डी जानते हैं कि अगर उनकी पार्टी ने बीजेपी से गठजोड़ किया तो उनका यह मजबूत वोट बैंक उनसे दूर चला जाएगा। आने वाला विधानसभा चुनाव जगन मोहन रेड्डी के लिए बेहद अहम है, ऐसे में वे बीजेपी के साथ गठजोड़ को जोख़िम मानते हैं।
राष्ट्रीय पार्टियों से दूर रहेंगे जगन
जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस के साथ भी नहीं जा सकते हैं। इसकी दो बड़ी वजहें हैं। पहली, उनके विरोधी चंद्रबाबू राहुल गाँधी के साथ आ चुके हैं। दूसरी, आंध्र प्रदेश के विभाजन के लिए राज्य की जनता कांग्रेस को ही ज़िम्मेदार ठहरा रही है। सूत्रों की मानें तो जगन मोहन रेड्डी समझते हैं कि आंध्र प्रदेश को विभाजित करने के लिए कांग्रेस और विभाजन के बाद विशेष राज्य का दर्ज़ा न देने के लिए बीजेपी को आंध्र की जनता माफ़ नहीं करेगी। इसी वजह से वह इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों से दूर रहना चाहते हैं। फ़िल्म स्टार पवन कल्याण भी बीजेपी से नाराज़ हैं। 2014 में उन्होंने बीजेपी-टीडीपी को अपना समर्थन दिया था। इस बार वे दोनों के ख़िलाफ़ हैं। अटकलें हैं कि पवन कल्याण वामपंथी पार्टियों के साथ मिलकर चुनावी दंगल में कूदेंगे।
बीजेपी को कर्नाटक से है भरोसा
दक्षिण में बीजेपी को सबसे ज़्यादा उम्मीद कर्नाटक से है। पिछले विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने के बाद भी वह सरकार नहीं बना पाई थी। कांग्रेस ने देवेगौड़ा की पार्टी जेडीएस से हाथ मिलकर बीजेपी को ठेंगा दिखा दिया था। कांग्रेस ने 224 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा में सिर्फ़ 37 सीटें जीतने वाली जेडीएस के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाकर बीजेपी को सत्ता से दूर रखा।
बीजेपी यही उम्मीद लगाए बैठी है कि कांग्रेस और जेडी(एस) का गठजोड़ टूटेगा या फिर मंत्री न बनाए जाने से नाराज़ इन दोनों पार्टियों के कुछ विधायक बग़ावत कर उसके पास आएँगे। लेकिन उम्मीद हक़ीक़त नहीं बन पाई है। लोकसभा का चुनाव कांग्रेस और जेडीएस के साथ मिलकर लड़ने की संभावना ज़्यादा है और अगर ऐसा होता है तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ेंगी।
तमिलनाडु की बात करें तो यहाँ बीजेपी को भरोसा है कि उसे एआईएडीएमके का साथ मिलेगा। जयललिता के निधन के बाद एआईएडीएमके में नेतृत्व कमज़ोर है। कोई भी नेता किसी दूसरे को अपना नेता मानने को तैयार नहीं हैं। सत्ता हाथ से न जाए, इस मक़सद से नेता फ़िलहाल एकजुट हैं। बीजेपी को उम्मीद है कि जयललिता का वोटबैंक बरक़रार है और यह स्टालिन की डीएमके की तरफ नहीं जाएगा।
मोदी-रजनीकांत की दोस्ती से उम्मीद
एआईएडीएमके के अलावा बीजेपी को सुपर-स्टार रजनीकांत पर भी भरोसा है। बीजेपी के रणनीतिकारों को भरोसा है कि नरेंद्र मोदी और रजनीकांत की दोस्ती चुनाव में मददगार साबित होगी। लेकिन उन्हें कमल हासन से डर भी लगता है। कमल हासन की अब तक की राजनीतिक बातों से साफ़ है कि वह किसी के भी साथ जा सकते हैं, लेकिन बीजेपी के साथ नहीं। एक तरफ जहाँ बीजेपी के संभावित सहयोगियों को लेकर असमंजस और अनिश्चितता की स्थिति है, वहीं कांग्रेस के पास डीएमके की दमदार मौजूदगी है। फ़िल्म स्टार विजयकांत, रामदास, वाइको जैसे दूसरी पार्टियों के नेता भी स्टालिन की डीएमके के साथ आने को ज़्यादा इच्छुक दिखाई दे रहे हैं। पिछले लोकसभा चुुनाव में विजयकांत और रामदास बीजेपी के साथ थे।
पुराने सहयोगियों के साथ छोड़ने और दक्षिण में नए सहयोगी न मिलने से बीजेपी की मुश्किलें बढ़ी हैं। बीजेपी को अगर केंद्र में अपनी सत्ता बनाए रखनी है तो उसे दक्षिण की पार्टियों को अपने साथ लाना ही होगा।
केरल में अकेले लड़ना होगा
केरल में फ़िलहाल बीजेपी अकेले ही है। यहाँ हमेशा वामपंथियों के लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रंट और कांग्रेस के यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट में ही सीधा मुक़ाबला होता रहा है। लेकिन, बीजेपी ने ‘हिंदुत्व’ को एजेंडा बनाकर केरल में अपनी राजनीतिक ज़मीन तैयार करने की कोशिश है। सबरीमला के अय्यप्पा स्वामी मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़े मुद्दों को बीजेपी ने भुनाने की कोशिश भी की है। उसकी कोशिश यह रही है कि सबरीमला के मुद्दे पर माकपा के ख़िलाफ़ बड़ा आंदोलन खड़ा कर अपना जनाधार बढ़ाए और चुनावों में इसे वोटोें में तब्दील कर ले।
इस बात में दो राय नहीं कि केरल में बीजेपी का जनाधार बढ़ रहा है। लेकिन, जानकारों का कहना है कि बीजेपी की पैठ इतनी गहरी नहीं हुई है कि वह केरल से अपने दम पर एक भी लोकसभा सीट निकाल ले। बीजेपी को सुपरस्टार मोहनलाल से भी उम्मीदें हैं। लेकिन मोहनलाल बीजेपी में शामिल होंगे या नहीं, यह अभी तय नहीं है।
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