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वाजपेयी सरकार की नागरिकता पहचान पत्र योजना को क्यों करना पड़ा था बंद?

नरेंद्र मोदी सरकार भले ही एनसीआर और एनपीआर को ज़रूरी मानती हो और इसे हर हाल में लागू करने पर अडिग हो, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने ऐसी ही एक योजना शुरू की थी, जिसे बाद में यह कह कर बंद कर दिया गया कि नागरिकता का मुद्दा बहुत ही उलझा हुआ है और कई मामलों में नामुमकिन है। 

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पायलट प्रोजेक्ट

नरेंद्र मोदी सरकार भले ही एनसीआर और एनपीआर को ज़रूरी मानती हो और इसे हर हाल में लागू करने पर अडिग हो, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने ऐसी ही एक योजना शुरू की थी, जिसे बाद में यह कह कर बंद कर दिया गया कि नागरिकता का मुद्दा बहुत ही उलझा हुआ है और कई मामलों में नामुमकिन है। 

वाजपेयी सरकार ने 2003 में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया था, जिसके तहत लोगों को मल्टीपरपज नेशनल आइडेंटिटी कार्ड (एमएनआईसी) यानी बहुद्देशीय राष्ट्रीय पहचान पत्र बना कर देना था। यह बिल्कुल नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस जैसा ही था और इसमें वे सभी जानकारियाँ इकट्ठी की जानी थीं, जो एनआरसी में करने की बात कही जा रही है।
सरकार ने 2009 में इस परियोजना को यह कह कर बंद कर दिया कि नागरिकता का मुद्दा बहुत ही उलझाने वाला है और कई क्षेत्रों, ख़ास कर गाँवों में डेटा इकट्ठा करना लगभग नामुमकिन है।

12 लाख पहचान पत्र बनाए गए

इस पायलट प्रोजेक्ट के तहत 12 राज्यों और एक केंद्र-शासित क्षेत्र के 13 ज़िलों में 30.95 लाखों को चुना गया था, जिन्हें कार्ड बना कर देना था। मई 2007 से 31 मार्च 2009 तक 12 लाख से ज़्यादा लोगों के कार्ड बनाए गए। 

पायलट प्रोजेक्ट बंद करते समय यह कहा गया कि ग्रामीण इलाक़ों में आँकड़े एकत्रित करना बेहद मुश्किल है, ख़ास कर, खेतिहर मज़दूर, भूमिहीन मज़दूर, विवाहित स्त्रियाँ और जिनका स्थायी ठिकाना नहीं था, उनके आँकड़े जुटाने का कोई उपाय नहीं था।

क्या कहना है मोदी सरकार का?

मोदी सरकार ने जुलाई 2014 में संसद में एक सवाल के जवाब में कहा, ‘सरकार ने नेशनल रजिस्टर ऑफ़ इंडियन सिटीजंस बनाने का फ़ैसला किया है, जिसके तहत हर नागरिक की पहचान की सत्यता नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के आधार पर की जाएगी और उसके बाद हर किसी को नेशनल कार्ड दिया जाएगा।’ 

सरकार ने इस पर उस पायलट प्रोजेक्ट का हवाला देते हुए कहा कि नागरिकता क़ानून 1955 और नागरिकता संशोधन क़ानून 2003 के परिप्रेक्ष्य में एनपीआर और एनसीआर के लिए दिशा निर्देश तय किए जा चुके हैं। 

सरकार का यू-टर्न

लेकिन सरकार ने इस पर यू-टर्न लेते हुए सोमवार को कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर एनआरसी बनाने की कोई योजना फिलहाल नहीं है। सरकार ने यह भी कहा कि असम में जो एनआरसी तैयार किया गया, वह अलग है। 

देश के सभी नागरिकों के लिए एनपीआर 2010 में ही बनाया गया, पर उस समय तक एनआरसी की कोई चर्चा तक नहीं थी। साल 2015-16 के दौरान असम और मेघालय को छोड़ कर पूरे देश में एनपीआर डेटा को अपडेट किया गया। इसके तहत अब तक 119 करोड़ लोगों का इलेक्ट्रॉनिक डाटाबेस तैयार किया जा चुका है। 

एमएनआईसी यानी मल्टीपरपज़ नेशनल आईडेंटिटीफिकेशन कार्ड के पायलट प्रोजेक्ट को बंद करते समय यह मान लिया गया कि कुछ मामलों में आंकड़े एकत्रित करना मुमकिन ही नहीं है।
यह भी माना गया कि नागरिकता का मसला भी उलझाने वाला है। फिर सरकार क्यों एनपीआर और एनआरसी पर इतना ज़ोर दे रही है? क्यों गृह मंत्री बड़े ही दंभ से कहते हैं कि जिस तरह का एनआरसी असम में लाया गया, वैसा पूरे देश में लाया जाएगा? क्यों दूसरे केंद्रीय मंत्री यह ज़ोर देकर कहते हैं कि एनपीआर हर कीमत पर तैयार किया जाएगा? 

यह महज संयोग नहीं है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार ध्रुवीकरण की नीति पर चलते हुए इन मामलों को परवान देना चाहती थी। इसके पीछे छद्म राष्ट्रीयता को और मजबूत करना तो है ही, एक समुदाय विशेष को निशाने पर लेने की मंशा भी है। पहले झारखंड में बीजेपी की हार और अब दिल्ली में संभावित हार के बाद शायद सरकार इस पर कुछ पुनर्विचार करे। 
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क़मर वहीद नक़वी

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