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नेताजी की मौत के रहस्य से पर्दा उठाने में नाकाम रही मोदी सरकार

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के पहले नेताजी जन्मदिन को 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाने का एलान कर बीजेपी ने उन्हें अपनाने और उनकी विरासत पर कब्जा करने की कोशिश की है। नेताजी के नाम पर राजनीति करने वाले और नेहरू को घेरने की कोशिश करने वाले नरेंद्र मोदी भी सुभाष चंद्र की गुमशुदगी का रहस्य सुलझाने में नाकाम रहे। 
प्रमोद मल्लिक
जवाहरलाल नेहरू बनाम सुभाष चंद्र बोस की बहस खड़ी करने वाली नरेंद्र मोदी सरकार ने नेताजी से जुड़ी क्लासीफ़ाइड फ़ाइलों को सार्वजनिक तो कर दिया, पर वह भी इस सवाल का संतोषजनक उत्तर नहीं पाई की क्या नेताजी की मौत 1945 के विमान हादसे में वाक़ई हो गई थी?  सरकार ने बाद में एक आरटीआई के जवाब में कहा कि उस हवाई दुर्घटना में सुभाष जी की मौत हो गई। पर यह बात तो पहले से ही कही जा रही थी, इसमें नया क्या था? और, इसे देश की ज़्यादातर जनता ने स्वीकार नहीं किया। आज़ाद भारत का सबसे बड़ा रहस्य बरक़रार है। 
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के आत्मसमर्पण के बाद 18 अगस्त 1945 को नेताजी एक जापानी बमबर्षक विमान से बैंकॉक से मंचूरिया के लिए रवाना हुए। उनके साथ जापानी जनरल शिदेई भी थे। लेकिन उड़ान भरने के कुछ मिनट बाद ही इंजन में ख़राबी आई, उसका एक ब्लेड टूट गया और विमान ज़मीन पर आ गिरा। उसमें आग लग गई। 
Narendra Modi government fails to solve Netaji Subhash Bose death mystery - Satya Hindi
इसी विमान से नेताजी ने मंचूरिया के लिए उड़ान भरी थी।
जापानी समाचार एजंसियों ने ख़बर छापी कि उस हादसे के बाद सुभाष चंद्र बोस जीवित थे, उनके पूरे शरीर में आग लग गई थी, किसी तरह आग बुझा कर उन्हें पास के अस्पताल में दाख़िल कराया गया। इलाज के दौरान वे होश में थे, बोल रहे थे, पर थोड़ी देर बाद हृदय गति रुकने से उनकी मौत हो गई। मौत की वजह अत्यंत झुलसना बताया गया। रिपोर्टों के मुताबिक़, उसी दिन नेताजी की अंत्येष्टि कर दी गई और उनकी अस्थियों को रोन्कोजी बौद्ध मंदिर में सहेज कर रखा गया, उनकी एक छोटी मूर्ति लगा दी गई। 
Narendra Modi government fails to solve Netaji Subhash Bose death mystery - Satya Hindi
रेन्कोजी बौद्ध मंदिर में नेताजी की मूर्ति

फ़िगेस रिपोर्ट

लॉर्ड माउंटबेटन ने ने 1946 में इंटेलीजेंस अफ़सर जॉन फ़िगेस को नेताजी की मौत का पता लगाने को कहा। फ़िगेस ने 25 जुलाई 1946 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी, जिसे सार्वजनिक नहीं किया गया। लेकिन बाद में फ़िगेस रिपोर्ट की एक फ़ोटोकॉपी ब्रिटिश लाइब्रेरी को किसी ने दी, समझा जाता है कि ख़ुद फ़िगेस ने ही वह रिपोर्ट दी थी। इतिहासकार लेनर्ड गॉर्डन ने 1980 में फ़िगेस का इंटरव्यू किया और बाद में काफ़ी कुछ लिखा। उनके अनुसार, फ़िगेस रिपोर्ट में यह कहा गया था कि 18 अगस्त को जिस विमान दुर्घटना की बात कही जाती है, उसमें नेताजी सवार थे। दुर्घटना के बाद अस्पताल में उन्हें भर्ती कराया गया और कुछ घंटों बाद उनकी मौत हो गई। उनका अंतिम संस्कार उसी दिन ताईहोकू में कर दिया गया और उनकी अस्थियाँ रेन्कोजी मंदिर को दे दी गईं। 

शहनवाज़ कमेटी

जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में नेताजी के क़रीबी रहे शहनवाज़ ख़ान की अगुआई में एक कमेटी का गठन किया और इस रहस्य को सुलझाने की ज़िम्मेदारी सौंपी। इस कमेटी में पश्चिम बंगाल सरकार के प्रतिनिधि एस. एन. मैत्र और नेताजी के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस भी शामिल थे। कमेटी ने भारत, जापान, वियतनाम और थाईलैंड में 67 लोगों से मुलाक़ात की। उनमें विमान हादसे मे बचे लोग, सुभााष चंद्र बोस का इलाज करने वाले डाक्टर योशिनी और नेताजी के साथ रहे हबीबुर रहमान भी थे। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में विमान हादसे में नेताजी के मारे जाने की पुष्टि की। 
सुभाष बाबू के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस ने शहनवाज़ ख़ान की शुरुआती रिपोर्ट पर दस्तख़त किए थे, पर अंतिम रिपोर्ट पर ऐसा करने से यह कह कर इनकार कर दिया कि उन्हें कुछ अहम दस्तावेज़ नहीं दिखाए गए थे।

खोसला आयोग

इंदिरा गाँधी सरकार ने 1970 में पंजाब हाईकोर्ट के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी. डी. खोसला की अगुआई में एक आयोग का गठन किया, जिसने 1974 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग ने फ़िगेस रिपोर्ट और शहनवाज़ कमेटी रिपोर्ट की पुष्टि की। इसमें यह भी कहा गया कि कुछ लोग राजनीतिक कारणों से और ध्यान बँटाने के लिए नेताजी की मृत्यु से इनकार करते हैं और उनकी बातों पर भरोसा करने का कोई आधार नहीं है। 

क्या नेताजी रूस में थे?

नेताजी 1968 तक रूस में थे जब उन्होंने क्रांतिकारी वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय के बेटे निखिल चट्टोपाध्याय से साईबेरियाई शहर ओम्स्क में मुलाक़ात की थी। 1966 से 1991 तक मॉस्को में काम कर चुके पत्रकार नीरेंद्रनाथ सिकदर ने 1968 में दायर एक हलफ़नामे में यह दावा किया था। हलफ़नामे में यह भी कहा गया था कि नेताजी किसी तरह रूस पहुँच गए थे और वहीं छिप कर रह रहे थे क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि नेहरू की मिलीभगत से उन्हें युद्ध अपराधी घोषित कर दिया जाएगा। हलफ़नामे में कहा गया था:
'सुभााष बोस के मंचूरिया से सोवियत संघ पहुँचने के बाद बेरिया, मोलोटोव और वोरोशिलोव की सलाह पर सोवियत संघ के नेता जोजफ़ स्टालिन ने लंदन में तैनात भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन से बात की और इस पर राय माँगी। कृष्ण मेनन ने ज़ोर देकर कहा कि नेताजी को वहीं रहने दिया जाए और इस बात की भनक किसी को न लगे।'

नेताजी 1985 तक भारत में थे?

एक थ्योरी यह भी है कि नेताजी भारत लौट आए थे और उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद में एक साधु का जीवन बिता रहे थे, जिन्हें गुमनामी बाबा या भगवान जी कहा जाता था। गुमनामी बाबा की मौत 1985 में होने के बाद सुभाष बाबू की भतीजी ललिता बोस ने हाई कोर्ट से आदेश लेकर बाबा के छोड़े गए सामानों का मुआयना किया। उन चीजों में जर्मनी का बना एक दूरबीन, एक रोलेक्स घड़ी, एक कोरोना टाइपराइटर, एक पाइप, एक डिब्बे में पाँच दाँत और ढेर सारे अंग्रेज़ी क्लासिकल उपन्यास मिले। लेकिन सबसे चौंकाने वाली चीजें थी कुछ चिट्ठियाँ और नेताजी के परिवार का एक बड़ा फ़ोटोग्राफ़ और दूसरी कई तस्वीरें।  
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मुखर्जी आयोग

केंद्र सरकार ने 1999 में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मनोज कुमार मुखर्जी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया, जिसने 2005 में अपनी रिपोर्ट दी। इस आयोग ने जापान, वितयनाम और थाईलैंड का दौरा तो किया ही, गुमनामी बाबा से जुड़े दावों की भी जाँच की। आयोग की रिपोर्ट के पेज 114-122 तक गुमनामी बाबा पर चर्चा की गई है। अंत में यह कहा गया है कि गुमनामी बाबा के नेताजी होने के पुख़्ता सबूत नहीं थे, लिहाज़ा वे नेताजी नहीं थे। इसी तरह नेताजी के परिवार वालों ने भी गुमनामी बाबा के सुभाष बाबू होने से इनकार कर दिया था। 

क्या कहा था नेताजी के भतीजे ने?

नेताजी के भतीजे शिशिर बोस ने भी गुमनामी बाबा के सुभाष बाबू होने से इनकार कर दिया था। वे मुखर्जी आयोग के साथ जापान गए थे और रेन्कोजी मंदिर जाकर वहां के लोगों से मुलाक़ात भी की थी। उन्होंने रेन्कोजी मंदिर के लोगों को अस्थियाँ रखने के लिए धन्यवाद तो कहा था, पर उन अस्थियों को यह कह कर लेने से इनकार कर दिया था कि ये उनके चाचा की अस्थियाँ नहीं हैं। इसी तरह वे रूस में नेताजी को होने के दावे को भी स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। पर यह ज़रूर माँग की थी कि सरकार इस रहस्य से पर्दा उठाने के लिए और गहराई तक जाए। 
मुखर्जी आयोग ने विमान हादसे की बात तो मानी, पर अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा कि हादसे में नेताजी की मौत नहीं हुई थी और जो अस्थियाँ दिखाई जा रही हैं, वह दरअसल जापानी सैनिक इचीरो ओकुरा की हैं, जो उसी दुर्घटना में मारे गए थे।
मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को उनके परिवार वालों समेत ज़्यादातर लोगों ने यह कह खारिज कर दिया था कि आयोग ने साफ़ साफ़ नहीं कहा है कि आखिर हुआ क्या था। लोगों ने एक और आयोग गठित करने की माँग कर दी। विवाद यहाँ भी नहीं थमा। नेताजी से जुड़ी फ़ाइलों को सार्वजनिक किए जाने के बाद एक आरटीआई याचिका के जवाब में केंद्र सरकार ने कहा, '18 अगस्त 1945 को हुए विमान हादसे में नेताजी की मौत हो गई।' 
इस विषय पर क्या कहना है वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का, देखें यह वीडियो। 
लेकिन इस जवाब से विवाद थमने के बजाय और बढ़ गया। नेताजी के पोते और बीजेपी के नेता चंद्र बोस ने इसे सिरे से खारिज करते हुए मोदी सरकार से एक नए आयोग के गठन की माँग कर दी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इस पर आपत्ति जताते हुए इसे बेहद ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत क़रार दिया। 
नरेंद्र मोदी ने बहुत ही चालाकी से नेहरू बनाम सुभाष की एक बहस खड़ी करने की कोशिश की, उनका सारा ज़ोर नेहरू को 'विलन' साबित करने पर था। उन्होंने यह साबित करना चाहा कि नेहरू की वजह से नेताजी को गुमनामी की ज़िंदगी जीनी पड़ी। पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने के पहले 2016 में भारत सरकार नेताजी से जुड़ी कई फ़ाइलें सार्वजनिक कर दीं। इससे उनकी जिंदगी के कई अनछुए पहलुओं पर रोशनी पड़ी, पर इसका जवाब नहीं मिला कि 18 अगस्त 1945 के विमान हादसे में क्या हुआ था और उसके बाद सुभाष बाबू कहाँ गए, कैसे रहे, उनकी मौत अब तक हुई है या नहीं और हुई तो कब कैसे हुई। इन सवालों का जवाब ढूंढना वाक़ई मुश्किल है।  
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