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'राजद्रोह क़ानून से प्रेस की स्वतंत्रता बाधित', सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिका

सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिका दायर कर राजद्रोह क़ानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। यह पाँचवीं ऐसी याचिका है जिसमें राजद्रोह क़ानून पर सवाल उठाए गए हैं। ताज़ा याचिका दो महिला पत्रकारों-पेट्रीसिया मुखिम और अनुराधा भसीन ने दायर की है। इसमें उन्होंने कहा है कि पत्रकारों को डराने, चुप कराने और दंडित करने के लिए राजद्रोह क़ानून का अनर्गल इस्तेमाल जारी है। इस याचिका के दायर किए जाने से पहले एक अन्य याचिका पर पिछले हफ़्ते ही सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था कि देश के आज़ाद होने के 75 साल बाद भी क्या राजद्रोह के क़ानून की ज़रूरत है?

ताज़ा याचिका में पेट्रीसिया मुखिम और अनुराधा भसीन ने कहा है कि पिछले छह दशकों के अनुभव से एक अनूठा निष्कर्ष निकलता है कि जब तक इस प्रावधान को आईपीसी से हटा नहीं दिया जाता है, तब तक यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार की पूर्ण प्राप्ति को बाधित करना जारी रखेगा।

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याचिका में एनसीआरबी के डाटा का ज़िक्र करते हुए कहा गया है कि 2016 से 2019 तक देशद्रोह के मामलों में 160% की भारी वृद्धि हुई है, लेकिन सजा दर बेहद कम है जो 2019 में 3.3% तक गिर गया है। याचिका में कहा गया है कि 1970 से 2021 तक नागरिकों के मौलिक अधिकारों के विकास को देखते हुए संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के उल्लंघन करने वाले इस राजद्रोह क़ानून के प्रावधान को समाप्त किया जाना चाहिए।

इसमें सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फ़ैसलों का हवाला दिया गया है। 'लाइव लॉ' की रिपोर्ट के अनुसार, आरसी कूपर बनाम भारत संघ (1970) 1 एससीसी 248 का ज़िक्र भी है जिसमें 11-न्यायाधीशों की बेंच ने माना था कि संवैधानिकता की वास्तविक परीक्षा क़ानून के उद्देश्य को लेकर नहीं बल्कि व्यक्ति के जीवन पर 'वास्तविक प्रभाव' पड़ने पर होती है। सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में इस प्रावधान को बरकरार रखा था।

बता दें कि इससे पहले सेना के एक पूर्व अफ़सर रिटायर्ड मेजर जनरल एसजी वोमबांटकरे की ओर से दायर याचिका पर 15 जुलाई से सुनवाई शुरू की गई है। याचिका में कहा गया था कि इस क़ानून की वजह से बोलने की आज़ादी पर असर पड़ रहा है जो कि हमारा बुनियादी अधिकार है। 

इस पहले की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वह इस क़ानून की वैधता को जांचेगा और इस मामले में केंद्र सरकार का जवाब भी मांगेगा। अदालत ने कहा कि यह क़ानून औपनिवेशिक है और ब्रिटिश काल में बना था।

मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने कहा था कि इस क़ानून को लेकर विवाद यह है कि यह औपनिवेशिक है और इसी तरह के क़ानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने महात्मा गांधी को चुप कराने के लिए किया था। 

अदालत ने बेहद अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि यह क़ानून संस्थानों के काम करने के रास्ते में गंभीर ख़तरा है और इसमें ऐसी असीम ताक़त है जिनका ग़लत इस्तेमाल किया जा सकता है। अदालत ने कहा था कि राजद्रोह के क़ानून का इस्तेमाल उस तरह है कि अगर आप बढ़ई के हाथ में लकड़ी के टुकड़े को काटने के लिए आरी दे देंगे और वह इससे पूरे जंगल को काट देगा। 

patricia mukhim and anuradha bhasin move sc against sedition law - Satya Hindi

मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि हमारी चिंता इस क़ानून के ग़लत इस्तेमाल और सत्ता की किसी तरह की ज़िम्मेदारी न होने को लेकर है। शीर्ष अदालत ने कहा कि राजद्रोह के इस क़ानून को कई याचिकाओं के जरिये चुनौती दी जा चुकी है और इन सब याचिकाओं को एक साथ ही सुना जाएगा। 

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सुप्रीम कोर्ट ने कुछ महीने पहले कहा था कि अब समय आ गया है कि राजद्रोह की सीमा तय की जाए। आंध्र प्रदेश के दो टीवी चैनलों पर राजद्रोह का मामला लगाए जाने के बाद इससे जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने आदेश जारी कर कहा था कि इन चैनलों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। 

1995 में देश विरोधी और अलगाववादी नारों के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि केवल नारे लगाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता क्योंकि उससे सरकार को कोई ख़तरा पैदा नहीं होता। इस मामले में दो लोगों पर आरोप था कि उन्होंने 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद खालिस्तान ज़िंदाबाद और हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाए थे।

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क़मर वहीद नक़वी

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