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कम हो रहे रोज़गार के मौक़े, मनरेगा में काम करने को मजबूर किशोर!

क्या भारत के ग्रामीण इलाक़ों में संकट बढ़ रहा है और रोजगार के मौक़े लगातार कम होते जा रहे हैं। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में मजदूरी करने वाले युवाओं की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इनमें 18 से 30 साल तक के युवा शामिल हैं। मनरेगा में रोज़गार के लिए आने वाले युवाओं की संख्या गिरती जा रही थी लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के बाद बड़ी संख्या में युवा इसमें आ रहे हैं। इससे सवाल यह खड़ा होता है कि क्या रोज़गार के अवसर इतने कम हो गए हैं कि युवा मनरेगा में काम करने के लिए जा रहे हैं क्योंकि सरकार की इस योजना में एक तो महीने में पूरे दिन काम नहीं मिलता, दूसरा मजदूरी भी काफी कम होती है। 

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इससे पहले जब नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस के आंकड़े आये थे तो सरकार को भारी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी क्योंकि आंकड़ों में कहा गया था कि बेरोज़गारी पिछले 45 साल में सबसे ज़्यादा हो गई है। लोकसभा चुनाव से पहले सरकार इन आंकड़ों को मानने से इनकार कर रही थी लेकिन बाद में उसे इन्हें स्वीकार करना पड़ा था। 

एनएसएसओ के आँकड़ों से यह भी पता चला था कि बेरोज़गारी की मार ग्रामीण महिलाओं पर सबसे ज़्यादा पड़ी थी। आंकड़ों के अनुसार, पिछले छह साल में क़रीब 2.8 करोड़ ग्रामीण महिलाओं ने नौकरी ढूँढना ही छोड़ दिया है।

मनरेगा के तहत काम करने वाले लोगों की उम्र से जुड़े आंकड़ों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि वित्त वर्ष 2017-2018 के बाद 18 से 30 साल वाले लोगों के वर्कफोर्स में बढ़ोतरी होने लगी। मनरेगा के तहत युवा वर्ग के मजदूरों (18-30 उम्र) की संख्या साल 2013-14 में 1 करोड़ थी, जो 2017-18 में घटकर 58.69 लाख पहुंच गई थी। लेकिन उसके बाद यह संख्या बढ़ने लगी और 2018-19 में यह संख्या 70.71 लाख तक पहुंच गई। इसके बाद के सालों में भी यह आंकड़ा बढ़ता रहा और 21 अक्टूबर 2019 तक मनरेगा के तहत काम करने वाले ऐसे युवाओं की संख्या 57.57 लाख के आंकड़े तक पहुंच गई है।

2013-14 में मनरेगा के तहत काम कर रहे कुल मजदूरों में युवा मजदूरों का आंकड़ा 13.64% था जो 2017-18 में घटकर 7.73% हो गया लेकिन 2018-19 में यह आंकड़ा बढ़कर 9.1% जबकि 2019-20 में यह 10.06% हो गया।

मनरेगा से संबंधित मुद्दों पर काम कर रहे एनजीओ मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक सदस्य निखिल डे ने कहा, ‘यह अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर है और युवाओं के लिए ठीक समय नहीं है। उन्हें अपनी पढ़ाई भी जारी रखनी है और रोजी-रोटी भी कमानी है। जब उन्हें नौकरी नहीं मिलती तो वे मनरेगा की तरफ आते हैं। मनरेगा उनके लिए एक तरह से कामचलाऊ इंतजाम की तरह है।’

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बता दें कि सरकार ने 8 नवंबर 2016 को 500 और 1000 रुपये से जुड़े नोटों को बंद कर दिया था और इसके बाद ऐसी ख़बरें आई थीं कि इससे अर्थव्यवस्था को काफ़ी नुक़सान पहुंचा है। कई उद्योग-धंधों के चौपट होने की ख़बरें भी आई थीं। इसका सीधा असर रोज़गार पर पड़ा था। इसी तरह जीएसटी से व्यापारियों को बहुत परेशानी होने और उनका कामकाज बंद होने की भी ख़बरें आई थीं। जीएसटी को 1 जुलाई, 2017 को लागू किया गया था। 2016-17 में जहाँ जीडीपी ग्रोथ की रफ़्तार 8.2 प्रतिशत थी, वहीं, आने वाले सालों में यह धीमी होती गई। 2018-19 में इकॉनमी की रफ्तार 6.8 प्रतिशत तक पहुंच गई। 

उपभोक्ता वस्तुओं पर शोध करने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसी नीलसन ने हाल ही में दी गई अपनी ताज़ा रिपोर्ट में कहा था कि सितंबर में ख़त्म हुई तिमाही के दौरान गाँवों में सामानों की ख़रीद 7 साल में सबसे कम हुई है। रिपोर्ट में कहा गया था कि गाँवों में फसल की क़ीमत गिरने के कारण किसानों की आय में कमी आयी है और इस वजह से माँग कम हो गई है और किसान ही नहीं, भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी कम सामान ख़रीद रहे हैं। 
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क़मर वहीद नक़वी

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