बजट 2020 को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार को बजट में क्या ख़ास करना चाहिए? इसका जवाब आसान है, देश में किसी से भी पूछ लीजिए, वह बता देगा। जवाब होगा कि विकास को वापस पटरी पर लाना है। ग्रोथ को तेज करना है। रोज़गार बढ़ाने हैं। गाँवों पर और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ज्यादा खर्च करना है। महंगाई और सरकारी घाटे की चिंता कुछ समय के लिए ताक पर भी रखी जा सकती है, लेकिन किसी भी क़ीमत पर इस बात को बढ़ावा देना है कि लोग बाज़ार में निकलकर ख़र्च कर सकें।
यह अर्थशास्त्र या बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था का पुराना सिद्धांत है। लोग ज्यादा ख़र्च करेंगे तभी इकोनॉमी में नई जान आएगी। लेकिन इस वक्त बड़ा सवाल यह है कि लोग ख़र्च करेंगे कैसे? ख़र्च के लिए ज़रूरी है कि जेब में पैसा हो और उसे ख़र्च करने की इच्छा भी हो। हालांकि भारतीय परंपरा में अपरिग्रह (कोई भी वस्तु संचित ना करना) को बड़ी चीज माना गया है और ऐसे दर्जनों दृष्टांत मिलते हैं कि क्यों इन्सान को बहुत ज्यादा बचाने के चक्कर में अपना वर्तमान ख़राब नहीं करना चाहिए। मशहूर कथन है - दाता इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए। यानी आज के खाने का इंतजाम हो जाए और अगर कोई मांगने आ जाए तो उसे भी खिला सकूं।
लेकिन ऐसा विचार मन में तभी आता है जब इंसान को यह फिक्र नहीं होती कि अगले दिन रोटी का इंतजाम होगा या नहीं। जो लोग अगले बीस बरस तक घर की ईएमआई भरने का वादा कर चुके हैं, कार का नया मॉडल देख रहे हैं और घर का फ़र्नीचर और अपने कपड़े साल में दो बार तो बदलने की सोचते ही हैं, उनसे यह उम्मीद करना व्यर्थ ही है।
ऐसे लोग कम से कम साल भर का ख़र्च तो बैंक अकाउंट में रखना ही चाहते हैं। मियां-बीवी दोनों कमाते हैं तो ख़र्च का ब्लू प्रिंट भी उसी हिसाब से तैयार है। फ्लैट, गाड़ी और बाकी सारा सामान लगातार अपग्रेड भी होना है। जाहिर है उन्हें पक्का यकीन चाहिए कि अगर आज वे ख़र्च करेंगे तो कल सड़क पर नहीं आ जाएंगे। और इस वक्त की सबसे बड़ी समस्या शायद यह यकीन न होना ही है।
बुरा वक्त गुजरने का इंतजार
जिस रफ्तार से नौकरियां जा रही हैं उन्हें देखकर मिडिल क्लास डरा हुआ है। सरकार कितने भी आंकड़े दिखा दे, अपने आसपास ऐसे लोग दिखते ही रहते हैं जिन्हें दो साल से इन्क्रीमेंट नहीं मिला। किसी की तनख्वाह कम हो गई है तो किसी की नौकरी चली गई। ऐसे में जिसके पास जो है वह उसे बचाकर बैठा है। वह नई चीजें खरीदने के फ़ैसले टाल रहा है और रामधुन गा रहा है कि किसी तरह बुरा वक्त गुजर जाए।
करदाताओं को मिले राहत
हालात का अंदाजा सबको है, चाहे वे कहें या न कहें। इसीलिए सारे विद्वान सरकार को यही सुझाने में लगे हैं कि अब अगर-मगर का वक्त नहीं रहा, सीधे लोगों की जेब में पैसा डालना पड़ेगा। अर्थशास्त्र के जानकारों से लेकर उद्योग संगठन तक एक ही स्वर में बोल रहे हैं। सबका कहना है कि अब इनकम टैक्स में कटौती करनी ज़रूरी है, खासकर सबसे नीचे के स्लैब वाले करदाताओं को राहत दी जानी चाहिए। ये वे लोग हैं जो थोड़ा पैसा बचने पर शायद अपनी कुछ ज़रूरतें पूरी करने की हिम्मत जुटा सकते हैं।
दूसरी सलाह है - ऐसा ख़र्च करने की जिससे गांवों में लोगों के हाथ में पैसा पहुंचे। यह भी वह बिरादरी है जो बहुत बचत न होते हुए भी ख़र्च के लिये जल्दी बाज़ार में निकल पड़ती है। और पिछले करीब दस-पंद्रह साल से गांवों के लोगों की शाहख़र्ची ने शहरों में बहुत से लोगों की रोजी-रोटी का इंतजाम किया है। इसीलिए इनपर भरोसा करने वाले ग़लत नहीं सोच रहे हैं।
मगर बड़ी समस्या यह है कि सरकार इन सबको राहत देने का इंतजाम करेगी कहां से। कमाई के खाते में तो उसे बड़े-बड़े लाल निशान ही नज़र आ रहे हैं।
तो फिर एक और शॉर्ट कट है। आप ये ख़बरें देख ही रहे होंगे कि सरकार कभी रिजर्व बैंक से और पैसा मांग रही है तो कभी सरकारी कंपनियों से मोटे-मोटे डिविडेंड (लाभांश) की मांग कर रही है। सरकारी कंपनियों में हिस्सा बेचने पर भी जोर लगाया जा रहा है। लेकिन वह सब भी फिलहाल दूर की कौड़ी है।
इसलिए, सरकार भारी दबाव में है कि पैसे का इंतजाम कहां से करे। दूसरी तरफ यह भी साफ है कि इस वक्त अगर स्टिम्युलस (प्रोत्साहन) या राहत पैकेज जैसा कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया तो इकोनॉमी पर मंडरा रहे मंदी के बादल और गहरा सकते हैं। विकट समय है, लेकिन इतिहास में देखें तो ऐसे विकट समय में ही 1991 का आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू हुआ था।
सवाल यह है कि अब क्या निर्मला सीतारमण हिम्मत दिखा पाएंगी? क्या नरेंद्र मोदी सरकार बाकी चीजों को ताक पर रखकर इकोनॉमी को सुधारने के लिए कुछ ऐसे एलान करेगी जिससे अभी भले ही मुश्किलें बढ़ती दिखें लेकिन लंबे वक्त में इन एलानों का फायदा तय हो।
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