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बजट : इस जेब का माल उस जेब में, न किसी को फ़ायदा, न अर्थव्यवस्था में सुधार

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के इस बजट से लोगों ने बहुत उम्मीदें पाल रखी थीं, पर उन्होंने इस जेब का पैसा उस जेब में डालने की महारत दिखाने के सिवा कुछ नहीं किया। क्या इससे अर्थव्यवस्था में कोई सुधार होगा, बता रहे हैं वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार आलोक जोशी। 

आलोक जोशी
सुस्त आर्थिक रफ़्तार और लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के मद्देनज़र वित्त मंत्री से साहसिक कदम और कठोर फ़ैसलों की उम्मीद की जाती थी। पर निर्मला सीतारमण ने जो बजट पेश किया है, उससे किसी का भला नहीं होगा। उन्होंने तमाम उपाय करने की कोशिश की, पर उनके ये उपाय किसी समस्या का समाधान कर पाएंगे, इस पर गंभीर संदेह है।

‘गुड़ खाए, गुलगुले से परहेज़'

निर्मला सीतारमण के बजट को देख कर एक कहावत याद आ रही है, ‘गुड़ खाए गुलगुले से परहेज़।’ बड़ा उद्योगपति हो, छोटा व्यापारी हो, मिडिल क्लास हो, या फिर गाँव या शहर के ग़रीब। इनमें से किसी के बारे में भी आज यह नहीं कहा जा सकता कि निर्मला सीतारमण के इस बजट ने उसे खुश कर दिया होगा, या फिर उसका कल्याण होना तय है। 

जानकारों ने तरह तरह के उपाय गिना रखे थे। इनकम टैक्स में कमी से लेकर सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने तक के जितने नुस्खे थे, ज्यादातर पर हाथ लगाया गया है।
यह काम कुछ इस अंदाज में कि अब सब गणित जोड़ने में लगे हैं कि कुछ मिला, कुछ जेब से गया या इस जेब का माल उस जेब में ही पहुँचा दिया गया।

निराश शेयर बाज़ार

कई महीनों से जो शेयर बाज़ार बजट के इंतजार में उछाल मार रहा था, आज बजट आने के बाद धड़ाम से गिरा। वह भी तब जब डिविडेंड डिस्ट्रिब्यूशन टैक्स हटाने की उनकी माँग मान ली गई है। इसकी एक वजह तो ये है कि लॉंग टर्म कैपिटल टैक्स हटाने या उसकी मियाद बदलने की माँग पूरी नहीं हुई।
एक तरफ तो इस बात का भरोसा नहीं जाग रहा है कि बजट से अर्थव्यवस्था की सुस्ती तोड़ने में कामयाबी मिलेगी। दूसरी वजह यह है कि जिन लोगों की जेब में पैसा डालने की माँग हो रही थी, उन्हें सीधे-सीधे कुछ मिला नहीं है।

इनकम टैक्स कनफ्यूजन

सबसे बड़ा झटका लगा है इनकम टैक्स के मोर्चे पर। लोगों को उम्मीद थी कि टैक्स की स्लैब बढ़ाई जाएगी, टैक्स का रेट कम होगा और साथ ही होम लोन और इन्वेस्टमेंट पर छूट की सीमा भी बढ़ेगी। लेकिन डबल बोनांजा की उम्मीद लगाए बैठे ये लोग अब भारी कनफ्यूजन में हैं। वे हिसाब लगाने में लगे हैं कि टैक्स के जो दो विकल्प दिए गए हैं उनमें से कौन सा चुनना बेहतर होगा। आम लोगों को तो छोड़ दीजिए, सीए और टैक्स सलाहकार भी अभी तक इसी फेर में चकरघिन्नी बने हुए हैं।
दरअसल वित्तमंत्री ने कहा है कि टैक्स व्यवस्था में 100 से ज्यादा तरह की छूट मिल रही थीं, जिनमें से 73 उन्होंने खत्म कर दी हैं। अब सब यह ढूँढ़ रहे हैं कि वे कौन सी छूट हैं जो बची रहेंगी।
आपको एक बार तय कर यह बताना होगा कि आप सारी छूट छोड़कर नई टैक्स व्यवस्था में जाना चाहते हैं जिसमें रेट थोड़ा कम होगा या फिर पुराने रेट से ही टैक्स भरते हुए छूट का लाभ लेना चाहते हैं।
इस दुविधा का अर्थ साफ़ है कि इस फ़ैसले से खुश होने की गुंजाइश नहीं है। ऊपर से जो लोग शेयर बाज़ार में पैसा लगाते हैं उनके लिए एक नई समस्या सामने है। कंपनियों को डिविडेंड बांटने पर टैक्स नहीं देना होगा, लेकिन निवेशक को जो डिविडेंड मिलेगा अब उस पर उन्हें अपने स्लैब वाले रेट से टैक्स भरना होगा। पूरा किस्सा समझने के लिए ही कई लोगों को अब सीए को फ़ीस देनी पड़ जाएगी। 

16 सूत्रीय कार्यक्रम

गाँवों के नाम पर 16 सूत्रीय कार्यक्रम है और 2 लाख 83 हज़ार करोड़ रुपए की रकम भी रखी गई है। लेकिन यहाँ भी समस्या यही है कि किसे क्या मिलेगा और वो कैसे इसे खर्च करेगा, यह साफ़ नहीं है। तो जिन्हें उम्मीद थी कि बजट के बाद गाँव और शहर के लोग एक साथ निकलेंगे और खर्च शुरू करेंगे, उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। 

रोज़गार पर क्या हुआ?

नए रोज़गार कैसे मिलेंगे - इसका जवाब है कि काम जारी है और नेशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी बनेगी। युनिवर्सिटी में डिग्री के साथ ही एप्रेंटिसशिप का इंतजाम भी किया जाएगा, मगर उसके बाद क्या होगा यह जानने के लिए इंतजार कीजिए। 

चारों तरफ देखिए तो एक बात साफ़ दिख रही है कि वित्तमंत्री ने वो हिम्मत नहीं दिखाई जिसकी इस वक्त ज़रूरत थी। जिस तरह के उपाय किए गए हैं उनसे सामान्य वक्त में तो काम चल जाता, लेकिन इस विकट समय में यह दवा काम आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन दिखता है। ऐसे में ये पंक्तियाँ किसी को याद आ सकती हैं : 

  • हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
  • आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया। 

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आलोक जोशी

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