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गाँवों का बुरा हाल, उम्मीद की जा रही है कि गाँव संभालेंगे अर्थव्यवस्था!

भारत के गाँवों से शहरों की ओर पलायन बहुत मजबूरी में हुआ। खेती-किसानी घाटे का कारोबार बन गया और लोगों ने छोटी-मोटी नौकरियों को भी खेती से बेहतर समझा।
किसानों के साथ सीमांत किसानों व कृषि श्रमिकों का भी बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। नोटबंदी, जीएसटी और कोरोना वायरस के एक के बाद एक हमले हुए। शहरी इलाकों में उद्योग बर्बाद हुए और लोग गाँवों में वापस जाने लगे।

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गाँव संभालेंगे अर्थव्यवस्था?

अब यह कहा जा रहा है कि गाँव मजबूत हैं और वह माँग बढ़ाने की हालत में हैं।
क्या गाँवों से बर्बाद होकर शहर आए और फिर शहरों से बर्बाद होकर गाँव लौट रहे लोग सचमुच देश की अर्थव्यवस्था संभालने की स्थिति में हैं?
अर्थव्यवस्था के जानकारों को इस पर संदेह है। हालांकि इसे समझने के लिए अर्थव्यवस्था के विशेष ज्ञान की ज़रूरत भी नहीं है। गाँवों की तबाही को कुछ बिंदुओं में समझा जा सकता है-

उल्टे विस्थापन से गाँवों पर बोझ

भारत के गाँवों में इस समय बड़ी आबादी छोटे जोत वाली है। 2015-16 में प्रति परिवार कृषि भूमि 1.1 हेक्टेयर रह गई। वहीं देश के लघु एवं सीमांत किसानों के पास फसली ज़मीन का महज 47.3 प्रतिशत हिस्सा है, वहीं 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले किसानों की संख्या 86.2 प्रतिशत है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि गाँवों में रहने वाले लघु और सीमांत किसानों के हर परिवार से एक या दो पुरुष या महिला सदस्य शहरों में जाकर काम करते हैं। परिवार के ऐसे सदस्य अब गाँव में वापस आने पर परिवार पर बोझ बन गए हैं, जबकि वे पहले परिवार की मदद करते थे। यानी अगर परिवार में पहले से 8 सदस्य हैं और शहर से बेरोज़गार होकर एक व्यक्ति अपनी बीवी और बच्चों को लेकर गाँव पहुंचा है तो उस ज़मीन पर 12 सदस्यों का बोझ हो चुका है।

शहरों से जाने वाला पैसा रुका

गाँव में बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है, जिनके पास अच्छी जमीन है और वे शहरों में ह्वाइट कॉलर जॉब यानी अच्छी नौकरी करते हैं। वे गाहे-बगाहे गाँव में रहने वाले अपने सगे संबंधियों की मदद करते हैं और उनके सगे संबंधी उनके हिस्से की खेती करवाते हैं। उससे मुनाफ़ा भी होता है। शहरों में ह्वाइट कॉलर जॉब करने वालों की बड़े पैमाने पर न सिर्फ छंटनी हुई है, बल्कि वेतन में कटौती हुई है। कई कंपनियों ने 50 प्रतिशत तक वेतन काट दिए हैं, 10 प्रतिशत की कटौती तो आम बात है।

गाँवों मे बैठे उनके भाई-बंधु शहर से जाने वाले धन की उम्मीद नहीं कर सकते, जिसका इस्तेमाल वह खाद, बीज खरीदने, बुआई कराने में कर लेते थे और फसल बिकने पर कुछ अतिरिक्त कमाई के साथ धन वापस कर देते थे।

गाँवों की नौकरी में पैसे कम

शहरों से विस्थापित होकर गाँवों में गए लोगों को रोज़गार देने का ढिंढोरा इस समय खूब पीटा जा रहा है। जितना मज़दूरों को वेतन दिया जा रहा है, उसी अनुपात में उसके विज्ञापन हो रहे हैं। सरकार ने कोविड पैकेज की घोषणा के वक्त मनरेगा की मजदूरी 182 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये रोजाना करने का ऐलान किया। अगर इस हिसाब से देखें तो शहर से बेरोज़गार होकर गाँव गया कोई व्यक्ति अगर मनरेगा में मजदूरी करता है तो उसे 6,060 रुपये महीने मिल सकेंगे। वह भी इतना पैसा तब मिलेगा, जब उसे हर महीने 30 दिन लगातार काम मिले। 
वहीं एक अनुमान के मुताबिक़, शहरों में काम करने वालों को औसतन 10,000 रुपये से 15,000 रुपये प्रति महीने वेतन मिलता है, जिसमें उन्हें साप्ताहिक छुट्टियाँ भी मिल जाती हैं। 

अगर सरकार शहरों से गाँव गए लोगों को मनरेगा के तहत साल के 365 दिन रोजगार मुहैया कराती भी है तो उसकी मासिक कमाई घटकर आधी या एक तिहाई रह गई है।

खेती से कितनी आस?

जुलाई में सामान्य से कम बारिश हुई, वहीं अगस्त में बादल ऐसे गरजे कि डराने लगे। अगस्त के पहले पखवाड़े में बारिश सामान्य से 10 प्रतिशत ज़्यादा हो गई है। इस बारिश से भले ही देश में औसत बारिश ठीकठाक नज़र आए, लेकिन कुछ इलाक़ों में बाढ़ की स्थिति है, वहीं लंबे अंतराल तक बारिश न होने के कारण मध्य प्रदेश के बड़े इलाक़े में सोयाबीन के खेत में कीड़ों का हमला हो गया, जो मानसून में भारी बारिश के बाद अचानक बारिश बंद हो जाने से पैदा होते हैं। इस मानसून सत्र की शुरुआत में यह अनुमान लगाया गया कि बारिश औसत से अच्छी होगी। भारत में बारिश पर कृषि की निर्भरता देखते हुए इसे एक अच्छा संकेत भी माना गया।

गाँवों की दुर्दशा

कोविड-19 के दौरान खासकर ख़राब होने वाले कृषि उत्पाद औने-पौने भाव बिके हैं। आलू को छोड़ दें तो इस सीजन में प्याज से लेकर टमाटर तक खुदरा में 5 रुपये किलो या इससे भी कम दाम पर बिके हैं। इन दरों पर माल बेचकर किसानों को मुनाफ़ा हुआ है, यह सोचना भी बेमानी है। इसके अलावा अगर कृषि की पैदावार बढ़ जाती है तो कम से कम किसानों की और दुर्दशा होने वाली है। इसकी वजह यह है कि केंद्र सरकार ने कोविड-19 के दौरान अपने गोदाम खाली कर दिए हैं और खाद्यान्न का मुफ्त वितरण हुआ है।
बाज़ार कहता है कि अगर आपूर्ति पर्याप्त है, कृषि की पैदावार भी ज़्यादा है तो कृषि उत्पादों का दाम कम रहने वाला है। अगर ऐसा होता है तो अधिक पैदावार के बावजूद किसानों की तबाही बढ़ने वाली है।
क्रेडिट सुइस ने हाल की एक रिपोर्ट में कहा है कि सरकार के समर्थन का ग्रामीण इलाक़ों को कुल लाभ महज 7,500 करोड़ रुपये महीने होगा, जो ग्रामीण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 0.9 प्रतिशत है। एजेंसी ने इसकी वजह यह बताई है कि सरकार ने 35,000 करोड़ रुपये महीने राजकोषीय समर्थन मुहैया कराने की घोषणा की है, लेकिन कम कृषि क़र्ज़, ख़राब होने वाले कृषि उत्पादों के बुरे हाल और शहर से गाँवों से जाने वाला धन रुकने से राजकोषीय समर्थन का 27,500 करोड़ रुपये लाभ इसी में समा जाएगा।

गाँवों पर फिर भी उम्मीद

हालांकि साबुन- तेल बेचने वाली एफएमसीजी कंपनियों से लेकर वाहन उद्योग गाँवों से बहुत उम्मीद कर रहे हैं। एचडीएफसी के शेयरधारकों की 43वीं सालाना आम बैठक को संबोधित करते हुए एचडीएफसी के प्रमुख दीपक पारेख ने गाँवों में दोपहिया और ट्रैक्टरों की माँग बढ़ने का हवाला देते हुए कहा कि स्थिति सुधर रही है। 
 लेकिन यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि शहरों में परिवारों पर आर्थिक संकट आने पर सबसे पहले अख़बार बंद किया जाता है, उसी तरह से गाँवों में लोग साबुन तेल लगाना छोड़ देते हैं और खेतों में हो रही सब्जी चावल रोटी और नमक से काम चला लेते हैं। गाँवों में जिस तरह से आमदनी घट रही है, यह भारत के उद्योग जगत के लिए एक बुरा सपना बन सकता है।

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प्रीति सिंह

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