क्या भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में वाकई प्रवेश कर चुकी है? वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इससे साफ़ इनकार किया है। लेकिन जब किसी अर्थव्यवस्था में उत्पादन, खपत, माँग लगातार कम हो रही हो, निवेश गिरता जा रहा हो, निर्यात ही नहीं, आयात तक कम हो रहा हो और बेरोज़गारी बेतहाशा बढ़ रही हो, उसे क्या कहेंगे! आर्थिक सुस्ती तो हो रही है, पर यह सुस्ती कब मंदी के रूप में सामने खड़ी हो जाए, यह कई बार पता नहीं चलता है।
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क्या होती है मंदी?
दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर पम्मी दुआ ने अपने एक शोध पत्र में कहा कि जब आर्थिक गतिविधियाँ इतनी कम हो जाएँ कि उसका असर दूसरी चीजों पर पड़ने लगे तो मान लेना चाहिए कि मंदी शुरू हो गई है। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं। जब आर्थिक गतिविधियाँ कम होती हैं तो लोगों के खर्च करने की क्षमता कम होती है, इससे माँग कम होती है, मांग कम होने से उत्पादन कम होता है, उत्पादन कम होने से दूसरे लोगों की आय कम होती है और यह चक्र चलने लगता है।यह माँग-उत्पादन का चक्र जब अधिक गहरा या लंबा हो जाता है तो पाया जाता है कि पुरी अर्थव्यवस्था की कुल उत्पादन वृद्धि शून्य से भी कम हो जाती है यानी पहले से कम उत्पादन होने लगता है। यही मंदी है।
कैसे होगी मंदी की पहचान?
मंदी शुरू हो ही गई, इसे जानने का कोई एक उपाय नहीं है, इसके कई लक्षण हैं, कई कारक हैं। उत्पादन, खपत, माँग, बिक्री, बेरोज़गारी, थोक और खुदरा सूचकांक, किसी भी एक चीज से मंदी पहचानी जा सकती है।कैसे होगी मंदी की पहचान?
मंदी शुरू हो ही गई, इसे जानने का कोई एक उपाय नहीं है, इसके कई लक्षण हैं, कई कारक हैं। उत्पादन, खपत, माँग, बिक्री, बेरोज़गारी, थोक और खुदरा सूचकांक, किसी भी एक चीज से मंदी पहचानी जा सकती है। मंदी शुरू होने की बात जानने का सबसे आसान और सही तरीका है सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का लगातार दो तिमाहियों में गिरना। इसे हम ऐसे कह सकते हैं कि यदि लगातार दो तिमाहियों तक जीडीपी गिरता रहे तो हम यह मान सकते हैं कि मंदी आ गई है। लेकिन यह भी सच है कि यदि इसके साथ ही मांग, खपत, उत्पादन नहीं गिरे तो हम उसे मंदी नहीं कह सकते। इसके अलावा सरकारी खर्च, क़र्ज़ और कर से जुड़ी सरकारी नीतियों का भी असर पड़ता है।कैसे ख़त्म होती है मंदी?
जब किसी अर्थव्यवस्था में कम माँग की वजह से कम उत्पादन और कम उत्पादन की कम से कम माँग का चक्र ख़त्म हो जाता है, यह मान लिया जाता है कि मंदी ख़़त्म हो गई।आर्थिक सुस्ती कैसे बनती है मंदी?
आर्थिक गतिविधियों के धीमे होने से धीरे-धीरे वृद्धि दर नकारात्मक हो जाती है यानी पहले से कम उत्पादन होने लगता है। इसे मंदी माना जाता है।भारत में कब-कब आई मंदी?
भारत में बीते कुछ सालों में चार बार मंदी देखी गई है, दो बार कम समय के लिए और दो बार लंबे समय के लिए। दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के इस शोध के मुताबिक़, मार्च 1991 से सितंबर 1991 तक मंदी देखी गई, जब वृद्धि दर शून्य से नीचे चली गयी। ऐसा ही मई 1996 से नवंबर 1996 के बीच हुआ था। मंदी की मार मार्च 1980 से 1991 के बीच देखी गई थी। इसी तरह 1990 से 1998 के बीच चार बार देश को मंदी झेलनी पड़ी थी।क्या मंदी आ चुकी है?
क्या भारत में मंदी आ चुकी है, यह सवाल लाज़िमी है। हम इसे जीडीपी के लिहाज से देखें तो भारत में जीडीपी वृद्धि दर लगातार गिरती आ रही है। वित्तीय वर्ष 2018-19 की दूसरी छमाही में जीडीपी वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत से गिर कर 7 प्रतिशत पर आ गई, उसके बाद की छमाही यानी वित्तीय वर्ष 2019-20 की पहली छमाही में यह 4.5 प्रतिशत पर आ गई।यदि तिमाही के हिसाब से देखा जाए तो वित्तीय वर्ष 2018-19 की पहली तिमाही से 2019-20 की दूसरी तिमाही तक यानी लगातार 3 तिमाहियों तक जीडीपी वृद्धि दर लगातार गिर रही है।
गिरता उत्पादन
अब जरा बात करते हैं उत्पादन की। सेंट्रल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस यानी सीएसओ के आंकड़े बताते हैं कि लगातार 6 तिमाहियों में उत्पादन गिरा है। वित्तीय वर्ष 2018-19 की पहली तिमाही में उत्पादन 12.1 प्रतिशत थी, जो अगली तिमाही में गिर कर 6.9 प्रतिशत पर आ गई। उसकी अगली तिमाही यानी वित्तीय वर्ष 2018-19 की तीसरी तिमाही में यह 6.4 प्रतिशत पर आ गई तो उसकी अगली तिमाही में वह 3.1 प्रतिशत पर पहुँच गई।चालू वित्तीय वर्ष यानी 2019-20 की पहली तिमाही में उत्पादन वृद्धि दर 0.6 प्रतिशत थी। उसके बाद यानी जुलाई-सितंबर की तिमाही में यह -1 प्रतिशत पर पहुँच गई। यानी लगातार 5 तिमाहियों में उत्पादन दर गिरती रही है। यह मंदी नहीं तो और क्या है?
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