बहुत बुरा था 2020! लेकिन क्या इतना कहना काफी है? कतई नहीं। मौत के मुँह से वापस निकलने का साल था 2020। यूं नहीं समझ आता तो उन लोगों की सोचिये जो 2020 में कोरोना के शिकार हो गए। या वे जो कोरोना का शिकार होने के बाद फिर ठीक हो गए। और बाकी दुनिया में भी ऐसा कौन था जिसे एक वक़्त यह न लगा हो कि अब मौत सामने खड़ी है? यही तो होता है मौत से सामना।
यूं तो कोरोना वायरस एक दिन पहले यानी 31 दिसंबर, 2019 को ही पहचान लिया गया था और इसीलिए उसका नाम भी कोविड 2019 है, लेकिन दुनिया ने इसका सामना 2020 में ही किया। इसीलिए कोरोना काल की असली शुरूआत 2020 के नाम ही रहेगी।
लॉकडाउन
दुनिया के दूसरे हिस्सों से खबरें तो जनवरी में ही आने लगी थीं। चीन से कुछ संक्रमित भारतीय भी आ चुके थे। बाज़ार- कारोबार ठंडे पड़ने लगे थे, लेकिन असली हड़कंप मचा मार्च के अंत में, जब तय हुआ कि अब भारत में भी लॉकडाउन के बिना गुजारा नहीं होगा।
23 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन की ख़बर आते ही शेयर बाज़ार ने तगड़ा गोता लगाया। हालांकि मुंबई सेंसेक्स को देखें तो 19 फरवरी से ही बाज़ार झटके खाता हुआ धीरे-धीरे लुढ़क रहा था। 20 मार्च तक ही यह 41,323 से गिरकर 29,915 पर पहुँच चुका था।
शेयर बाज़ार
साफ है कि घबराहट और अनिश्चितता चारों ओर दिख रही थी। लेकिन जनता कर्फ्यू और लॉकडाउन की ख़बर आते ही सोमवार को जब बाज़ार खुला तो पूरी तरह हड़कंप मचा हुआ था और एक ही दिन में करीब 4,000 प्वाइंट की गिरावट दर्ज हुई। घबराहट की वजह भी साफ थी। सब तरफ सब कुछ बंद। जब कारोबार ही नहीं होगा तो कमाई कैसे होगी और शेयर बाज़ार चलेगा कैसे?
लेकिन शायद यही आख़िरी दिन था जब तक यह पुरानी कहावत सही लग रही थी कि मुंबई शेयर बाज़ार का इंडेक्स भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत का बैरोमीटर होता है। क्योंकि उसके बाद से अर्थव्यवस्था और शेयर बाजा़र में छत्तीस का आँकड़ा ही दिख रहा है।
अर्थव्यवस्था
जीडीपी ने करीब 24% की डुबकी लगाई। 11 करोड़ लोग बेरोज़गार हो गए। कंपनियों की कमाई और खर्च में 27 प्रतिशत और मुनाफ़े में 49% तक की गिरावट नज़र आई।
रिजर्व बैंक ने ब्याज़ दर घटाते-घटाते 4% पर पहुँचा दी, फिर भी बैंकों से सिर्फ 5.7% ज्यादा क़र्ज़ उठा, जबकि इसके पिछले साल यह गिनती 7.9% थी। होटल, सिनेमा हॉल, पर्यटन, एयरलाइंस जैसे कारोबारों पर तो ताला ही लग गया और बाज़ारों में भी लंबे समय तक सन्नाटा ही छाया रहा।
बस कोई चीज़ चल रही थी तो वह था खाने- पीने के सामान का कारोबार। आपके पड़ोस की दुकान हो या ऑनलाइन डिलीवरी करने वाले ऐप। कुछ और कारोबार थे जो रातोंरात चल पड़े। ये थे सैनिटाइजर, मास्क और इम्युनिटी बढ़ाने वाली दवाओं को बनाने बेचने वाले।
‘वर्क फ्रॉम होम’
इनके अलावा इस आपदा में जिनके लिए अवसर पैदा हुआ वो ऐसे कारोबार थे जो किसी न किसी तरह से ‘वर्क फ्रॉम होम’ में मददगार थे या फिर विद्यार्थियों के लिए घर पर ही बैठ कर क्लास में शामिल होना संभव करते थे।
इसी चक्कर में लैपटॉप, टैब्लेट, वेबकैम, माइक, ब्लूटूथ हेडफोन और मोबाइल बनाने बेचने वालों के साथ साथ उन सब की भी चाँदी हो गई जो ब्रॉडबैंड इंटरनेट या हाई स्पीड डेटा का काम कर रहे हैं।
इनमें मोबाइल कंपनियों के साथ ही राउटर, मॉडम और केबल के कारोबारी भी शामिल हैं और आपके पड़ोसी केबल ऑपरेटर भी।
सिनेमा का कारोबार बंद होने का सबसे तगड़ा फायदा नेटफ्लिक्स, एमेजॉन प्राइम और हॉटस्टार जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्मों को और न्यूज चैनलों को भी हुआ है।
कोरोना का इलाज
अब जब चीजें धीरे धीरे पटरी पर लौट रही हैं तब भी इतना तो तय है कि लॉकडाउन के पहले जिस दुनिया में हम थे, वह दुनिया अब वैसी ही शक्ल- सूरत में सामने नहीं आने वाली है।
ख़ासकर यह देखते हुए कि कोरोना का इलाज या टीका आना अभी शुरू ही हुआ है और कोरोना की शक्ल बदलने की ख़बर उससे पहले ही आने लगी है।
सेंसेक्स 47,000 के ऊपर
ऐसे में यह देखकर हैरत तो होती है कि शेयर बाज़ार क्यों और कैसे तेजी से भागता जा रहा है। चारों ओर छाई बदहाली के बावजूद सेंसेक्स अब 47,000 के ऊपर पहुँच चुका है। इसकी एक बड़ी वजह तो विदेशी निवेशक हैं, जिन्होंने मार्च में एक बार भारतीय बाजार से करीब 1592 करोड़ डॉलर एक साथ निकाले थे।
मई तक बिकवाली के बाद जून से वो ख़रीदारी कर रहे हैं और सितंबर में मामूली बिकवाली के बावजूद 29 दिसंबर तक तीन हज़ार करोड़ डॉलर से ऊपर की रकम वापस बाजार में लगा चुके हैं।
म्यूचुअल फंड या शेयरों में पैसा लगाने वाले मध्य वर्ग के लोग इस तेजी को देखकर मगन हैं और बड़ी संख्या में लोग नए डीमैट अकाउंट खोल रहे हैं। दिसंबर की शुरुआत में ही ख़बर आई थी कि इस साल पिछले नौ महीनों में करीब 65 लाख नए डीमैट अकाउंट्स खुले हैं। ये वो लोग हैं जो शेयर बाज़ार की तेज़ी देखकर बहती गंगा में हाथ धोने निकल आए हैं। यह भी बाजार को चढ़ाने में अपनी सीमित भूमिका निभा रहे हैं।
दर्दनाक पहलू
लेकिन इस किस्से का एक दर्दनाक पहलू भी है, जो खुलते ही सबको अपने फ़ायदे में अपना नुक़सान साफ समझ में आ जाएगा। पिछली दो तिमाहियों के नतीजे देखने से पता चलता है कि कंपनियों की बिक्री या आमदनी भी तेज़ी से गिरी और ख़र्च भी, यानी कामकाज में भारी कमी है। लेकिन ज़्यादातर कंपनियों के मुनाफ़े या मुनाफ़े की दर में उछाल दिख रहा है। इसका रहस्य समझना ज़रूरी है क्योंकि उसी से आगे की दिशा दिखती है।
कंपनियों की बिक्री में जितनी गिरावट आई, उनके खर्च में गिरावट उससे ज़्यादा है इसीलिए मुनाफ़ा बढ़ता दिख रहा है। मुश्किल समय में खर्च कम करना या कॉस्ट कटिंग पुराना आजमाया हुआ फॉर्मूला है।
कॉस्ट कटिंग का एक रास्ता तो है कि कच्चा माल कम खरीदें, बिजली कम खर्च करें या जहाँ भी जितने कम से कम से गुजारा हो सके करें।
बड़ी कंपनियाँ महीनों का कच्चा माल जमा कर के रखती हैं, ऐसे में उन्होंने उसी स्टॉक से काम चलाया और नई ख़रीद काफी सोच समझ कर की। इसकी वजह यह भी थी कि लॉकडाउन में कच्चा माल लाना और भी महंगा हो रहा था। सो कुछ समय के लिए यह नुस्खा कारगर है। और इससे मैनेजमेंट में यह हौसला भी जाग रहा है कि शायद जितना माल वे स्टोर में भरकर रखते थे उससे कम में भी फैक्टरी अच्छे से चल सकती है।
लेकिन खर्च का एक दूसरा बड़ा हिस्सा है इंप्लाई कॉस्ट या कर्मचारियों पर होने वाला खर्च। और अब तक का रिकॉर्ड दिखाता है कि जब खर्च घटाने की बात आती है तो सबसे पहली मार यहीं पड़ती है। कुछ की नौकरी जाती है और कुछ के वेतन में कटौती हो जाती है।
सीएमआईई के आँकड़ों के अनुसार, 2019 में देश में कुल 8.7 करोड़ वेतनभोगी लोग थे और इस साल यह गिनती घटकर 6.8 करोड़ ही रह गई है। मतलब साफ है कि पिछले साल जो लोग नौकरी कर रहे थे उनमें से करीब 21% के पास इस साल नौकरी नहीं रह गई है।
कच्चे माल की ज़रूरत
कोई भी कारोबार चलाने वाला किसी भी कीमत पर अपने मुनाफ़े को कम नहीं करना चाहता। अब लॉकडाउन के बाद जैसे जैसे कच्चे माल की ज़रूरत बढ़ रही है वैसे ही उसके दाम भी बढ़ते दिख रहे हैं। सबसे तगड़ा उछाल दिख रहा है इस्पात के दाम में जहां लगभग 30% की तेजी आ चुकी है साल भर में।
इसका दबाव कंपनियों पर और पूरे कारोबार पर पड़ना तय है, क्योंकि उन्हें दाम बढ़ाने पड़ेंगे जिसका असर बिक्री पर पड़ सकता है। दूसरी तरफ शेयर होल्डरों को आदत पड़ चुकी है कि कंपनी लॉकडाउन में भी मुनाफ़ा बढ़ा सकती है तो उनकी इच्छायें बढ़ चुकी हैं।
मदद की गुहार
ऐसे में व्यापार और उद्योग संगठन फिर सरकार से मदद की गुहार लगाएंगे। सरकार पहले ही जो मदद दे चुकी है वो ऊँट के मुँह में जीरा साबित हुई है और जहां उद्योगों को उससे राहत की उम्मीद है वहीं सरकार के सामने चुनौती है कि टैक्स वसूली कैसे बढ़े और इस वक्त जो सबसे बड़ी चुनौती है उसके लिए पैसे का इंतज़ाम कहाँ से हो। यह चुनौती है कोरोना के टीके ख़रीदना और उन्हें हर आदमी तक पहुँचाना।
ऐसे में नए रोज़गार पैदा करना, ग़रीबों को मदद पहुंचाना और देश की तरक्की की रफ्तार को वापस 8% के ऊपर पहुंचाना न सिर्फ इस सरकार के लिए बल्कि पूरे देश के लिए बड़ी चुनौती है। और 2021 बहुत से लोगों को यह भी सिखाएगा कि शेयर बाज़ार में बचे रहने वालों को ख़तरों का खिलाड़ी यूं ही नहीं कहा जाता है।
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