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महाराष्ट्र: कर्ज माफ़ी के लालच में दल-बदल का 'खेल'?

क्या महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव जीतने के लिये राज्य की बीजेपी-शिवसेना गठबंधन वाली सरकार सरकारी खजाने से 5000 करोड़ रुपये लुटाने का ‘खेल’ खेलने जा रही है? क्या भुगतान की आड़ में जनता को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है? पूर्व गृहमंत्री व मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने आरोप लगाया है कि भारतीय जनता पार्टी चीनी मिलों पर चढ़े कर्जों व गन्ना किसानों के बकाया भुगतान का दबाव बनाकर उनके मालिकों को अपनी पार्टी में शामिल कर रही है! कुछ देर बाद ऐसा ही बयान राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के नेता व पूर्व उप मुख्यमंत्री अजित पवार की तरफ़ से भी आया। 

यह पहली बार होगा जब कांग्रेस और एनसीपी के बड़े नेता जो शरद पवार के क़रीबी हों, का बयान शुगर लॉबी को लेकर आया। प्रदेश के गन्ना और दुग्ध उत्पादकों तथा किसानों के मुद्दों पर संघर्ष करने वाले पूर्व सांसद तथा स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के अध्यक्ष राजू शेट्टी के अनुसार, महाराष्ट्र की जिन 180 के लगभग चीनी मिलों पर किसानों का पैसा बकाया है, उनमें से लोकसभा चुनाव के पहले तक 77 बीजेपी नेताओं, 53 एनसीपी नेताओं, 43 कांग्रेस नेताओं और शेष शिवसेना नेताओं के स्वामित्व वाली थीं। विधानसभा चुनाव की जोड़तोड़ के लिए चल रहे ‘खेल’ की वजह से राज्य की 100 चीनी मिलों पर बीजेपी का कब्जा हो गया है और शायद इसी के दम पर बीजेपी-शिवसेना दावा कर रही हैं कि 288 सदस्यों वाली विधानसभा में इस बार उनका गठबंधन 220 सीटें जीतेगा। 

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शेट्टी कहते हैं, “महाराष्ट्र की इन मिलों का बकाया 5,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का है, सत्तारूढ़ पार्टियाँ अक्सर सहकारी बैंकों से ऋण मंजूर करा लेती हैं या अपनी मिलों के लिए तोहफों की घोषणा कर देती हैं। यही कारण है कि महाराष्ट्र के चीनी उद्योगपति यानी मिल मालिक सत्ता में बने रहने के लिए हर चुनाव में पार्टी बदल लेते हैं। पूर्व उप मुख्मंत्री विजय सिंह मोहित पाटिल, जो पहले एनसीपी में थे, 2019  में बीजेपी में चले गये। उन्होंने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा किया था। सोलापुर जिले में उनकी कंपनी महर्षि शंकरराव मोहिते पाटिल को-ऑपरेटिव शुगर फैक्ट्री है, जिस पर 400 करोड़ रुपये का ऋण बकाया है।

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राजनीतिक दलों के बीच को-ऑपरेटिव संस्थाओं के पदों पर कब्जा करने के लिए हमेशा तीव्र प्रतिस्पर्धा रहती है। राजनेता को-ऑपरेटिव चीनी मिलों का इस्तेमाल सरकारी लोन का पैसा पाने के लिए करते हैं। वे इस पूँजी का इस्तेमाल चुनावों व अन्य नए धंधों को शुरू करने के लिए भी करते हैं।
उदाहरण के लिए, राधाकृष्ण विखे पाटिल को ही ले लें, जिन्होंने 2017 में अपने गन्ने के कारखाने के लिए मुंबई जिला केंद्रीय सहकारी बैंक से 35 करोड़ रुपये का सस्ता ऋण प्राप्त करने में कामयाबी हासिल की। संयोग से वह इस बैंक के निदेशकों में से एक हैं। इस सहकारी बैंक के चेयरपर्सन प्रवीण दरेकर बीजेपी के विधायक हैं, जिन्होंने अन्य निदेशकों के विरोध के बावजूद ऋण को मंजूरी दे दी। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले राधाकृष्ण विखे पाटिल अपने बेटे के टिकट का बहाना बनाकर भारतीय जनता पार्टी में चले गए। 
राजू शेट्टी कहते हैं कि महाराष्ट्र में राजनेताओं के हस्तक्षेप की वजह से चीनी मिलों में बड़े पैमाने पर कुप्रबंधन भी हुआ है। 2008 और 2014 के बीच राज्य में 39 को-ऑपरेटिव मिलें कौड़ियों के भाव बेचीं गईं। अधिकांश ख़रीदार एनसीपी, कांग्रेस और बीजेपी के नेता थे, जिनका अधिग्रहण करने वाली पार्टी के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध थे। इस बिक्री के ख़िलाफ़ अन्ना हजारे व राजू शेट्टी ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक याचिका भी दायर की है।
राज्य के सहकारिता मंत्री सुभाष देशमुख की चीनी फ़ैक्ट्री का 104 करोड़ रुपये बकाया है, जबकि ग्रामीण विकास मंत्री पंकजा मुंडे की फ़ैक्ट्री का 64 करोड़ रुपये बकाया है। यानी सुशील कुमार शिंदे के आरोपों में एक बड़ी सच्चाई छुपी है, लेकिन यह बयान आने में इतनी देर क्यों हुई?

कुछ दिन पहले शुगर लॉबी के एक कार्यक्रम में पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक ही मंच पर उपस्थित होकर चीनी मिलों की हालत पर चिंता जताई थी। गडकरी ने शुगर मिल मालिकों से कहा था कि वे चीनी उत्पादन से ज़्यादा एथनॉल उत्पादन पर ध्यान दें। और अब यह ख़बर है कि केंद्र सरकार चीनी मिलों द्वारा उत्पादित सारा एथनॉल ख़रीदने वाली है। 

हाल ही में केंद्र सरकार ने चीनी उद्योग लॉबी को ख़ुश करने या मजबूत करने के लिए बहुत बड़ी राहत दी है। आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीईए) ने 1 अगस्त 2019 से 31 जुलाई 2020 तक यानी एक वर्ष की अवधि के लिए 40 लाख टन चीनी के बफ़र स्टॉक के निर्माण को मंजूरी दे दी है। इस पर 1,674 करोड़ रुपये का ख़र्च आने की उम्मीद है। सरकार के इस क़दम से चीनी मिलों को गन्ना किसानों का 15,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा बकाया चुकाने में मदद मिलेगी।

किसानों को उनकी पैदावार की कीमत चुकाने के लिए एक 40 लाख टन चीनी का 1 अगस्त, 2019 से 31 जुलाई, 2020 तक के लिए बफ़र स्टॉक बनाने की योजना बनाई गई है। आपको बता दें, जून में, 50 लाख टन के बफ़र स्टॉक पर विचार चल रहा था और उसी के लिए खाद्य मंत्रालय द्वारा कैबिनेट नोट तैयार किया गया था, लेकिन धन की कमी के कारण इसे मंजूरी नहीं मिली थी। 

चीनी सीजन 2018-19 के लिए वर्तमान बफ़र स्टॉक 3 मिलियन टन है, जो 30 जून को समाप्त हो चुका है। 2018-19 चीनी सीजन ख़त्म होने के कगार पर है और गन्ना किसानों का लगभग 15,222 करोड़ रुपये का भुगतान बकाया है।
दूसरी तरफ़ चीनी मिलें सरकार से मदद के लिए गुहार लगा रही हैं। चीनी मिलों की सहायता करने के लिए केंद्र ने बैंकों के माध्यम से सॉफ्ट लोन योजना को मंजूरी दी थी, इसके साथ ही, भारत भर में चीनी मिलों से चीनी के न्यूनतम बिक्री मूल्य में वृद्धि करने की माँग की गई, जिस पर विचार करते हुए सरकार ने इसे 14 फरवरी 2019 को 29 रुपये से बढ़ाकर 31 रुपये प्रति किलोग्राम कर दिया था। 
महाराष्ट्र की राजनीति देखें तो चीनी मिल, शिक्षण संस्थाओं, चिकित्सालय और दुग्ध उत्पादक संघ के मालिकों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। प्रदेश की राजनीति में यह कहावत बन गयी है कि एक चीनी मिल यानी एक विधायक।

कम होता गया कांग्रेस का कब्ज़ा

किसी जमाने में प्रदेश की शुगर लॉबी पर कांग्रेस का कब्ज़ा था लेकिन बाद में वह कम होता गया। जब पहली बार महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी की सरकार आई तो तत्कालीन उप मुख्यमंत्री गोपीनाथ मुंडे ने इस लॉबी में सेंध लगाने का प्रयास किया। आज मुंडे परिवार सात चीनी मिल चलाता है। नितिन गडकरी ने भी शुगर लॉबी को साधने की कवायद की थी, आज वह भी तीन शुगर मिल के मालिक हैं। शरद पवार ने जब एनसीपी का गठन किया तो कांग्रेस के कब्जे वाली इस शुगर लॉबी में बड़ी सेंधमारी की थी। एक पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस नेता चार चीनी मिलों के मालिक हैं। लेकिन अब जब सत्ता बीजेपी के पास है तो इस लॉबी पर से कांग्रेस की पकड़ ढीली हो गयी है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि सरकार चीनी मिल खड़ी करने पर बिजली, पानी से लेकर रासायनिक उर्वरकों तक पर सब्सिडी देती है। 
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चीनी मिलों से लाखों किसान जुड़ जाते हैं जिससे उनके मालिकों के नेता बनने की राह आसान हो जाती है और यदि किसान विरोध करते हैं तो चीनी मालिक उन्हें पानी, बिजली के लिए परेशान करते हैं। प्रदेश में मराठवाड़ा व पश्चिम महाराष्ट्र की राजनीति में आज़ादी के बाद से ही चीनी मिल मालिकों का दबदबा रहा है। ये मिल मालिक वास्तव में चुनावी हवा के रुख को सबसे अच्छी तरह से पहचानते हैं। ऐसे में सवाल यही खड़ा होता है कि सरकारों ने उद्योग, कृषि से जुड़ी समस्याओं को भी क्या अपने राजनीतिक स्वार्थों के हिसाब से साध लिया है? फिर ऐसे में विकास की बातें कहना क्या बेईमानी नहीं है। 

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संजय राय

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