loader

महाराष्ट्र में क्या कांग्रेस संस्कृति बचाने का दाँव खेलेंगे पवार?

महाराष्ट्र की राजनीति में सोशलिस्ट पैटर्न को साध राजनीति की नयी धारा बहाने वाले शरद पवार और उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी क्या उलझन में है? लगातार दो लोकसभा चुनावों में ख़राब प्रदर्शन और उसके बाद पार्टी प्रमुख शरद पवार व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की बैठक के बाद पार्टी के विलय की उड़ती हुई ख़बरें संकेत उसी ओर कर रही हैं कि पार्टी में कोई बड़ा द्वंद्व चल रहा है।

1978 में महाराष्ट्र में पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाने वाले शरद पवार ने 1987 में कांग्रेस में यह कहते हुए वापसी की थी कि प्रदेश में कांग्रेस की संस्कृति को बचाने की ज़रूरत है। यह वह दौर था जब महाराष्ट्र में शिवसेना तेज़ी से आगे बढ़ रही थी और बीजेपी भी उठाव पर थी। आज ये दोनों पार्टियाँ, शिवसेना और बीजेपी भारी बहुमत के साथ प्रदेश की सत्ता में बैठी हैं और हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में उन्होंने वही प्रदर्शन दोहराया है जो 2014 की मोदी लहर में किया था। 

बीजेपी-शिवसेना मज़बूत स्थिति में हैं। कांग्रेस आज असमंजस में और कमज़ोर है। तो क्या फिर पवार राजनीति की कांग्रेस संस्कृति को लेकर कोई बड़ा निर्णय लेने की योजना बना रहे हैं?

पवार की एनसीपी की विचारधारा

पवार की पार्टी ने 10 जून को अपनी ‘टीनएज’ (किशाोरवस्था) की दहलीज पार की और अब वह 20 साल की युवा हो गयी है। एनसीपी के सामने आज सबसे बड़ा सवाल अपनी राजनीतिक शक्ति को पुनर्स्थापित करने और उसके लिए मार्ग निर्धारित करने का है। शरद पवार जब युवा थे तो उन्होंने कांग्रेस एस (सोशलिस्ट) नामक पार्टी बनायी और प्रदेश में सत्ता का समीकरण साधते हुए मुख्यमंत्री बन गए थे। लेकिन जब वह दूसरी बार नयी राजनीतिक पार्टी बनाने निकले तो उन्होंने सोनिया गाँधी के विदेशी मूल के मुद्दे को आधार बनाते हुए प्रदेश के दस-बारह बड़े राजनीतिक घरानों के दम पर राजनीति की नयी परिभाषा लिखने की कोशिश की। लेकिन कुछ ही दिनों में जब कांग्रेस के साथ पहले राज्य में और बाद में केंद्र में सत्ता में भागीदारी की तो उनकी पार्टी के पास राजनीतिक विचारधारा के नाम पर सिर्फ़ कांग्रेस की विचारधारा ही बची। 

ताज़ा ख़बरें

लेकिन पवार, मोहिते, भोसले, क्षीरसागर, पाटिल, देशमुख, भुजबल, सोलंके, टोपे, नाईक, निंबालकर और तटकरे इन राजनीतिक घरानों के बीच ही उनकी पार्टी का शक्ति केंद्र सिमट कर रह गया, यह किसी से छुपा नहीं है। लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, ज़िला परिषद, पंचायत समिति, कृषि उत्पन्न बाजार समितियाँ, शक्कर कारख़ाना, दुग्ध उत्पादक संघ सत्ता के अधिकाँश पदों पर इन्हीं परिवारों को मौक़ा मिलने लगा। और शरद पवार की राजनीति का रुख भी बदलने लगा। 

एनसीपी से क्यों दूर हुए कार्यकर्ता?

नयी आर्थिक नीतियों की वजह से शक्कर कारख़ानों और दुग्ध उत्पादक संघों पर संकट का दौर आया तो साल 2004 से 2009 के बीच उनका तेज़ी से निजीकरण हुआ और ये घाटे में चलने वाले कारख़ाने मुनाफ़ा कमाने लगे। इस पूरे घटनाक्रम में एक बात जो सामने आयी वह थी- सहकारिता आंदोलन के टूट कर बिखरने की जिसका महाराष्ट्र में बहुत बड़ा नेटवर्क खड़ा था और जिससे बड़ी संख्या में छोटे और मध्यम किसान जुड़े थे। एनसीपी की राजनीति शुगर लॉबी, दूध लॉबी, जो कि उनकी पार्टी के नेताओं के आधिपत्य में थी, के इर्द-गिर्द ही केंद्रित होने लगी। इसका असर राष्ट्रवादी कांग्रेस पर भी पड़ने लगा और पार्टी में दरी और कुर्सी, झंडा, बैनर लगाने वाले कार्यकर्ताओं पर पड़ा और वे अपना भविष्य भारतीय जनता पार्टी -शिवसेना और दूसरे छोटे दलों में तलाशने लगे। इन कार्यकर्ताओं ने जब दरी खींची तो स्थापित बड़े नेताओं की चूलें हिल गयीं और वे पवार का साथ छोड़ दूसरे दलों की तरफ़ भागने लगे।

महाराष्ट्र से और ख़बरें

पवार के सामने चुनौती

पवार आज भी अपने भाषणों में फुले-आम्बेडकर और दलित-वंचितों का ज़िक्र करते हैं लेकिन इस वर्ग ने हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में प्रकाश आम्बेडकर के साथ खड़े रहकर जो चुनौती दी उससे 8 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस को प्रत्यक्ष हार का सामना करना पड़ा है। कभी इसी वर्ग को साथ रख 1991 में हुए लोकसभा चुनाव में शरद पवार ने महाराष्ट्र में 48 में से 38 सीटें जीतने में सफलता हासिल की थी। लेकिन ऐसी सफलता अब सपना ही लगती है। महाराष्ट्र में किसान कर्ज़ के दबाव में बड़ी संख्या में रोज़ आत्महत्या करते हैं। प्रदेश का किसान भयंकर सूखे की मार झेल रहे हैं, फिर भी ये किसान चुनाव में शरद पवार के क़रीब नहीं आए, यह सवाल बहुत गंभीर है। किसानों की राजनीति करने वाले शरद पवार को अपनी पार्टी की नई दिशा इन किसानों व प्रदेश के दलित -वंचित समाज के सवालों में ढूंढनी होगी।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
संजय राय

अपनी राय बतायें

महाराष्ट्र से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें