देश में जब मंडल आयोग को लेकर राजनीति का ध्रुवीकरण हो रहा था उस दौर में महाराष्ट्र में भी राजनीति का एक नया फ़ॉर्मूला तैयार किया जा रहा था। उस फ़ॉर्मूले का नाम था 'माधव' जो भारतीय जनसंघ के नेता वसंतराव भागवत लिख रहे थे। 'माधव' का मतलब माली, धनगर और वंजारी। ये तीन जातियों की महाराष्ट्र में जनसंख्या मराठा समाज और दलितों के बाद सबसे बड़ी है। लेकिन आज क्यों ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र में बीजेपी अपने ही इस समीकरण को तोड़ने जा रही है? इस फ़ॉर्मूले से जन्मे उसके बड़े नेता खडसे, मुंडे पार्टी के ख़िलाफ़ मोर्चा बांधे खड़े नज़र आ रहे हैं। गुरुवार 12 दिसंबर को गोपीनाथ मुंडे की पुण्यतिथि है और इस मौक़े पर पंकजा मुंडे अपने समर्थकों की सभा बुलाकर एक बार फिर से अपनी ताक़त दिखाने वाली हैं। उनकी इस सभा में उनके साथ एकनाथ खडसे के साथ-साथ विनोद तावड़े, राजपुरोहित, प्रकाश मेहता जैसे पुराने बीजेपी नेता खड़े होंगे जिन्हें देवेंद्र फडणवीस ने हाशिये पर पहुँचा दिया है। जैसा कि खडसे ने कहा है, इस मौक़े पर कोई बड़ा एलान हो सकता है। क्या प्रदेश में ओबीसी राजनीति का कोई नया मोर्चा बनाये जाने की घोषणा होगी?
अभी तो यह सवाल है। लेकिन जब गोपीनाथ मुंडे जीवित थे, उस समय भी इस तरह का मोर्चा बनाए जाने की बातें गाहे-बगाहे हुआ करती थीं। वे इस मोर्चे से एनसीपी नेता छगन भुजबल को भी जोड़ना चाहते थे, क्योंकि वे भी माली समाज के एक बड़े नेता हैं और निर्विवाद रूप से समाज आज भी उनके पीछे खड़ा नज़र आता है।
वसंतराव भागवत, जो ख़ुद ब्राह्मण थे, ने कांग्रेस को चुनौती देने के लिए अस्सी के दशक में ओबीसी राजनीति की रणनीति तैयार की थी। वसंतराव जब इस फ़ॉर्मूले को अमली जामा पहनाने के प्रयास कर रहे थे, महाराष्ट्र में उस समय तक, मराठा-बहुल इलाक़ों में कांग्रेस का दबदबा था। लेकिन वसंतराव ने माली, धनगर और वंजारी समुदाय के कई नेताओं को अपना शागिर्द बनाया और इस रणनीति ने राज्य में बीजेपी के वोट बैंक को बढ़ाया। वसंतराव के सबसे पुराने ‘चेलों’ में मुंडे थे, जो ओबीसी समुदाय के प्रमुख नेताओं के रूप में उभरे और शिवसेना-बीजेपी की प्रदेश में पहली बार सरकार बनी तो वे उप मुख्यमंत्री बने।
मुंडे के अलावा भी वसंतराव ने कई ग़ैर-मराठा तथा ग़ैर-ब्राह्मण नेताओं को आगे बढ़ाया, जिनमें एन. एस. फरांदे, अन्ना डांगे, पांडुरंग फुंडकर, एकनाथ खडसे, सुधीर मुनगंटीवार और विनोद तावड़े शामिल हैं। लेकिन आज महाराष्ट्र में बीजेपी के इसी आधार में हलचल मची हुई है।
मुंडे की विरासत को आगे लेकर चलने वाली उनकी बड़ी बेटी पंकजा मुंडे, एकनाथ खडसे, विनोद तावड़े आदि पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से न सिर्फ़ नाराज़ हैं बल्कि बग़ावत का स्वर बुलंद कर रहे हैं।
ऐसे में सवाल यह है कि एक ब्राह्मण नेता देवेंद्र फडणवीस के लिए बीजेपी अपने इस 'माधव' फ़ॉर्मूले की अनदेखी क्यों कर रही है जिसने उसे सत्ता की शीर्ष कुर्सी तक पहुँचा दिया है।
दिल्ली में शरद पवार से मिलने के बाद एकनाथ खडसे, जो गोपीनाथ मुंडे के साथ सालों प्रदेश में बीजेपी को खड़ा करने के लिए काम करते रहे, पंकजा मुंडे से मिले। या यूँ कह लें कि खडसे किसी नए राजनीतिक समीकरण की जो परिभाषा लिखने की कोशिश कर रहे हैं उसमें उन्हें पंकजा के सहयोग की भी ज़रूरत होगी। मुंडे, खडसे और छगन भुजबल ये 'माधव' राजनीति का बड़ा चेहरा हैं।
पंकजा की नाराज़गी
पंकजा की नाराज़गी आज की नहीं है। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि बीजेपी की सरकार आने पर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। उनका नाम भी चला, लेकिन मोदी और शाह ने फडणवीस को तरजीह दी। मई 2015 में पुणे में पंकजा ने कहा था कि उन्हें नहीं मालूम कि वह मुख्यमंत्री बनेंगी या बतौर मंत्री काम करती रहेंगी और उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि ‘लोगों की नज़रों में’ वह मुख्यमंत्री हैं। उस समय फडणवीस को उनकी बात पसंद नहीं आई और उन्होंने जुलाई 2016 में जब अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल किया तो पंकजा से दो मंत्रालय (जल संरक्षण तथा रोज़गार गारंटी मंत्रालय) छीन लिए। उनके इस फ़ैसले से नाराज़ मुंडे के समर्थकों ने उनके बीड ज़िले में फडणवीस का पुतला जलाकर अपना विरोध प्रदर्शन किया था।
क्या पंकजा को कमज़ोर किया गया?
बताया जाता है कि इसके बाद फडणवीस के इशारे पर पंकजा को उनके ही गढ़ में कमज़ोर करने का दाँव चला जाने लगा। जिस भगवानगढ़ को मुंडे की ताक़त बताया जाता है और जहाँ साल 1993 से ही गोपीनाथ मुंडे अपने समुदाय को भगवानगढ़ के मंदिर में अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए दशहरा के अवसर पर संबोधित करते आ रहे थे वहाँ सेंध लगाने का काम किया गया। दशहरा से एक पखवाड़े पहले पंकजा और भगवानगढ़ के मंदिर के महंत के बीच तनातनी हो गई और समुदाय की वफादारियाँ बँट गयीं। पंकजा के क़रीबी यह कहते हैं कि भगवानगढ़ रैली को पटरी से उतारने के लिए मुख्यमंत्री खेमे के लोगों ने दोनों के बीच मनमुटाव पैदा कराया था। उस समय पंकजा ने भगवानगढ़ के आसपास लगाई गई निषेधाज्ञा का उल्लंघन कर अपने समर्थको को संबोधित किया। अपनी उस सभा में पंकजा ने कहा, “मैंने अपना इस्तीफ़ा लिखकर रखा हुआ है क्योंकि ‘पार्टी के अंदर-बाहर की शक्तियाँ’ उन्हें ‘जान-बूझकर निशाना’ बना रही हैं। मुझे अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फँसाया जा रहा है, लेकिन मैं अपनी रक्षा ख़ुद करूँगी”।
पंकजा के इस शक्ति प्रदर्शन को मुख्यमंत्री फडणवीस को चेतावनी के रूप में देखा गया था। उस समय ‘मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़, पंकजा के आक्रामक तेवर बीजेपी-संघ के अधिकतर नेताओं को पसंद नहीं आए थे। लेकिन उनके साथ सिर्फ़ एक ही नेता खड़े थे और वह थे ओबीसी नेता, एकनाथ खडसे। खडसे ने उस समय कहा था कि जनता पंकजा के साथ खड़ी है। हालाँकि, फडणवीस द्वारा हाशिए पर धकेले जाने के बाद खडसे के समर्थन को ज़्यादा बल नहीं मिला। मुख्यमंत्री पद के लिए खडसे भी मज़बूत दावेदार थे, क्योंकि सत्ता में नहीं आने से पहले वे सालों विरोधी पक्ष नेता के रूप में कांग्रेस-एनसीपी के ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे थे।
खडसे की नाराज़गी
इसी कारण खडसे को भी फडणवीस का सीएम बनना गवारा नहीं हुआ था। वह फडणवीस को अपने से कहीं जूनियर समझते आए थे। उन्हें राजस्व मंत्री बनाया गया और जब जून 2016 में, ज़मीन के धंधे से जुड़े एक व्यवसायी ने आरोप लगाया कि खडसे ने अपने मंत्री होने का फ़ायदा उठाकर भोसरी औद्योगिक क्षेत्र में तीस-चालीस करोड़ रुपए की संपत्ति सिर्फ़ पौने चार करोड़ में हथिया ली तो उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था। खडसे के ख़िलाफ़ साज़िश रची गई थी, जाँच में उनके ख़िलाफ़ कुछ भी अनुचित करने का आरोप सिद्ध नहीं हो पाया और जून 2018 में उन्हें क्लीन चिट मिल गई।
खडसे की तरह पंकजा पर भी स्कूली बच्चों के लिए पौष्टिक आहार के नाम पर चिक्की की खरीद में अनियमितता बरतने के आरोप लगाए गए। उस समय मंत्रालय और महाराष्ट्र की राजनीति में एक बात की खूब चर्चा होती थी कि किस तरह से इन दोनों नेताओं को किनारे लगा दिया गया।
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