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क्या जाति जनगणना पर केंद्र से टकराने को तैयार हैं नीतीश कुमार?

केंद्र सरकार ने अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की जनगणना कराने की मांग स्पष्ट रूप से खारिज कर दी है। संसद में सरकार ने कहा है कि ऐसी कोई योजना नहीं है। इससे भारतीय जनता पार्टी और बिहार में उसके सहयोगी जनता दल यूनाइडेट के बीच टकराव की पूरी संभावना बन रही है। नीतीश कुमार जाति जनगणना के कट्टर समर्थक रहे हैं।

ओबीसी की जनगणना कराने की सबसे पहले मांग मंडल कमीशन ने की थी। मंडल कमीशन को जातियों की संख्या के आँकड़े 1931 की जनगणना से लेना पड़ा था और उसके आधार पर यह अनुमान लगाया गया था कि देश में ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत है। 1981 की जनगणना में जाति जनगणना कराने के बारे में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने कहा कि इसकी प्रक्रिया क़रीब पूरी हो चुकी है, इसलिए आयोग की इस मांग पर विचार कर पाना संभव नहीं है।

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तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने कहा कि 1991 की गणना में ही इस पर विचार हो सकता है। वहीं 1991 में जाति जनगणना पर कोई जोरदार मांग नहीं हो सकी। उस समय मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू किए जाने को लेकर देश भर में तरह-तरह के हंगामे चल रहे थे। 2001 की जनगणना में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार ने इस मसले पर विचार ही नहीं किया। 2011 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने जाति जनगणना कराई, लेकिन मोदी सरकार ने उसमें विसंगतियाँ बताते हुए उसके आँकड़े सार्वजनिक नहीं किए। अब 2020-21 की जनगणना में जाति आधारित जनगणना से केंद्र सरकार ने इनकार कर दिया है।

ओबीसी की आबादी को लेकर विद्वान तरह-तरह के सवाल उठाते रहते हैं। वहीं यह भी सवाल उठता है कि ओबीसी और अनुसूचित जाति और जनजाति में कुछ जातियों का ओवर रिप्रजेंटेशन हो गया है, जिन्हें अब आरक्षण देने की ज़रूरत नहीं है। इसी ओवर रिप्रजेंटेशन को लेकर केंद्र सरकार ने ओबीसी के बंटवारे के लिए जस्टिस रोहिणी समिति का गठन किया है। लेकिन जाति जनगणना न होने के कारण कोई ठोस आँकड़े नहीं हैं, जिससे यह पता लगाया जा सके कि किन जातियों को ओवर रिप्रजेंटेशन है और उन्हें आरक्षण कितना मिलना चाहिए या नहीं मिलना चाहिए। साथ ही यह भी आँकड़े नहीं मिल पाते कि अनारक्षित यानी सामान्य वर्ग की नौकरियों में किन जातियों का ओवर रिप्रजेंटेशन है।

नीतीश कुमार शुरुआत से ही जाति जनगणना के समर्थक रहे हैं और समय-समय पर उन्होंने इसके पक्ष में आवाज़ भी उठाई है।

लोकसभा में भी उन्हीं के दल के तीन सांसदों ने जाति जनगणना पर सवाल उठाया और केंद्र सरकार ने उसका जवाब भी बिहार के ही एक यादव बीजेपी नेता और केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय से दिलवाया।

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16 मार्च 2021 को बिहार के नालंदा से जनता दल यूनाइटेड के सांसद कौशलेंद्र कुमार, बिहार के ही पूर्णिया से जनता दल यूनाइटेड के संतोष कुमार और बिहार के मधेपुरा से जनता दल यूनाइटेड के दिनेश चंद्र यादव ने पूछा कि क्या 2021-22 में होने वाली जनगणना के दौरान जाति आधारित जनगणना कराने की सरकार की कोई योजना है? इसके जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा, ‘आगामी जनगणना की प्रश्नावलियाँ विभिन्न हितधारकों के साथ परामर्श करके तैयार की गई हैं। जनगणना में उन जातियों व जनजातियों की गणना की जाती है, जो संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 (समय समय पर यथासंशोधित) के अनुसार अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के रूप में विशेष अधिसूचित हैं। भारत संघ ने स्वतंत्रता के पश्चात एक नीतिगत मामले के रूप में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अतिरिक्त जातिवार जनगणना न करने का निर्णय लिया है।’ यानी साफ़ है कि केंद्र सरकार ने जाति जनगणना की मांग खारिज कर दी है।

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जनता दल यूनाइटेड बिहार में राष्ट्रीय जनता दल से संबंध तोड़ने और बीजेपी से गलबहियाँ करने के बाद से लगातार बेइज्जत हो रहा है। बिहार में तो बीजेपी ने साथ में सरकार बना ली, लेकिन नीतीश के सांसदों को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भी जदयू सांसद कलफदार कुर्ता पहने मंत्री बनने के इंतज़ार में बैठे रहे, लेकिन जगह नहीं मिली। उसके बाद विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने ऐसा तिकड़म लगाया कि जदयू हाशिये पर चला गया और जब से नीतीश कुमार सरकार में हैं, उसके बाद से राज्य में उनका सबसे ख़राब प्रदर्शन रहा है।

बीजेपी ने नीतीश को मुख्यमंत्री तो बना दिया है, लेकिन उनके सिर पर दो डिप्टी सीएम सवार कर रखे हैं। ऐसी परिस्थितियों के बीच नीतीश कुमार ने पार्टी के संगठनकर्ता और पर्दे के पीछे रहकर भूमिका निभाने वाले आरसीपी सिंह को जदयू का अध्यक्ष बना दिया, जिससे संगठन मज़बूत हो सके।

वहीं हाल ही में नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का विलय भी जदयू में करा लिया। रालोसपा में भले ही एक भी सांसद विधायक नहीं हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी को 7 लाख 44 हजार वोट यानी राज्य में 1.77 प्रतिशत मत मिले थे। कई विधानसभा इलाक़ों में उनके प्रत्याशियों ने 10,000 से ज़्यादा मत पाए, जिन्हें मिलाकर जदयू के प्रत्याशी के जीतने की संभावना बनती।

नीतीश कुमार पार्टी को मज़बूत करने और मतदाताओं को जोड़ने की कवायद लगातार कर रहे हैं। ऐसे में लगातार हाशिये पर जाते कुमार राज्य में अपना अस्तित्व बचाने के लिए जाति जनगणना के बहाने मोदी सरकार से दो-दो हाथ कर सकते हैं। हालाँकि नीतीश कुमार इसके लिए पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल और असम के चुनाव परिणामों तक वेट ऐंड वाच की स्थिति में रह सकते हैं।

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प्रीति सिंह

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