कोरोना के इलाज के लिए वैक्सीन की खोज का काम इस समय अरबों-खरबों डॉलर का धंधा बन गया है। दुनियाभर की दवा कम्पनियाँ और विश्वविद्यालय इस काम में रात-दिन जुटे हुए हैं।
भारतीय इतिहास के इस सबसे बड़े संकट से सरकार कैसे निपट रही है, क्या यह जवाबदेही संसद को नहीं तय करनी चाहिए? सरकार से जबाब-तलब करने वाला प्रश्नकाल आख़िर क्यों ख़ामोश है?
कुम्भकर्णी नींद में ग़ाफ़िल होने के चलते अपनी शुरुआती नाकामयाबियों से बौखलाई सरकार और बीजेपी ने कोविड-19 के प्रारम्भिक प्रसार का ठीकरा जमातियों के मत्थे फोड़ दिया। अब किसकी बारी है?
कोरोना संकट के दौरान देश में कई जगहों पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाई गई तो कई जगहों पर लोग जाति-धर्म का भेद किए बिना एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आए।
रिजर्व बैंक ने भी मान लिया है कि लिया कि मौजूदा वित्तीय साल में भारत की विकास दर नकारात्मक रहेगी। अब सवाल ये है कि मोदी सरकार इस संकट से निपट पायेगी या नहीं?
जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के हालिया अध्ययन में कहा गया है कि मौजूदा महीनों में 143 देशों के जो 36 करोड़ 85 लाख बच्चे स्कूल जाने से महरूम रह गए और जिन्हें 'मिड डे स्कूल मील' नहीं मिल पा रहा है, वे ज़बरदस्त कुपोषण का शिकार हैं।
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक उच्चाधिकारी ने आग में घी डालने का काम किया है। उसने भारत-चीन सीमा को लेकर ऐसा भड़काऊ बयान दे दिया है कि यदि भारत उस पर अमल करने लगे तो दोनों पड़ोसी देश शीघ्र ही आपस में लड़ मरें।
नेपाल ने कालापानी और कुछ अन्य इलाकों पर अपना दावा ठोक दिया है। भारत ने लंबे समय तक इस मसले को लटकाए रखा और कभी भी इस विवाद को सुलझाने के लिए गम्भीर क़दम नहीं उठाए।
देश में लॉकडाउन को लगे दो महीने हो रहे हैं। इन दो महीनों में क्या कोरोना से लड़ाई में देश जीता या हारा, यह सवाल उठना चाहिये। और अगर संकट बढ़ा है तो क्यों और कौन इसके लिये ज़िम्मेदार है?
कोरोना संकट के दौर में मीडिया की भूमिका कैसी है? मीडिया क्या वाजिब सवाल उठा रहा है? दुनिया के एक सौ अस्सी देशों में प्रेस की आज़ादी को लेकर हाल ही में जारी रैंकिंग में भारत 142वें क्रम पर पहुँच गया है।
यह कितने दुख और आश्चर्य की बात है कि अफ़ग़ानिस्तान भारत का पड़ोसी है और उसके भविष्य के निर्णय करने का काम अमेरिका कर रहा है? भारत की कोई राजनीतिक भूमिका ही नहीं है।