जिस हिन्दू-मुसलिम नस्लवाद की आग से भारत, बीते कई वर्षों से झुलस रहा है, उसकी लपटें अब खाड़ी के देशों तक पहुँच गयी हैं। इतिहास गवाह है कि नस्लवाद की प्रतिक्रियाएँ होती ही हैं।
कोरोना संकट के समय देश में तालाबंदी है लेकिन धार्मिक नफ़रत और हिंसा की खिड़कियाँ खुली हुई हैं। दिल्ली जैसे महानगरों से लेकर छोटे शहरों में सब्जी और फल बेचने वालों से उनका नाम पूछा गया। उनका आधार कार्ड देखा गया।
कांग्रेस-अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने 7 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर पाँच सुझाव दिए थे, उनमें से ज़्यादातर बहुत अच्छे थे। मैंने उनका समर्थन किया था लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उन्होंने जो कुछ बोला है, वह ठीक नहीं।
ये कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जिनका कि रिकॉर्ड और याददाश्त दोनों ही में बने रहना ज़रूरी है। कोरोना को एक-न-एक दिन ख़त्म होना ही है, ज़िंदा तो अंततः इसी तरह की लाखों-करोड़ों कहानियाँ ही रहने वाली हैं।
शीर्ष अदालत ने टिप्पणी की है कि 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण की इजाजत नहीं दी जा सकती। यह टिप्पणी अनुसूचित जनजातियों को 100 प्रतिशत आरक्षण देने के 20 साल पुराने फ़ैसले पर आई है।
लॉकडाउन की वजह से प्राइवेट कंपनियों में काम करने वाले लोग इन दिनों वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं। वर्क फ्रॉम होम कर्मचारियों और संस्थानों दोनों के लिए मुफीद साबित हो सकता है।
पालघर में साधुओं की हत्या हो या दादरी में अख़लाक़ को मार डालने का मामला। दोनों ही मामलों में भीड़ ने न्याय किया। ऐसी घटनाएं रोकने के लिए भीड़तंत्र को ख़त्म करना ज़रूरी है।
यह तथ्य तो अब जगजाहिर हो चुका है कि भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण के बढ़ते मामलों के लिए एक संप्रदाय विशेष को संगठित और सुनियोजित रूप से ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।
क्या मुसलमान कोरोना के जानलेवा ख़तरे को नहीं समझ रहा? क्या वो जानबूझ कर अपनी जान देने पर आमादा है? और सबसे बड़ी बात कि आख़िर वो इतने ग़ुस्से में क्यों है?
आपात स्थितियाँ नागरिकों की तरह ही प्रजातंत्र और उससे सम्बद्ध संस्थानों की इम्युनिटी को भी किस हद तक प्रभावित या कमज़ोर कर देती हैं उसका पता वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं लगाया जा सकता।
अब तालाबंदी में ढील की घोषणा तो हो गई लेकिन ज़मीनी असलियत क्या है? लोगों में मौत का डर इतना गहरा बैठ गया है कि कारखानेदार, दुकानदार और बड़े अफ़सर अपने कर्मचारियों को अपने दफ्तरों में बुला रहे हैं लेकिन वे आने को ही तैयार नहीं हैं।