पंजाब में रोज़ी-रोटी के लिए आए आप्रवासी मज़दूर लॉकडाउन के बाद पलायन करने पर मज़बूर हैं। बड़ी तादाद में लोग पैदल घरों को लौट रहे हैं। ख़ासतौर पर वे जो उन फ़ैक्ट्रियों अथवा औद्योगिक परिसरों में काम करते थे, जहाँ अब लॉकडाउन और राज्य में जारी अनिश्चितकालीन कर्फ्यू के चलते ताले लटक गए हैं। इन फ़ैक्ट्रियों के मालिकों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। इन मज़दूरों के लिए केंद्र और पंजाब सरकार के दावे क़दम-क़दम पर निहायत खोखले साबित हो रहे हैं। मज़दूर परिवारों के साथ उनके मकान मालिकों ने भी अमानवीय व्यवहार किया। इसके चलते उन्होंने अपना फौरी मुकाम छोड़कर अपने मूल राज्यों की ओर पैदल जाना मुनासिब समझा।
कुछ मज़दूर तो एक से डेढ़ हज़ार किलोमीटर का फासला सपरिवार पैदल तय कर रहे हैं। अपनी मंज़िल तक कब पहुँचेंगे, नहीं जानते। पंजाब से पूरब की ओर मज़दूरों का यह पलायन विभाजन के वक़्त की याद दिला रहा है। 28 मार्च को प्रवासी मज़दूरों का एक लंबा काफिला सरहिंद (ज़िला फतेहगढ़ साहिब) से गुज़र रहा था। पुरुषों-महिलाओं के सिर पर ज़रूरी सामान, गोद में बच्चे और पीछे-पीछे कुछ बुजुर्ग अपने नाती-पोतों की ऊंगलियाँ थामे थे चल रहे थे। कोरोना वायरस अपने वतन में इन्हें बेहद पीड़ा देकर बेवतन कर रहा है।
इस काफिले में शामिल रमेश यादव व अर्जुन यादव से बात करने पर उन्होंने बताया कि उनके काफिले में शामिल तमाम क़रीब 150 परिवार लुधियाना की विभिन्न फ़ैक्ट्रियों में काम करते थे। लॉकडाउन और कर्फ्यू के बाद वहाँ ताले लग गए और उनकी रोजी-रोटी पर भी। निर्देश थे कि घरों से बाहर न जाएँ। वे जाना भी नहीं चाहते थे। लेकिन मकान मालिकों ने उन्हें इस अविश्वास या आशंका के चलते घर छोड़ देने को कहा कि वे अब किराया कहाँ से देंगे? ये सभी लोग उत्तर प्रदेश के बहराइच ज़िले के गाँवों से हैं। लुधियाना से बहराइच की दूरी 1000 किलोमीटर से ज़्यादा है। परिवहन का सफर ही 15 घंटे से ज़्यादा का है।
लुधियाना का घंटाघर ऐतिहासिक माना जाता है और आज़ादी के वक़्त उसकी अपनी एक भूमिका थी। देश आज़ाद हुआ। यहाँ कॉलोनियां बसीं। इस संदेश के साथ कि अब पलायन ख़त्म होता है और आज़ादी एक सच है।
लेकिन 28 मार्च 2020, को यह सच इन पलायन करने वाले मज़दूरों के लिए झूठा साबित हुआ। क़रीब 150 मज़दूर परिवार इन्हीं कॉलोनियों में बने क्वार्टरों में किराए पर रह रहे थे। मकान मालिकों ने इन्हें बाहर निकाल दिया।
रमेश और अर्जुन के मुताबिक़ तमाम परिवार वक़्त पर किराया देते थे। 40 साल की उम्र के दायरे के इन दोनों लोगों के लिए समझना-बताना मुश्किल था कि ऐसा और अमानवीय व्यवहार इन 150 परिवारों के साथ क्यों किया गया? जबकि इनके साथ बुजुर्ग और छोटे बच्चें भी हैं जिनमें से कई बीमार भी। पलायन के इस प्रकरण को लेकर लुधियाना के उपायुक्त प्रदीप अग्रवाल ने व्हाट्सएप और टेक्स्ट मैसेज का कोई जवाब नहीं दिया।
सरहिंद से कुछ आगे है राजपुरा। यह पंजाब-हरियाणा की अधिकृत सीमा भी है। वहाँ से एक सहयोगी सरबजीत ने इस काफिले से बात की। फ़िलहाल ख़बर यह है कि बहराइच जाने वाला श्रमिक परिवारों का यह काफिला पानी के सहारे सफर कर रहा है। ऐन रोड पर स्थित गुरुद्वारों से रास्ते भर कुछ न कुछ मिलता भी रहा। रास्ते के लिए लंगर से मिला खाना भी साथ बाँध लिया, लेकिन आगे क्या? सिर्फ़ पानी? इस काफिले में शामिल लोग रात होने पर या थककर और बुजुर्गों-बच्चों तथा बीमारों का ख्याल रखते हुए दो से तीन घंटे और आराम के नाम पर सड़क के किनारे लेट जाते हैं। जब कहीं भी इनसे बातचीत की गई तो ये 10 से 15 लोगों का ग्रुप बनाकर चल रहे थे और इनके बीच 50 से 100 मीटर की ही दूरी थी।
गर्भवती महिला की हालत बिगड़ गई थी
ज़िला फतेहगढ़ साहिब के अंतर्गत पंजाब की एक लोहा मंडी गोबिंदगढ़ भी आती है। कोरोना वायरस से पहले राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के कुछ परिवार जम्मू में झाड़ूू बेचने गए थे। देशव्यापी लॉकडाउन के बाद ये पैदल वहाँ से अपने घरों के लिए निकल पड़े। 28 मार्च को मंडी गोविंदगढ़ पहुँचे तो इनमें से 8 महीने की गर्भवती समता भी थी जो हाँफ रही थीं। समता को सिविल अस्पताल में प्राथमिक उपचार के बाद पटियाला रेफर किया गया है। ये तो कुछ मामले हैं जो मीडिया के सामने आए, लेकिन अन्य अनगिनत मामले भी हैं, उनका क्या?
29 मार्च को मोहाली में ऐसे सैकड़ों मज़दूरों की कतारें देखीं गईं जो शहर छोड़़ कर उत्तर प्रदेश व बिहार तथा अन्य अपने मूल राज्यों को जाने की कोशिश कर रहे थे। मोहाली का बलौंगी गाँव छोड़कर जा रहे किशन सिंह के अनुसार शुक्रवार को गाँव के नज़दीक झुग्गी-बस्ती में कुछ लोगों को सरकारी राशन के पैकेट ज़रूर बाँटे गए, लेकिन उन जैसे मज़दूर परिवारों तक नहीं पहुँचे जो वहाँ छोटे-छोटे कमरों में बड़ी तादाद में रहते हैं।
जालंधर में भी यही आलम है। कर्फ्यू लगने के बाद प्रवासी मज़दूर घरों को लौटने लगे हैं। उत्तर प्रदेश के बलरामपुर के रहने वाले शिवराम अपने साथियों के साथ पैदल गाँव जा रहे हैं। वह कहते हैं कि सहारनपुर तक ऐसे ही पैदल जाएँगे और उसके बाद बस या कोई और साधन मिल गया तो ठीक वरना यह सफर पैदल ही जारी रहेगा।
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