उत्तर प्रदेश की सियासत में लंबे वक़्त तक बारी-बारी से हुक़ूमत संभाल चुके बीएसपी और एसपी के लिए पिछला विधानसभा चुनाव बेहद ख़राब अनुभव वाला रहा। 2012 के मुक़ाबले दोनों की सीटें काफ़ी घटीं। बीएसपी का तो सूपड़ा साफ होने से बचा और वह सिर्फ़ 19 सीटें जीत सकी जबकि एसपी को 54 सीटें मिलीं।
माया ने छोड़ा साथ
इसके बाद लोकसभा चुनाव 2019 के लिए इन दोनों दलों ने हाथ मिलाया और मिलकर चुनाव लड़ा। बीएसपी को इसका फ़ायदा हुआ और वह 2014 में शून्य सीटों से 10 पर पहुंच गयी। जबकि एसपी अपने पुराने आंकड़े 5 पर टिकी रही। कुछ ही महीने बाद बीएसपी ने गठबंधन से नाता तोड़ लिया।
गठबंधन बनाने में जुटे राजभर
अब जबकि ये दोनों ही दल 2022 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं तो उत्तर प्रदेश में बन रहे एक मोर्चे ने दोनों की चिंता बढ़ा दी है। पूर्व कैबिनेट मंत्री और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर काफी वक़्त से छोटे विपक्षी दलों का एक गठबंधन बनाने में जुटे हैं और इसमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली है।
भागीदारी संकल्प मोर्चा
इस मोर्चे या गठबंधन का नाम भागीदारी संकल्प मोर्चा है और इसमें अब तक नौ दल शामिल हो चुके हैं। इसमें सुभासपा के अलावा पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा की राष्ट्रीय जन अधिकार पार्टी, कृष्णा पटेल का अपना दल, ओवैसी की एआईएमआईएम, चंद्रशेखर रावण की पार्टी आज़ाद समाज पार्टी, बाबू राम पाल की राष्ट्रीय उदय पार्टी, अनिल चौहान की जनता क्रांति पार्टी, प्रेमचंद्र प्रजापति की राष्ट्रीय उपेक्षित समाज पार्टी, सहित कुछ छोटे दल शामिल हैं।
भागीदारी संकल्प मोर्चा की तर्ज पर बिहार में भी गठबंधन बना था। इसका नाम ग्रेंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट था और इसमें उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी, असदउद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, मायावती की बीएसपी के अलावा कुछ छोटे दल शामिल थे।
दलित-पिछड़ा-मुसलिम का गठजोड़
बिहार में यह गठबंधन चुनाव से कुछ दिन पहले ही बना, इसलिए यह ज़्यादा सियासी असर नहीं दिखा पाया लेकिन ओवैसी को जो 5 सीटें मिलीं, वह इस गठबंधन के बूते ही संभव हो सका। क्योंकि इस गठबंधन ने दलित-पिछड़ा-मुसलिम का जो समीकरण बनाया था, उसने कम समय में ही कुछ हद तक असर दिखा दिया था। इसके अलावा बीएसपी को भी एक सीट मिली थी।
अब ऐसा ही गठबंधन बनाने की क़वायद उत्तर प्रदेश में चल रही है। भागीदारी संकल्प मोर्चा के नेता ओमप्रकाश राजभर अति पिछड़े मतदाताओं के बीच जनाधार रखते हैं और योगी सरकार में रहते हुए ही बीजेपी और योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने के कारण चर्चा में आए थे।
असदउद्दीन ओवैसी के साथ मुलाक़ात के बाद ओम प्रकाश राजभर ने पूर्व कैबिनेट मंत्री और एसपी से अलग होकर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) बनाने वाले शिवपाल सिंह यादव से मुलाक़ात की है।
केजरीवाल का एलान
इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने भी यूपी चुनाव में उतरने का एलान कर दिया है। आम आदमी पार्टी बीजेपी की ही तरह सोशल मीडिया पर लोगों तक पार्टी की पहुंच बढ़ाने के लिए जानी जाती है। यूपी में आम आदमी पार्टी के चेहरे और राज्यसभा सांसद संजय सिंह भी ओम प्रकाश राजभर से मुलाक़ात कर चुके हैं। यह लगभग तय माना जा रहा है कि शिवपाल यादव और केजरीवाल की पार्टी भागीदारी संकल्प मोर्चा से जुड़ेंगी।
भागीदारी संकल्प मोर्चा की ओर से जो चुनावी गणित बैठाने का काम किया जा रहा है, निश्चित रूप से उसका नुक़सान अखिलेश और मायावती को ही होगा। 42 फ़ीसदी पिछड़ों की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में बन रहे इस मोर्चे में दलित, पिछड़ा और मुसलिम आबादी को साधने वाले नेता तो हैं ही, विकास की राजनीति करने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी भी है।
पिछड़ों में यादव-कुर्मियों और जाट-गुर्जर को छोड़ दिया जाए तो पूर्वांचल के इलाक़े में बिंद, निषाद, मल्लाह, कश्यप, कुम्हार, राजभर, प्रजापति, मांझी, पाल, कुशवाहा, सैनी, चौरसिया, विश्वकर्मा आदि अति पिछड़ी जातियों के वोटों को अपने पाले में कर सकते हैं।
ऐसे में ओवैसी, राजभर, संजय सिंह, शिवपाल यादव और चंद्रशेखर रावण अगर मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो पिछड़ों-दलित और मुसलिम, जो यूपी की आबादी का 82 फ़ीसदी हैं, उनके बीच यह गठबंधन हलचल पैदा कर सकता है।
अखिलेश की सक्रियता
बीते कुछ दिनों में अखिलेश यादव ने सक्रियता बढ़ाई है। मायावती पर बीजेपी को लेकर नरम रूख़ रखने के आरोपों से इतर अखिलेश समय-समय पर योगी सरकार के ख़िलाफ़ हल्ला बोलते रहते हैं। पिछले कुछ महीनों के दौरान उन्होंने विपक्षी नेताओं को पार्टी में शामिल करवाने से लेकर किसान आंदोलन के मसले पर ज़मीन पर गिरफ़्तारी देकर सक्रियता बढ़ाने का अहसास कराया है।
लेकिन भागीदारी संकल्प मोर्चा से अगर शिवपाल यादव जुड़ते हैं तो राजभर के साथ मिलकर पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग के मतदाता इस मोर्चे के साथ जा सकते हैं। ओवैसी के साथ होने से मुसलिम मदाताओं में सेंध लगने का भी डर है। ऐसे में निश्चित रूप से अखिलेश यादव को मुश्किल हो सकती है।
कांग्रेस को होगा नुक़सान!
माया-अखिलेश के अलावा कांग्रेस को भी इस मोर्चे के कारण नुक़सान होगा क्योंकि प्रियंका गांधी की भी कोशिश दलित-मुसलिम मतदाताओं को पार्टी के पाले में लाने की है। ऐसे में मायावती और अखिलेश के साथ ही कांग्रेस को भी भागीदारी संकल्प मोर्चा से लड़ने की काट ढूंढनी पड़ेगी।
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