पाँच दिन गुज़र जाने के बावजूद विकास दुबे का दूर-दूर तक पता नहीं। बीते मंगलवार से बुधवार के बीच यूपी पुलिस ने 8 मोर्चे एक साथ खोले। पहला, उन्होंने बुधवार के तड़के विकास दुबे के एक सहयोगी अमर दुबे को हमीरपुर में मार गिराया। दूसरा, उन्होंने फरीदाबाद में उसके एक भगोड़े साथी को पकड़ लिया है। तीसरा, ‘ऑपरेशन क्लीन' के तहत उसने कानपुर, गौतमबुद्धनगर, आगरा, भदोई, वाराणसी सहित प्रदेश के कई ज़िलों में कथित गैंगस्टरों की धरपकड़ के साथ-साथ कई करोड़ रुपयों की उनकी संपत्ति कुर्क और ज़ब्त करके पूरे प्रदेश में अपराध, अपराधियों और उनकी संपत्ति को ठिकाने लगाने का शंखनाद किया है।
चौथा, उसने राज्यपाल को अपराध मुक्त प्रदेश की माँग का ज्ञापन देने जाने के 'गंभीर जुर्म' में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के नेतृत्व वाले प्रतिनिधि मंडल को बीच राह से उठाकर कई घंटों के लिए हिरासत में रखा। पाँचवाँ, उसने एसटीएफ़ के विवादास्पद डीआईजी सहित समूचे चौबेपुर थाने की पुलिस को स्थानांतरित कर दिया। छठा, जाँच एजेंसियों की संख्या बढ़ा दी गई (40 थानों की 25 टीमें और एसटीएफ़ की एक टीम)। सातवाँ, मुख्य अपराधी का इनाम 1 लाख से बढ़ाकर 2.5 लाख करके अन्य 18 आरोपियों की तलाश को जारी उनके फोटो वाले पोस्टरों से पूरे राज्य को पाट दिया और आठवाँ, उसने कानपुर मीडिया के साथ बैठकर विकास दुबे की फरारी और उसे गिरफ़्त में लेने के अंदाज़-ए-बयान की ऐसी-ऐसी कहानियाँ बुनीं जो सुनने में तो बड़ी दिलचस्प लगती हैं लेकिन जिनका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई ताल्लुक़ नहीं है।
साँप-छछूंदर की तरह अटक गया है आदित्यनाथ योगी सरकार के गले में विकास दुबे पुलिस नरसंहार। इसे न वह निगल पा रही है न उगल। सत्ता के शिखर पर पहुँचने वाली बीजेपी सरकार को अपना भी अस्तित्व उसी 'जंगलराज' में ग़ुम होता दिख रहा है, 3 साल पहले जिसका नारा लगाकर उसने अखिलेश यादव सरकार की जड़ें उखाड़ फेंकी थीं। और यह उसके लिए सबसे बड़ी फ़िक़्र की बात है।
'लॉ एंड ऑर्डर' का मुद्दा घोषित करके 'नागरिकता संशोधन क़ानून' विरोध के आंदोलन पर जिस तरह दमन का डंडा चलाया गया था और नैतिकता का किसी प्रकार का कोई आवरण ओढ़े बिना शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले रिटायर्ड और बुज़ुर्ग आईजी से लेकर प्रदेश भर में सामाजिक अधिकारों को गुहारते स्त्री और पुरुष कार्यकर्ताओं को जिस तरह उठाकर जेल में ठूंस देने और उसके बाद अपनी ही पीठ ठोंक कर ख़ुद को शाबाशी देती रही थी, वही योगी सरकार आज शर्मिंदगी के ऐसे गहरे कूप में धँस गई है जहाँ से वह जल्द से जल्द बाहर निकलना चाहती है।
यही वजह है कि उसने अपने शीर्ष नौकरशाहों को एक साथ 'कुएं' से बाहर निकल पाने की तरक़ीब खोजने में लगा रखा है। जिसके पास जो आइडिया है वह उसी को लेकर मैदान-ए-जंग में कूद पड़ा है। यही वजह है कि इतने मोर्चे एक साथ खुल गए हैं लेकिन मुक्ति मार्ग फ़िलहाल कहीं नहीं दिख पा रहा है।
सत्ता में आने के 2 साल के भीतर ही मुख्यमंत्री पर उनकी पार्टी के कार्यकर्ता और जनप्रतिनिधियों ने 'ख़राब' शासक का आरोप लगाकर विरोध अभियान छेड़ दिया था। पार्टी कार्यकर्ताओं की शिकायत थी कि सारा निजाम नौकरशाही के हाथों में है जो किसी भी पार्टी कार्यकर्ता की नहीं सुनता। यह विरोध अपने चरम पर था और राज्य में नेतृत्व बदलाव की माँग उठनी शुरू हो गयी थी कि तभी 'बिल्ली के भाग से छींका टूटने' की घटना चरितार्थ हुई और देश भर में 'नागरिकता संशोधन क़ानून' के विरोध में आंदोलन सुगबुगाने लगे। दिल्ली के बाद का सबसे बड़ा प्रतिरोध केंद्र उप्र बना और तब मुख्यमंत्री ने उस पूरे आंदोलन का जिस तरह से दमन किया, उसकी मिसाल देश में दूसरी नहीं मिलती। आन्दोलन के कुचले जाने की कार्रवाइयों में पूरी नौकरशाही ने उनका साथ दिया। इस क़िले को फ़तह करने के बाद योगी जी ने न सिर्फ़ अपने पार्टीजन के मुँह पर ताले जड़ दिए बल्कि वह पार्टी के उस आलाकमान से भी 'गुड बॉय' का सर्टिफिकेट हासिल करने में कामयाब हुए जो उन्हें बीते कुछ दिनों से टेढ़ी नज़र से देखे जा रहा था।
लॉकडाउन की बेला में प्रदेश के प्रवासी मज़दूरों और छात्रों के साथ उन्होंने वैसी बेरहमी क़तई नहीं बरती जैसी बिहार में उनके सहोदर नीतीश कुमार बरत रहे थे। प्रवासियों की वापसी के सवाल को प्रियंका वाड्रा सहित किसी विपक्षी नेता की झोली में जाने से रोकने के लिए बेशक उन्हें किसी भी तरह के हथकंडे अपनाने पड़े हों, उन्होंने उसे मज़बूती से अपने हाथ में थामे रखा और देश भर में अपनी 'ख्याति' अर्जित की। 'प्रवासी श्रमिक आयोग' की घोषणा और 'सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) से तालमेल के नारों के साथ उन्होंने 2022 के विधानसभा चुनावों का आग़ाज़ कर दिया। आलाकमान की नज़रों में उनके 'गुड बॉय' का ग्राफ़ और भी गहरा गया। आकाओं के कान में उन्होंने 'डोंट वरी' वाली मुद्रा में धीरे से यह बात 'फुसफुसा' दी कि अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी को खुला खेल खेलने के लिए उन्होंने पूरे सूबे को फ़र्रुख़ाबाद में बदल दिया है। आलकमान भी 'बी हैप्पी' वाले मूड में आ गया। प्रधानमंत्री ने यूपी के लिए 'सवा रुपए के प्रसाद' की तर्ज़ पर सवा करोड़ नौकरियों की घोषणा कर दी।
मुख्यमंत्री के लिए यहाँ तक सब कुछ 'गुडी-गुडी' था तभी न जाने कहाँ से क़िस्मत का मारा 'विकास दुबे बम' फूट पड़ा और उनके सारे हसीं सपने चिंदी-चिंदी बिखर गए।
वरिष्ठ राजनीतिक विज्ञान शास्त्री प्रो. हरीश एच के सिंह विकास दुबे रूपी इस बम को ‘टिप ऑफ़ द आइसबर्ग’ कह कर बुलाते हैं। उनका कहना है कि ‘इसके टाइम क्लॉक को चालू हुए 30 साल से भी ज़्यादा हो गए थे। यह अकेली टाइम क्लॉक नहीं है। आने वाले दिनों में और भी घड़ियों के पीरियड पूरे होंगे, अभी और भी बम फटेंगे। बहुत सा बर्फ है जिसका अभी पिघलना बाक़ी है।’
सचमुच अपराध की दुनिया में विकास का जन्म आज नहीं हुआ। 19 साल पहले उसने पुलिस थाने के भीतर बीजेपी के राज्यमंत्री (समकक्ष) संतोष शुक्ल को गोलियों से छलनी कर डाला था। यह राजनाथ सिंह का मुख्यमंत्रित्व काल था। कानपुर-उन्नाव अंचल में नए 'दबंग' ब्राह्मण नेता के रूप में विकास अपना विकास करने में मशगूल था। वह बीजेपी में शामिल होने की जुगत तलाश रहा था और संतोष शुक्ल उसे भाव नहीं देते थे। कानपुर देहात में एक बड़े भूमि पट्टे पर उसने क़ब्ज़ा कर लिया था। उसने भूमि के इस टुकड़े को अपनी पत्नी ऋचा के नाम से दाखिल-खारिज करवा लिया।
संतोष शुक्ल ने उससे ज़मीन में अपने हिस्से की मांग की और इसके इंकार करने पर उन्होंने एडीएम राजस्व, कानपुर (देहात) से कहकर उस भूमि के पट्टे को अपने नाम करवा लिया था। इसके बाद संतोष शुक्ल ने उसके ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत की। जिस हफ्ते उनके गुर्गों ने उक्त भूमि पर अपना क़ब्ज़ा जमाया उसी हफ्ते इसने संतोष शुक्ल को थाने में गोली मार दी।
ताज्जुब की बात यह है कि जिस समय वह थाने में फ़ायरिंग कर रहा था, थानेदार थाना छोड़कर भाग गया था। बताते हैं कि विकास ने उसी विवादास्पद भूमि को बेच कर उससे प्राप्त आय को थाने के स्टाफ़ में बाँट दिया था जिसका नतीजा यह हुआ कि जो 5 सब इंस्पेक्टर और 25 कांस्टेबल वारदात के समय थाने में मौजूद थे, उन्होंने घटना में उसकी मौजूदगी से साफ़ इंकार कर दिया था। अपने फ़ैसले में जज ने विकास को बरी करते हुए केस के जाँच अधिकारी के विरुद्ध 'वादामाफी' का चार्ज लगाते हुए कठोर विभागीय कार्रवाई का आदेश पारित किया था। फ़ैसला आते-आते मायावती सत्ता में आ चुकी थीं। न तो जाँच अधिकारी या अन्य किसी पुलिस वाले के विरुद्ध किसी प्रकार की कोई विभागीय कार्रवाई हुई, न अभियोजन प्रमुख होने के नाते ज़िलाधिकारी ने उक्त फ़ैसले के विरुद्ध उच्च न्यायलय में अपील की कोई कोशिश की। विकास तब स्वयं भी बीएसपी टिकट पर ज़िला परिषद का निर्वाचित सदस्य था। उसने राजनीति और अपराध की गुत्थी सुलझा ली थी।
बीते 15 सालों में वह बेशुमार ज़मीने हड़पता गया, सामने आने वाले हर शख्स को ठिकाने लगाता गया। अपहरण की दुनिया में भी उसका सितारा बुलंदी पर जा पहुँचा था और कहीं कोई टोकने वाला नहीं था। क्या यह सब 'बाई चांस' हो रहा था? तो क्या यह भी 'बाई चांस' हो रहा था कि 60 जघन्य अपराधों को कर गुजरने के बावजूद घटना वाले दिन तक उसका नाम ज़िले के 'टॉप 10' अपराधियों की लिस्ट में शामिल नहीं हो सका? क्या यह भी 'बाई चांस था कि इतने बड़े कांड की जाँच उसी अनंत देव नामक डीआईजी (एसटीएफ़) के हवाले कर दी गई जो अभी प्रमोशन मिलने से जुम्मा-जुम्मा 4 दिन पहले तक उसी ज़िले का एसएसपी था और मृत डीएसपी अपने उसी बॉस से विकास और एसओ चौबेपुर के ख़िलाफ़ एक्शन की गुहार लगा रहा था और बॉस गूंगी गुड़िया बना बैठा था।
अब जब इतना सब कुछ 'बाई चांस' हो चुका था तब तो नए एसएसपी नवीन कुमार के साथ यह बाई चांस' हो ही गया होगा कि ज्वाइन करने के 2 सप्ताह गुज़र जाने के बावजूद वह ज़िले के बदमाशों को (जिसमें विकास भी शामिल है) 'आइडेंटिफाई नहीं कर पाए हों, जैसा कि उन्होंने मंगलवार को पत्रकारों के समक्ष स्वीकार किया है।
पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी इस बात पर चिंतित हैं कि कतिपय अफ़सरों के नाम मीडिया 'घसीट' रहा है लेकिन साथ ही वे पत्रकारों से दबी ज़बान से यह शिकायत भी कर रहे हैं कि अधिकारियों ने जो भी किया वह जिस काबीना मंत्री के दबाव में किया, मीडिया उस मंत्री पर तीर क्यों नहीं चलाता। बताया जाता है कि मध्य उप्र में माइनिंग और दूसरे अपराधों में शामिल उक्त मंत्री योगी कैबिनेट का सबसे मालदार मंत्री है।
इस बीच पुलिस महकमे में अमर दुबे के मारे जाने पर कुछ खुशी का माहौल था। अमर उन 18 शूटरों में शामिल था, जिन्होंने 3 जुलाई की रात पुलिस वालों की नृशंस हत्या की थी। पुलिस के सूत्र बताते हैं कि देर रात फरीदाबाद में भी एक होटल में छापा मार कर एक अभियुक्त को हिरासत में लिया गया है। इससे पूछताछ की जा रही है। इसके साथ के 2 लोग भागने में सफल हो गए।
बताते हैं कि बुधवार को तड़के जब स्वयं डीजीपी ने उन्हें फ़ोन करके विकास के साथी अमर दुबे के मारे जाने की सूचना दी तो मुख्यमंत्री ने उलट कर कहा- ‘वह तो ठीक है पर मुझे विकास की सूचना चाहिए।’ मुख्यमंत्री किसी भी क़ीमत पर विकास दुबे को चाहते हैं। पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार सीएम ने सभी ज़िलों के कप्तानों से साफ़-साफ़ कह दिया है कि वह अगर कहीं और किसी कोर्ट में सरेंडर करने में कामयाब हो गया तो उसकी कप्तानी गयी। नतीजा यह है कि पूरे प्रदेश में न्यायालययों के चारों ओर ज़बरदस्त पहरे बैठा दिए गए हैं।
अपनी राय बतायें