राम भक्ति में लीन राजनेताओं में अब नया नाम है कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा का। प्रियंका गांधी वाड्रा ने मंगलवार को ट्वीट कर कहा है, ‘सरलता, साहस, संयम, त्याग, वचनबद्धता, दीनबंधु राम नाम का सार है। राम सबमें हैं, राम सबके साथ हैं। भगवान राम और माता सीता के संदेश और उनकी कृपा के साथ रामलला के मंदिर के भूमिपूजन का कार्यक्रम राष्ट्रीय एकता, बंधुत्व और सांस्कृतिक समागम का अवसर बने।’
राम को लेकर अब राजनीति तेज हो गई है और हर कोई अपनी हिस्सेदारी और मालिकाना हक साबित करने में लगा है। राजनीति में अब राम सबके हो गए हैं। सिर्फ़ बीजेपी राम पर अपना एकाधिकार नहीं बता सकती।
बयान पर हैरानी
राम जन्मभूमि पर भूमि पूजन से पहले प्रियंका गांधी ने बयान जारी करके कहा है कि राम सबके हैं। उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त से लेकर निराला तक को याद किया है। प्रियंका ने कहा है कि कबीर, रैदास, तुलसी, कम्बन, सुग्रीव, शबरी, वाल्मीकि और वारिस अली शाह तक, राम सबके हैं। राम तो हमेशा ही सबके रहे हैं लेकिन कांग्रेस को अचानक इस तत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई है, इस पर हैरानी होने लगी है।
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन का वक्त जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, कांग्रेस में राम भक्ति ज़ोर मारती दिखाई देने लगी है। यूपीए सरकार के वक्त राम को काल्पनिक चरित्र मानने वाली कांग्रेस के नेताओं में इस वक्त लगता है कि राम भक्त होने की कोई प्रतियोगिता चल रही है।
और अगर यह सच है तो फिर कांग्रेस सार्वजनिक तौर पर राम मंदिर आंदोलन में अपनी भूमिका का श्रेय लेने को तैयार क्यों नहीं है? क्यों सार्वजनिक तौर पर वह यह स्वीकार नहीं करती कि बाबरी मसजिद को गिराए जाने और फिर वहां अस्थायी मंदिर बनाने का काम सिर्फ नरसिंह राव की वजह से मुमकिन हो पाया?
कांग्रेस इस बात का दावा जोर-शोर से क्यों नहीं करती कि राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए 1986 में अयोध्या में राम जन्मभूमि का ताला खुलवाया था?
नवम्बर, 1989 में एक समझौते के तहत शिलान्यास भी राजीव गांधी सरकार ने करवाया था और फिर 1989 के आम चुनावों में राम राज्य के चुनावी वादे के साथ राजीव गांधी ने अयोध्या से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की थी? यूं तो कांग्रेस इस बात का दावा भी कर सकती है कि 1949 में जब वहां मूर्तियां रखी गईं थीं, तब भी केन्द्र और उत्तर प्रदेश दोनों जगह कांग्रेस की सरकारें थीं।
सवाल है कि कांग्रेस में कोई कन्फ्यूजन का दौर है या फिर पार्टी इस मसले पर बंटी हुई है और डूबती नैया को बचाने के लिए राम का सहारा लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं दिख रहा है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने सबसे पहले कहा कि केन्द्र सरकार को भूमि पूजन के कार्यक्रम में सभी बड़े राजनीतिक दलों के नेताओं को बुलाना चाहिए। अब तक सेक्युलरिज़्म की राजनीति करने वाले मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भूमि पूजन के मुहुर्त को लेकर सवाल उठाए।
यूपीए सरकार के वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एलान किया था कि देश के सरकारी संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है लेकिन अब कांग्रेस में अल्पसंख्यकों का कोई नामलेवा तक नहीं दिख रहा।
राजीव का राम प्रेम
वैसे, यह सच है कि राम जन्मभूमि आंदोलन के इतिहास को देखा जाए तो हर अहम पड़ाव पर कांग्रेस की सक्रिय भूमिका रही है, लेकिन वो उसे नकारती भी रही है। राजीव गांधी ने साल 1989 में अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत फैज़ाबाद (अब अयोध्या) से करते हुए कहा, "यह राम की भूमि है और अगर आप राम राज्य लाना चाहते हैं तो कांग्रेस को वोट दीजिए।" दूसरी तरफ, मुसलमानों को लुभाने के लिए उर्दू को राजकीय भाषा का दर्जा देने के लिए बिल लाने की बात कही गई, लेकिन चुनाव में कांग्रेस के कुछ काम नहीं आया।
तब बीजेपी को बड़ा फायदा हुआ था और 1984 के चुनाव में सिर्फ़ दो सीटों पर रह जाने वाली बीजेपी को 88 सीटें मिली थी।
जमीन को लेकर विवाद
ये उस समय की बात है, जब राम जन्मभूमि ट्रस्ट के कार्यकारी अध्यक्ष रामचंद्र परमहंस ने एलान कर दिया था कि विश्व हिंदू परिषद ने जिस जगह को शिलान्यास स्थल घोषित किया है, उसे बदला नहीं जाएगा। उनका मानना था कि जमीन विवादित कैसे हो सकती है। उन्होंने इस जमीन की ट्रस्ट के नाम पर पक्की रजिस्ट्री कराई है। अगर सरकार इसे नजूल की जमीन मानती भी है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी सरकार की है।
दूसरी तरफ, राज्य सरकार चाहती थी कि शिलान्यास तो हो पर जगह बदल दी जाए। सरकार ने परिषद को बगल की खाली जमीन दिलाने का प्रस्ताव रखा। परिषद ने इसे सिरे से खारिज कर दिया और देवरहा बाबा से संपर्क कर उनसे दखल देने को कहा।
प्रधानमंत्री राजीव गांधी और विश्व हिंदू परिषद के बीच शिलान्यास को लेकर देवरहा बाबा ही मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। यहीं से शिलान्यास में देवरहा बाबा का रोल शुरू हुआ।
राजीव गांधी 6 नवंबर को वृंदावन में बाबा से मिलने गए। बाबा ने कहा, मंदिर बनना चाहिए। आप शिलान्यास करवाएं और शिलान्यास की जगह बदली न जाए। कहते हैं कि उसी वक्त से राजीव शिलान्यास के लिए तैयार हुए। दूसरे दिन बाबा ने विश्व हिन्दू परिषद के नेता श्रीशचंद्र दीक्षित को बुलाया। उनसे कहा आप निश्चिंत रहें, हमने प्रधानमंत्री से उसी जगह पर शिलान्यास करने को कहा है, जहां आप लोगों ने झंडा गाड़ा है। यानी शिलान्यास का फैसला लखनऊ-दिल्ली में नहीं बल्कि वृंदावन में हुआ था।
तिवारी नहीं थे राजी
इस बीच हाईकोर्ट के आदेश और देवरहा बाबा के निर्देश के बीच सरकार फंस गई थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 8 नवंबर को गृहमंत्री बूटा सिंह को लखनऊ भेजा। शिलान्यास पर प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी में सहमति नहीं बन पा रही थी।
6 नवंबर को हाईकोर्ट के शिलान्यास पर रोक के बाद राजीव गांधी चाहते थे कि राज्य सरकार हाईकोर्ट से साफ कहे कि शिलान्यास वाली जगह विवादित नहीं है मगर तिवारी इसके लिए राजी नहीं थे।
चव्हाण और शरद पवार
आरएसएस से जुड़े रहे पत्रकार दिलीप देवधर बताते हैं कि नरसिंह राव सरकार के वक्त शंकर राव चव्हाण गृहमंत्री थे और शरद पवार रक्षा मंत्री। विश्व हिन्दू परिषद के मोरोपंत पिंगले के चव्हाण और पवार दोनों से ही अच्छे रिश्ते थे। मंदिर आंदोलन में कांग्रेस के इन दोनों नेताओं की भूमिका भी रही।
देवधर बताते हैं कि जब चव्हाण गृहमंत्री के तौर पर अयोध्या गए तो उन्होंने पूछा कि बाबरी मसजिद कहां हैं? तो लोगों ने उस ढांचे के लिए कहा कि यही बाबरी मसजिद है तो चव्हाण ने कहा कि यह तो मसजिद जैसी लगती ही नहीं। देवधर की बात मानें तो चव्हाण की पत्नी ने उन्हें जोर देकर कहा था कि जब आप अयोध्या जाएं तो राम जन्मभूमि का प्रसाद अवश्य लाइए और चव्हाण प्रसाद लेकर गए भी।
सुबोधकांत सहाय की भूमिका
चंद्रशेखर सरकार गिरने के बाद जब केंद्र में नरसिंह राव के नेतृत्व में सरकार बनी, उस वक्त सुबोधकांत सहाय कांग्रेस पार्टी के सदस्य नहीं थे। लेकिन एक दिन प्रधानमंत्री राव का फ़ोन उनके पास आया कि क्या आप मध्यस्थता की प्रक्रिया फिर शुरू करने में सहयोग करेंगे? सुबोधकांत ने उनकी बात को स्वीकारते हुए फिर से प्रक्रिया शुरू कर दी।
इसमें कांग्रेस से शरद पवार, चिमनभाई पटेल, बीजेपी से भैरोंसिंह शेखावत, राज माता सिंधिया, शाही इमाम, हिंदू संगठनों के नेता और दूसरे संबंधित पक्ष शामिल हुए। इन बैठकों का सबसे अहम फायदा यह हुआ कि उस समय देश में जो धार्मिक उन्माद फैल रहा था, उसे थोड़ा ठंडा किया जा सका।
6 दिसंबर को कारसेवा का एलान
2 अक्टूबर, 1992, शाम के तीन बजे होंगे। दिल्ली के लुटियंस इलाके में बने शानदार विज्ञान भवन में बाबरी-मसजिद और राम जन्मभूमि विवाद को लेकर अहम बैठक चल रही थी। बैठक में मंदिर विवाद से जुड़े सभी पक्षों के लोग और मुख्यमंत्री समेत कई बड़े अफ़सर और राजनेता शामिल थे। बैठक में मौजूद केन्द्र सरकार के नुमाइंदे को लग रहा था कि हम किसी ठोस फैसले पर पहुंच जाएंगे। लेकिन एक खबर ने सब कुछ बदल दिया। जब पता चला कि पास में ही स्थित रामलीला मैदान में हो रही बैठक में हिंदू संगठनों ने 6 दिसंबर को अयोध्या में कारसेवा करने का एलान कर दिया है।
बैठक में मौजूद लोगों ने कहा कि अब क्या फायदा? यहां हम समझौते का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं, उधर, एकतरफा एलान किया जा रहा है। इसके बाद 9 नवंबर को एक औपचारिक बैठक की, जिसमें यह तय हुआ कि संबंधित पक्ष अपनी राय लिखित में देंगे। उसे बाद में गृह मंत्रालय को सौंप दिया गया।
बात प्रियंका के बयान से ही खत्म करते हैं कि उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक रामकथा अनेक रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त करती चली आ रही है। हरि के अनगिनत रूपों की तरह ही रामकथा हरिकथा अनंता है।
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