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एनआरसी: ‘बँटवारे के बाद की होने जा रही है सबसे बड़ी ट्रेजेडी’

यह सब कुछ मैं किनके लिए लिख रहा हूँ? किनके लिए ख़बरनवीस उन लोगों की कहानी लिख रहे हैं जो ख़ुद को भारत के लोग साबित करने में शहीद हो गए? किनके लिए उस सौ साल के बुजुर्गवार की सदी की झुर्रियोंवाली तसवीर छापी जा रही है? यह सब कुछ शायद इस उम्मीद में कि इस भारत में एक हमदर्द दिल कहीं धड़कता होगा।
अपूर्वानंद

19,06,657। अख़बार के पहले पन्ने पर सुर्खी के तौर पर यह संख्या नाटकीय लगती है। इसकी कल्पना करते वक़्त और इसे लगाते हुए क्या संपादकों ने एक चुस्त शीर्षक चुनने पर एक-दूसरे की पीठ ठोंकी होगी या एक खामोश आह भरी होगी? यह संख्या कैसे हासिल हुई और इसके क्या मायने हैं? गणित का सवाल होगा, कितने में कितना घटाने से यह 19,06,657 की संख्या मिलेगी?

जवाब तो ऐसे सवाल के कई हो सकते हैं। आप कोशिश करके देखें! लेकिन सवाल गणित का नहीं, राजनीति का है। इसलिए जवाब एक ही है। 19,06,657 प्राप्त करने के लिए 3,30,27,661 से 3,11,21,004 को ही घटाना पड़ेगा। पहली संख्या है आवेदकों की और दूसरी उनकी जिनको भारत नामक राज्य के आधिकारिक प्रतिनिधि ने प्रामाणिक भारतीय माना है। ख़ुद नहीं, उच्चतम न्यायालय की निगरानी में।

गणितीय उत्तर तो बिलकुल ठीक है, लेकिन ऐसा क्यों है कि सालों की मशक्कत के बाद इस नतीजे के आने पर कोई ख़ुश नहीं है? क्योंकि इसका रिश्ता एक शैतानी इच्छा से है। वह इच्छा है दूसरों को उस अधिकार से वंचित करने की जो हमें अपना प्राकृतिक अधिकार लगता है। भारत की नागरिकता का। अधिक सटीक होगा, असम की नागरिकता का।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

जो इस अधिकार से उन्हें अलग करना चाहते हैं, जिन्हें वे बाहरी या घुसपैठिया या आक्रमणकारी कहते हैं उन्हें यह संख्या बहुत कम लग रही है। जो एक ख़ास तरह के लोगों को बाहरी ठहराना चाहते थे, उन्हें यह संख्या इसलिए खल रही है कि एक तो यह कम है, दूसरे एकरंगी नहीं है! यह उनकी संख्या है जो साबित नहीं कर पाए कि वे भारतीय नागरिक हैं। लेकिन इनमें हिंदू भी हैं, मुसलमान भी। आख़िर हिंदू कैसे अभारतीय हो सकते हैं? लेकिन अगर यह संख्या सिर्फ़ मुसलमानों की होती तो भी उन्हें ऐतराज़ बना रहता। क्योंकि तब सवाल यह होता कि इतनी कम क्यों है! अगर असम के सारे मुसलमान इस संख्या में शामिल होते तो इसका कुछ मतलब था। यह मलाल जिनको है वे भारतीय जनता पार्टी के लोग हैं।

भारतीय जनता पार्टी संख्या बढ़ाना चाहती है लेकिन उसे सिर्फ़ मुसलमान संख्या में बदलना चाहती है। अभी सब गड्डमड्ड हो गया है। बीजेपी इसमें से हिंदू संख्या हटा कर इसे शुद्ध आक्रमणकारी संख्या में बदलना चाहती है। वह कैसे होगा?

एक और क़िस्म के लोग हैं, जिन्हें संख्या से निराशा है। उनका कहना है कि इसे कम से कम 40,00,000 तो होना ही था। यही थी न वह संख्या जो पिछले साल बताई गई थी जिसकी फिर से जाँच कराई गई। जाँच पर यह घट गई!

संतोष असमी राष्ट्रवादियों को नहीं है और भारतीय राष्ट्रवादियों का दुःख भी बना हुआ है। असम में इसके बाद भी बांग्ला बोलनेवाले बचे रह जाएँगे। उन्हें हटाकर शुद्ध असमी जाति बनाने का काम तो बचा ही रह गया।

ये दोनों दुखी सूची की फिर से जाँच की माँग कर रहे हैं ताकि संख्या उतनी और वैसे ही क़िस्म की लोगों की बढ़ जाए जैसा ये चाहते हैं।

लेकिन यह जो संख्या है, वह उतने ही इंसानी चेहरों की है, उतने ही इंसानी दिलों की, वे दिल जो अभी ठुकराए और बेगाना कर दिए जाने के दर्द से ऐंठ रहे हैं।

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‘बँटवारे के बाद की सबसे बड़ी ट्रेजेडी’

‘मेरा नाम तो एनआरसी में है लेकिन मेरे चाचाओं के परिवार के लोगों के नाम उसमें नहीं हैं… यह बँटवारे के बाद की सबसे बड़ी ट्रेजेडी होने जा रही है।’

यह जिस युवक ने लिखा मुझे, वह आईआईटी दिल्ली में शोधार्थी है। मुसलमान नहीं है। आगे भी पढ़िए, ‘मेरे चाचा लोग बिलकुल हतप्रभ हैं। उनके पिता मेरे दादा के छोटे भाई थे। उन्होंने उस वक़्त, नवंबर 1951 में  असम में पड़नेवाले कोहिमा में डाक विभाग की नौकरी पकड़ी थी। वे मई, 2005 में गुज़र गए। उनके परिवार को यह हैरानी झेलनी पड़ रही है। यह है जो वास्तविक नागरिक झेलने को मजबूर हैं।’

वह युवक आगे लिखता है, ‘कुछ मूर्ख समूह दुबारा जाँच की माँग कर रहे हैं क्योंकि वे यह समझ रहे हैं कि बहुत सारे अवैध घुसपैठिए एनआरसी में शामिल हो गए हैं। मामूली अक्लवाला भी देख सकता है कि जब वैध लोगों को यह दिक्कत झेलनी पड़ रही है तो किस अवैध की फ़िक्र वे कर रहे हैं! यह प्रक्रिया इतनी सख़्त और ख़ासकर ग़रीबों के ख़िलाफ़ थी जिसका मक़सद ही था ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बाहर करना, वह भी कुछ विशेष समुदायों के लोगों को।’

जो यह युवक साफ़-साफ़ देख पा रहा है, वह देखने में असम और भारत के भी शीर्ष बुद्धिजीवियों तक को क्यों मुश्किल हो रही है?

असम की बीजेपी इस संख्या के भीतर की हिंदू संख्या को भरोसा दिला रही है, हम हिन्दुओं को शामिल करने के लिए नागरिकता के क़ानून में संशोधन कर रहे हैं, बाहर आख़िरकार सिर्फ़ मुसलमान होंगे! तब तक क्या ये संदिग्ध ठहरा दिए गए हिंदू सब्र कर लेंगे?

लेकिन क्या वे इतना भी नहीं सहेंगे, क्या इतना भी बलिदान नहीं करेंगे ताकि मुसलमानों को बाहर किया जा सके?

यह सब कुछ मैं किनके लिए लिख रहा हूँ? किनके लिए ख़बरनवीस उन लोगों की कहानी लिख रहे हैं जो ख़ुद को भारत के लोग साबित करने में शहीद हो गए? किनके लिए उस सौ साल के बुजुर्गवार की सदी की झुर्रियोंवाली तसवीर छापी जा रही है?

यह सब कुछ शायद इस उम्मीद में कि इस भारत में एक हमदर्द दिल कहीं धड़कता होगा। कहीं वे आँखें बची होंगी जो दूसरी आँखों को नम देखकर नम हो जाती हैं। वे हाथ बचे होंगे जो बेबसी में माथा थामे हाथों को अपनी हथेलियों में बाँध लें!

शायद! शायद!!

या अब कोई उम्मीद नहीं बची? इस संख्या के पीछे छिपे हाहाकार को सुनकर कुछ लोग अट्टहास कर उठे हैं। यह तो शुरुआत है, हम देश के इंच-इंच से घुसपैठियों को बाहर करेंगे! हिंदू चिंता न करें! उनके  हितरक्षक हम जो हैं!!

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पुनर्गठन के महायज्ञ में नागरिकता का मंत्र!

दिल्ली से बाहर करो, तेलंगाना से बाहर करो, बंगाल से बाहर करो, मेघालय से बाहर करो, नागालैंड से बाहर करो!

‘बाहर करो, बाहर करो!’ इस नारे में भारी सुख है, इसका पता भारतीय जनता पार्टी को है। औरों को दूसरा बनाने, उसे मिल्कियत से महरूम करने में जो आनंद है, उसे हिटलर जानता था, स्टालिन भी, मैकार्थी भी और उसे माओ से लेकर शी पिन तक को यह मालूम है। इसीलिए तो इस संख्या में हिन्दुओं के होने के बाद भी माना जा रहा है कि उसको इसका राजनीतिक लाभ होगा। तर्क साफ़ है: अभी तो यह आरंभ है। बीजेपी के होने पर भी इतने मुसलमान रह गए है! अगर वह नहीं रही तो जाने क्या क्या होगा! इसलिए अगर घुसपैठियों को पहचानने और इस बाहर करने की इस मुहिम को नतीजे तक पहुँचाना है और हिंदू हित सुरक्षित रखना है तो इसी पार्टी को सत्ता में रखना होगा! क्या हुआ जो हममें से कुछ को अस्थाई तकलीफ़ उठानी पड़ रही है।

यह भारत के पुनर्गठन का महायज्ञ है। इसमें नागरिकता का मंत्र ही काम आ सकता है।

वे सब जो 19,06,657 में एक हैं, उन्हें हो सकता है यह मज़ाक लगे, कुछ देर का, जैसा महमूद दरवेश ने लिखा है, ‘तुम्हें लगता है कि यह मज़ाक है और तुम भागते हो अपने वकील को कहने को, ‘मैं न नागरिक हूँ, न यहाँ का निवासी! फिर कहाँ और क्या हूँ मैं?’ तुम्हें जानकार ताज्जुब होगा कि क़ानून उनकी तरफ़ है और तुम्हें साबित करना होगा कि तुम्हारा वजूद है। तुम गृह मंत्रालय से पूछते हो, ‘मैं यहाँ हूँ, या मैं अनुपस्थित हूँ? मुझे कोई दर्शन का विशेषज्ञ दो ताकि मैं साबित कर सकूँ कि मैं हूँ!’

तब तुम्हें समझ में आता है कि दार्शनिक तौर पर तुम्हारा अस्तित्व है लेकिन क़ानूनी तौर पर तुम नहीं हो!’

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