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दिल्ली के शाहीन बाग़ में नागरिकता क़ानून, एनआरसी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन।फ़ाइल फ़ोटो

नागरिकता क़ानून-एनआरसी पर प्रदर्शन में कौन ढूंढ रहा है हिंदू-मुसलमान?

नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन को हिंदू-मुसलमान के नज़रिए से क्यों देखा जा रहा है? यह सलाह दी जा रही है कि प्रतिरोध का रूप धर्मनिरपेक्ष दीखना चाहिए। तिरंगे, जन गण मन और संविधान के साथ भारत भर में सड़कों पर उठी इस लहर की आत्मा तो धर्मनिरपेक्ष है ही, लेकिन इसे नाकाफ़ी कहा जा रहा है। फिर क्या किया जाए? मुसलमान मुसलमान दीखना कैसे बंद कर दें?
अपूर्वानंद

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर हुए हमले से पैदा हुई राष्ट्रीय उत्तेजना और विक्षोभ ने कुछ समय के लिए नागरिकता संबंधी क़ानून और नागरिकता के लिए पंजीकरण के ख़िलाफ़ चल रहे राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध की ओर से ध्यान हटा दिया है। याद रखना ज़रूरी है कि यह प्रतिरोध अभी चल रहा है। कोलकाता जैसा बड़ा शहर हो या मालेगाँव या गया या कोच्चि, लोग अलग-अलग ढंग से इस प्रतिरोध को जारी रखे हुए हैं। जेएनयू पर हुए हुए हमले ने दिलचस्प एकजुटता भी पैदा की है। जामा मसजिद की सीढ़ियों पर जेएनयू के लिए आवाज़ उठाने हज़ारों स्त्रियाँ जमा हुईं। शाहीन बाग़ में भी यह एकजुटता व्यक्त हुई।

यह ठीक है कि इस देश व्यापी उभार में उत्साह है। हज़ारों और कुछ जगह लाख-लाख की तादाद में उमड़ी जनता की छवियाँ उम्मीद जगाती हैं। इसके बाद एक बड़ा लेकिन है। क्या इस विक्षोभ को जन आंदोलन कहा जा सकता है?

जो सड़क पर हैं, वे भारत के जन ही हैं। फिर भी देखा जा सकता है कि इसमें भारत के एक तबक़े को शामिल होने में अभी भी संकोच है। जो इस जन उभार से कटा-कटा है, वह हिंदू समाज है। बंगाल और केरल को अपवाद माना जाना चाहिए। असम तो सबसे अलग है। वहाँ के आंदोलन को बाहरी विरोधी बताया जा रहा है लेकिन यह सच है कि बंगाली मुसलमान जो असमिया भाषी भी हैं, अपनी जगह के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। क्या बंगाली हिंदू को इस नये क़ानून से उसकी तरह की असुरक्षा है?

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

जो असम के मुसलमान महसूस कर रहे हैं, वह और तीव्रता से दूसरे इलाक़ों के मुसलमान अनुभव कर रहे हैं। क़ानून का प्रतीकात्मक अर्थ उन तक पहुँच गया है।

इसलिए इस पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि वे एक तड़प के साथ सड़क पर निकल पड़े हैं। उन्होंने किसी नेता, किसी दल का इंतज़ार नहीं किया है। यह विडंबना ही है कि मुसलमान परस्त माने जाने वाले दल फूँक-फूँक कर क़दम उठा रहे हैं। वे ख़ुद तो नेतृत्वकर्ता नहीं ही हैं, इस प्रतिरोध के प्रति उनका समर्थन सांकेतिक ही रहा है। इस वजह से यह प्रमुख रूप से मुसलमानों का आंदोलन बने रहने को बाध्य है।

उन्होंने भारतीय नागरिकता की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद को बदलने की इस कोशिश का विरोध अपने बल पर करना ठाना है। लेकिन वे आशापूर्वक अपने हिंदू पड़ोसियों की तरफ़ देख रहे हैं कि क्या वे साथ आएँगे।

अब तक इसका उत्साह पूर्ण उत्तर नहीं मिला है। मज़ा यह है कि इसके साथ यह सलाह दी जा रही है कि प्रतिरोध का रूप धर्मनिरपेक्ष दीखना चाहिए। तिरंगे, जन गण मन और संविधान के साथ भारत भर में सड़कों पर उठी इस लहर की आत्मा तो धर्मनिरपेक्ष है ही, लेकिन इसे नाकाफ़ी कहा जा रहा है।

फिर क्या किया जाए? मुसलमान मुसलमान दीखना कैसे बंद कर दें?

एक मित्र ने कहा कि बिना टोपी, दाढ़ी और हिजाब के मुसलमान को सुनना पड़ता है कि वह आम मुसलमान नहीं प्रतीत होते और इनके साथ वे स्वतः ही पिछड़े और संकीर्ण ज़िद्दी बताए जाते हैं।

इनके साथ होने पर कई हिंदुओं में उनके ख़िलाफ़ वैसी ही हिंसा उभरती है जैसी यूरोप में किप्पा के साथ यहूदी को देखकर।

क्यों यह हुआ कि हिंदू न तो मुसलमानों को, न ही ईसाइयों को, न आदिवासियों को अपने क़रीब और बराबर महसूस कर सके? कहा तो यह भी जा सकता है कि सवर्ण उन दलितों को भी कब अपना हिस्सा मानते रहे जिन्हें आज हिंदू समाज के विस्तार के लिहाज़ से उपयोगी माना जा रहा है?

क्यों वे हमेशा उन्हें बाहरी, अतिरिक्त मानते रहे?

यह सवाल दिनकर ने अपनी किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में उठाया है कि कैसे हिंदुओं ने मुसलमानों से छूत बरती है। प्रेमचंद ने भी हिंदुओं में उदारता की कमी की शिकायत की है।

भारत के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे विरोध-प्रदर्शन के पर्यवेक्षकों का कहना है कि इनका मुसलमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के लिए मुफ़ीद है। इससे हिंदुओं में इनके ख़िलाफ़ विद्वेष भरना और बढ़ना आसान होगा और बीजेपी का राजनीतिक हिंदू आधार और मज़बूत होगा। अगर यह सच है तो यह हिंदू समाज के ख़िलाफ़ बहुत तीखी टिप्पणी है। उसे कुछ प्रश्न ख़ुद से करने की ज़रूरत है। मसलन, तीन तलाक़ संबंधी क़ानून से वह क्यों ख़ुश हुआ? क्या वह मुसलमान औरत के भले के लिए चिंतित था? वह क्यों अनुच्छेद 370 के बेमानी बना दिए जाने से प्रसन्न हुआ? क्या वह कश्मीर को सचमुच अपनाना चाहता था?

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मुसलमान औरतों की सुरक्षा की चिंता किसे!

जो तीन तलाक़ संबंधी क़ानून को मुसलमान औरत की सुरक्षा के लिए ज़रूरी मानते हैं, वे ही दलितों के ख़िलाफ़ उत्पीड़नवाले क़ानून को ज़्यादती मानते हैं? उन्हीं ने पिछले दिनों इस क़ानून को शिथिल किए जाने पर दलितों के आंदोलन पर हर जगह हमला किया। लेकिन जो दलित समाज उस क़ानून में छिपी प्रतीकात्मकता से आहत हुआ, वह अभी मुसलमानों के अपमान से संवेदित नहीं हो पाया है।

जातिभेद मुसलमानों में भी है जैसे जेंडर आधारित पूर्वग्रह और हिंसा। लेकिन अभी नागरिकता संबंधी सरकारी क़दम हर तरह के मुसलमान को निशाना बनाता है। इसलिए इस वक़्त इस क़ानून का विरोध करने में ये सवाल प्रासंगिक नहीं हैं। इस बात को नोट किया गया है कि इस आंदोलन में मुसलमान औरतें बड़ी संख्या में आगे आई हैं। जो उनकी परदापोशी से चिंतित थे, उन्हें तो कम से कम इसी के लिए इसका स्वागत करना चाहिए। या, वे यह कहेंगे कि उन्हें मुसलमान मर्दों ने ग़लत ढंग से भ्रमित करके आगे किया है?

लम्बे अरसे के बाद मुसलमान अकुंठित भाव से ख़ुद को व्यक्त कर रहा है। एक तरह से उसके बंधन खुल गए हैं।

यह उन चुटकुलों और मज़ाक़िया पोस्टरों से ज़ाहिर है जो वे अभी बना रहे हैं। बानगी लीजिए, “जो मुसलमान एक दावत नहीं छोड़ता, वह भला मुल्क छोड़ेगा?” या “जो भला नल्ली का गुद्दा नहीं छोड़ता, वह मुल्क छोड़ेगा?” या, “अब्बा के काग़ज़ को बकरी खा गई, बकरी तो अब्बा खा गए, काग़ज़ कहाँ से लाऊँ?”

इनमें वह उस मांसाहार की चर्चा भी निर्द्वंद्व भाव से कर रहा या रही है जिसके कारण उसे हिंसक ठहराया जाता है। मुसलमानियत को लेकर या उसके चिह्नों को लेकर कोई क्षमाभाव उसमें नहीं है। यह एक प्रकार से उन्हें चुनौती या आमंत्रण है कि वे उससे, जैसा है, उसी रूप में रिश्ता बनाएँ। वे आपके आग्रहों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालें, यह उन्हें मंज़ूर नहीं।

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यह सब किस ओर जाएगा? क्या यह सरकार को हिला पाएगा? मुसलमान इतने भी भोले नहीं कि उन्हें न पता हो कि यह आख़िरकार संख्या का मामला है। और संख्या उनकी अधिक रहनी ही है जो ख़ुद को किसी न किसी रूप में हिंदू मानते हैं। फिर भी अगर वे अपनी आवाज़ के साथ मैदान में हैं, तो उसकी ईमानदारी पर यक़ीन किया ही जाना चाहिए। यह किसी के ख़िलाफ़ नहीं है। यह अपने किसी अलग अधिकार या कोने की माँग भी नहीं है। यह धरती के इस टुकड़े पर, जिसे उन्हीं के पूर्वजों ने हिंदुस्तान या प्यार और ऐहतराम से सर ज़मीने हिंद कहकर पुकारा, बाक़ी सबके साथ बराबर की सतह पर रहने की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है। यह प्रतियोगिता नहीं, सहकार और साझेदारी, दोस्ती का प्रस्ताव है। इसे न सुनना संकीर्णता है।
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