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जेएनयू में जनतंत्र, संस्कृति-सभ्यता के स्तंभ ढहते हुए दीखे

तेज़ाब, लाठी, लोहे की रॉड के साथ आराम से जेएनयू के हर होस्टल में घुस कर निहत्थे छात्रों और अध्यापकों पर हमला किया गया। तीन घंटे तक। क्या विश्वविद्यालय प्रशासन, पुलिस, केन्द्रीय सरकार की शह के बिना यह संभव है? जो भी हो, इसके बाद शहर जेएनयू के साथ खड़ा हो गया। यह कहना होगा कि समाज के लोग हैं जिन्होंने कहा कि बावजूद सारी कोशिश और साज़िश के समाज का अंतःकरण अभी मरा नहीं है।
अपूर्वानंद

इतवार 5 जनवरी की रात स्तम्भ लिखने की नहीं, स्तंभों को ढहते हुए देखने की रात थी। ये स्तम्भ सिर्फ़ भारतीय जनतंत्र के नहीं थे, ये भारतीय संस्कृति या सभ्यता, जिसका अहंकार हमें है, उनके स्तम्भ थे। इतवार की शाम से ही घंटों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में गुंडों ने तांडव किया। तेज़ाब, लाठी, लोहे की रॉड के साथ आराम से हर होस्टल में घुस कर निहत्थे छात्रों पर हमला। अध्यापकों पर हमला। यह विश्वविद्यालय प्रशासन, पुलिस, केन्द्रीय सरकार की शह के बिना न हो सकता था। इस खुली गुंडागर्दी को, गुंडों के खुले हमले को मीडिया दो गुटों में झड़प बताता रहा, उसके बेशरम और बेरहम झूठ के बिना भी यह गुंडागर्दी नहीं हो सकती थी।

यह गुंडागर्दी थी और इसे गुंडागर्दी ही कहा जाना चाहिए। कल जेएनयू को ध्वस्त करने का जो काण्ड किया गया, उसके वर्णन के लिए कोई सभ्य और मुलायम शब्द खोजने की ज़रूरत नहीं। गाँधी ने 1947 में दिल्ली की सड़कों पर जो मुसलमानों पर हमले हो रहे थे, उन्हें हिंदू-मुसलमान के बीच हिंसा नहीं कहा था। उन्होंने उसे सीधे-सीधे गुंडागर्दी कहा था। यह भी कहा था कि सड़क पर यह जो खुली गुंडागर्दी दीख रही है, वह हम जैसे लोगों के, जो सड़क पर ख़ुद ख़ून नहीं बहा रहे, मन में बैठी सूक्ष्म गुंडागर्दी के बिना मुमकिन नहीं था।

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यही कल की जेएनयू की हिंसा के बारे में कहा जा सकता है। इस समाज के लोगों के मन में छिपी, इसके महाजनों के मन में पैठी सूक्ष्म हिंसा के बगैर जेएनयू की हिंसा मुमकिन न थी। 

कल के हिंसा के दृश्य के बारे में सिर्फ़ यही कहा जा सकता था, जो कई नेताओं ने कहा: अविश्वसनीय, अकल्पनीय। यह उत्तर प्रदेश के किसी कस्बे, गाँव में पुलिस की हिंसा न थी, यह कैमरे के सामने खुलेआम, आपराधिक ढिठाई के साथ नाटक जैसे इत्मीमान के साथ की जाने वाली हिंसा थी।

जेएनयू के प्रशासन ने हिंसा को तीन घंटे तक खुली छूट देने के बाद उसे चिंताजनक बताया और पुलिस को बुलाने की बात कही। पुलिस जो तीन घंटे तक खामोश खड़ी थी, कहती रही कि वह कैसे परिसर में घुस सकती है जबतक उसे विश्वविद्यालय प्रशासन न कहे! दिल्ली पुलिस की मालिक, यानी केंद्र सरकार भी तीन घंटे बाद चिंतित हुई।

इन तीन घंटों को याद रखिए। हो सकता है, ये भारतीय जनतंत्र को तोड़ दिए जानेवाले सबसे महत्त्वपूर्ण तीन घंटे साबित हों।

वे सब जो जेएनयू को माओवादियों और जिहादियों की खोह बताते रहे हैं, जो जेएनयू के छात्रों को आतंकवादी ठहराते रहे हैं, वे कल उन्हें निहत्थे हमला झेलते देख रहे थे।

क्या यह हिंसा सिर्फ़ कल की थी। 2016 के जेएनयू के ख़िलाफ़ जो ज़हर समाज में भरा जा रहा है, जिस हिंसा की सुई दी  जा रही है, कल उसी ने अपना काम किया है। इसका इल्जाम भारत सरकार के मंत्रियों तक पर जाता है जिन्होंने जेएनयू के छात्रों का रिश्ता पाकिस्तान में बैठे दहशतगर्दों से जोड़ा था। मीडिया पर जिसने लगातार चार वर्ष तक जेएनयू के ख़िलाफ़ घृणा का निर्ल्लज और मुजरिमाना प्रचार किया है।

क्या सबसे ऊँची अदालत की नींद हराम होगी इन तस्वीरों से? क्या वह विचार करेगी कि अगर उसने पिछले महीने जामिया की हिंसा पर सख़्त रवैया लिया होता तो आज जेएनयू में या उत्तर प्रदेश में सत्ता की हिंसा न होती?

कल की तस्वीरें दहशत पैदा करने के लिए काफ़ी थीं, और इस हिंसा का मक़सद ऐसी ही तस्वीरों को गढ़ने का था। यह हिंसा लोगों में भय बैठाती है, उन्हें यह समझाती है कि वे कभी भी इस हिंसा के निशाने पर हो सकते हैं और तब वे नितांत निरुपाय होंगे। जब योगेंद्र यादव जैसे पहचाने हुए चेहरे को कैमरों के सामने मारा जा रहा था, तो उसका भी सन्देश साफ़ था कि इस हिंसा को हर तरह की और हर तरफ़ से शह है। इन गुंडों को सत्ता ने अभयदान दे रखा है। ख़ून, टूटे, ज़ख़्मी शरीरों की तस्वीरें आतंकित करती हैं और लोगों को जड़ बना देती हैं।

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गुंडों के रहमोकरम पर विश्वविद्यालय!

आम तौर पर हम विश्वविद्यालय को सुरक्षित परिसर मानते रहे हैं। यह मिथ इस सरकार की पुलिस ने पिछले महीने जामिया मिल्लिया इस्लामिया में तोड़ दिया। वहाँ पुलिस वही कर रही थी जो कल नकाबपोश गुंडे जेएनयू में कर रहे थे। जामिया और जेएनयू का सन्देश देश के बाक़ी परिसरों के लिए भी है। वे गुंडों के रहमोकरम पर हैं और उनके सहयोगी प्रशासन से उन्हें कोई उम्मीद न करनी चाहिए।

कौन थे ये गुंडे? क्या ये सत्ताधारी दल से जुड़े थे? क्या ये किसी छात्र संगठन के थे? वे इतने इत्मीमान से निकल कैसे गए? एक भी पकड़ा क्यों न जा सका?

हिंसा के चित्र जितने ही अधिक प्रचारित होते हैं, हिंसक सत्ता की पकड़ लोगों के दिमाग़ों पर उतनी ही सख़्त और पक्की होती जाती है। कन्हैया को भरी अदालत में पिटते देखना, कल जेनेयू छात्र संघ की अध्यक्ष के सर और चेहरे पर ख़ून, यही काम करते हैं, देखनेवालों को वे लाचार बनाना चाहते हैं।

यह कहना होगा लेकिन कि समाज के लोग हैं जिन्होंने कहा कि बावजूद सारी कोशिश और साज़िश के समाज का अंतःकरण अभी मरा नहीं है। हिंसा की ख़बर सुनते ही 25-30 किलोमीटर से, रात और दूरी और ठण्ड की परवाह किए बिना लोग जेएनयू की ओर दौड़े। योगेंद्र यादव ने वह किया जो किसी भी राजनीतिक नेता या व्यक्ति को करना चाहिए। वे हिंसक भीड़ के बीच खड़े हुए और उन्होंने हिंसा का सामना किया। कलाकार, छात्र, नौजवान, वकील, डॉक्टर सब जेएनयू दौड़े। शहर अपने विश्वविद्यालय के साथ खड़ा हुआ।

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जंग में हथियार डालने का सवाल ही नहीं

जो जेएनयू नहीं गए वे पुलिस मुख्यालय के बाहर इकट्ठा हुए। नई साझेदारियों ने काम किया। यह आह्वान जामिया में संघर्षरत छात्रों की ओर से आया।

सिविल अगर इस समाज में कहीं शेष है तो यहीं है। सिविल सेवा से समाज पर शासन करने का अधिकार लेकर निकले हमारे प्रतिभाशाली जन हिंसक सत्ता के अनुचर ही साबित हुए हैं।

यह जो लड़ता हुआ समाज है, हिंसा की आँख में आँख डाल कर देखता हुआ समाज, यह इतनी आसानी से नहीं मरेगा। लड़ाई चप्पे-चप्पे पर लड़ी जाएगी। इस जंग में हथियार डालने का सवाल ही नहीं।

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