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बंगाल : ममता के राज में मुसलमानों की स्थिति सुधरी?

ममता बनर्जी के लिए यह भी मुसीबत का सबब है कि उस उत्तर बंगाल में कम से कम 35 सीटें हैं, जिन पर मुसलमान बहुमत या उसके आसपास हैं। इन्ही इलाकों में मुसलमानों की स्थिति ज्यादा ख़राब है। समझा जाता है कि इन्ही इलाक़ों में ओवैसी का हमला भी अधिक तीखा होगा क्योंकि यह बांग्लादेश की सीमा से सटा हुआ इलाक़ा है। 
प्रमोद मल्लिक
पश्चिम बंगाल के चुनावों पर घमासान जारी है। भारतीय जनता पार्टी ज़बर्दस्त तरह से हमलावर हैं। बीजेपी अपने पूरे चुनाव प्रचार में ममता बनर्जी को घेरने के लिये मुसलिम तुष्टिकरण के बेहद तीखे और सांप्रदायिक आरोप मढ़ रही है। और वह यह बताने की कोशिश कर रही है कि ममता के राज्य में सिर्फ मुसलमानों का ही ख्याल रखा जा रहा है और हिंदुओं के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव हो रहा है। लेकिन ज़मीनी हकीक़त कुछ और ही है। देश के दूसरे मुसलमानों की तरह पश्चिम बंगाल में भी मुसलमानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।

वोट बैंक

बीजेपी आरोपों के बीच यह सवाल उठता है कि ममता बनर्जी के राज में पश्चिम बंगाल के मुसलमानों की स्थिति में क्या कोई परिवर्तन हुआ है। यह सवाल इसलिए भी उठता है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 में असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-मुत्तहिदा मुसिलीमीन (एआईएमआईएम) का उम्मीदवार उतारना तय है। वे ममता बनर्जी के मुसिलम वोट बैंक में न सिर्फ सेंध लगाएंगे बल्कि उन्हें इस सवाल से परेशान करेंगे कि राज्य के मुसलमानों की स्थिति निहायत ही बुरी है।
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सरकार यह दावे तो कर ही सकती है कि उसने मुसलमानों के लिए तो काम किए हैं, लेकिन उससे मुसलमानों की स्थिति कितनी बदली है, इस सवाल का जवाब सकारात्मक नहीं है। 
सरकारी दावों के उलट अध्ययन यह बताते हैं कि मुसलमानों की स्थिति बहुसंख्यक की तुलना में वाकई बदतर है। हालांकि यह ज़रूर कहा जा सकता है कि बंगाल में उसकी स्थिति यह राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों की स्थिति से थोड़ी बेहतर ही है।

सरकार के दावे

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने फ़ेसबुक पेज पर पहले ही पोस्ट कर दावा किया था कि साल 2010-11 में अल्पसंख्यक व मदरसा शिक्षा विभाग को 472 करोड़ रुपए आंबटित किए गए थे, जो 2015-16 में 2,383 करोड़ रुपए हो गए।

तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ने दावा किया कि अल्पसंख्यक समुदाय के 3.50 लाख लोगों को 600 करोड़ रुपए के लघु क़र्ज़ दिए गए।  

मई 2011 से मार्च 2015 के बीच 82 लाख अल्पसंख्यक छात्रों को 1456 करोड़ रुपए की स्कॉलरशिप दी गई।

ममता बनर्जी ने यह भी दावा कि राज्य के 94.5 प्रतिशत मुसलमान अन्य पिछड़ा समुदाय (ओबीसी) में आते हैं, जिनके लिए रोज़गार और उच्च शिक्षा में आरक्षण का प्रावधान है।

मुसलमानों को आरक्षण

बता दें कि ममता बनर्जी ने सच्चर आयोग की सिफ़ारिशों में से एक यानी ओबीसी समुदाय के मुसलमानों के लिये आरक्षण को लागू किया है। दरअसल यह आरक्षण धर्म आधारित नहीं है, यह ओबीसी समुदाय के लिए है। लेकिन यह हिन्दुओं के अलावा मुसलमान समुदाय के ओबीसी समुदाय को भी मिलता है। 

ममता बनर्जी ने 2011 में सत्ता संभालन के  बाद ही मुसलमानों से यह वादा किया था कि 39 उर्दू स्कूल, तीन पॉलीटेक्निक, 7,002 आंगनबाड़ी केंद्र, 717 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए जाएंगे।

उन्होंने यह भी कहा था कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के लिए 50,000 हाउसिंग सोसाइटीज़ बनाए जाएंगे। इनमें से 5,000 हाउसिंग सोसाइटी कोलकाता म्युनिसलपल कॉरपोरेशन में ही होंगे।

लेकिन मुसलमानों में ही कुछ लोग ममता बनर्जी के कई दावों पर सवाल उठाते हैं। कोलकाता स्थित नाख़ुदा मसजिद के इमाम मुहम्मद शफ़ीक क़ासमी का मानना है कि यह ग़लत है कि ममता बनर्जी ने मुसलमानों से जो वादे किए, उसका 90 प्रतिशत पूरा कर दिया।

इसी तरह कोलकाता के नज़दीक हुगली ज़िले में स्थित फुरफुरा शरीफ़ मज़ार के प्रमुख पीरज़ादा तोहा सिद्दिकी ने भी राज्य सरकार के दावों पर संदेह जताया है। पीरज़ादा ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के कट्टर आलोचक माने जाते हैं।

अमर्त्य सेन के ट्रस्ट की रिपोर्ट

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन स्थापित संस्था प्रतीची ट्रस्ट, गाइडेंस गिल्ड और ग़ैर सरकारी संगठनों की संस्था स्नैप ने पश्चिम बंगाल के अल्पसंख्यकों, ख़ास कर मुसलमानों के बारे में जो रिपोर्ट दी है, वह चौंकाने वाली है।

इस रिपोर्ट में मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थितियों का अध्ययन किया गया है और उन्हें हर हाल में हिन्दुओं से पिछड़ा पाया गया है।

'लिविंग रियलिटीज़ ऑफ़ मुसलिम्स' नामक इस रिपोर्ट को स्वयं अमर्त्य सेन ने जारी किया था।

  • इस रिपोर्ट में कहा गया है कि एक प्रतिशत मुसलमानों के घरों में ही कोई आदमी निजी या सरकारी नौकरी में है।
  • मुसलमानों में ज़्यादातर लोग गाँवों में रहते हैं, उनमें से 47 प्रतिशत लोग ही कोई काम करते हैं, उनमें से अधिकतर लोग खेती-बाड़ी का काम करते हैं।
  • लगभग 38.3 प्रतिशत मुसलिम घरों की मासिक आय 2,500 रुपए या उससे कम है।
  • प्रतीची ट्रस्ट की रिपोर्ट में कहा गया है कि पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले 80 प्रतिशत मुसलमानों की मासिक आय 5,000 रुपए से कम है।
  • सिर्फ 3.4 प्रतिशत मुसलमान परिवारों की मासिक आमदनी 15,000 रुपए या उससे अधिक है।

मुसलिम बहुसंख्यक

प्रतीची ट्रस्ट की रिपोर्ट के अनुसार राजधानी कोलकाता के पास स्थित हुगली ज़िले में मुसलमानों की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है। यह वह इलाक़ा है, जहां टीएमसी ने चुनावों में बेहतर नतीजा निकाला।

दूसरी ओर, उत्तर बंगाल के जलपाईगुड़ी और उत्तर दिनाजपुर में मुसलमानों की आबादी अधिक है, लेकिन उनकी स्थिति अपेक्षाकृत कमज़ोर है। वहां ज़्यादातर मुसलमान ग़रीबी रेखा से नीचे हैं।

ममता सरकार चाहे जो दावे करे, सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की स्थिति खऱाब ही नहीं, बल्कि बीते पाँच साल में बदतर हुई है। 
साल 2015 में राज्य के 19,342 मुसलमान राज्य सरकार की नौकरियों में थे, जबकि केंद्रीय सरकारी नौकरियों में 3,53,525 लोग थे। यानी 5.47 प्रतिशत मुसलमान ही सरकारी नौकरियों में थे। लेकिन साल 2010-11 में सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की तादाद 10 प्रतिशत थी।

यह ममता बनर्जी के तमाम दावों और बीजेपी की ओर से उन पर मुसलिम तुष्टीकरण के आरोपों की पोल खोलने के लिए काफी है। लेकिन यह राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की 2 प्रतिशत भागेदारी से बेहतर है।

इसकी क्या वजह हो सकती है? पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसकी वजहों में प्रमुख मुसलमानों का ग्रामीण इलाकों में रहना, उनमें हुनर की कमी और डिजिटल जानकारी की कमी होना प्रमुख हैं।

ज़मीनी हकीक़त

कोलकाता पुलिस में मुसलमानों की संख्या 9.4 प्रतिशत है, 2007 में यह 9.1 प्रतिशत थी।

कोलकाता म्युनिसपल कॉरपोरेशन में मुसलमान कर्मचारियों की संख्या 4.7 प्रतिशत है, यह साल 2007 में 4.4 प्रतिशत थी।

ममता बनर्जी का दावा है कि उनके शासनकाल में 68 लाख मुसलमानों को नौकरियां दी गई हैं। कुछ लोगों का कहना है कि सरकार ने इसमें चालाकी से मनरेगा और आशा कार्यक्रम में दिए गए तात्कालिक रोज़गार को भी जोड़ लिया है।

पर ज़्यादातर लोगों ने इस दावे को सिरे से खारिज कर दिया है।

रिपोर्ट

साल 2014 में तैयार रिपोर्ट पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की स्थिति में कहा गया है कि राज्य के मुसलमानों की स्थिति दलितों से बदतर है। इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 325 गाँवों और 75 शहरी वार्डों का अध्ययन किया गया था। 
साल 2013 में गठित कुंडू कमिटी ने 2014 में अपनी रिपोर्ट दी। इसमें कहा गया है कि सच्चर आयोग की कुछ सिफारिशों को लागू करने के बावजूद पश्चिम बंगाल के मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में बहुत ही मामूली सुधार ही हुआ है।

आम मुसलमान बेहाल

आलोचक यह कहते हैं कि ममता बनर्जी ने भले ही इमामों को वेतन देना शुरू किया हो, मुहर्रम के मौके पर दुर्गापूजा विसर्जन रोकने जैसे फैसले लिए हों या टीपू सुलतान मसजिद के तत्कालीन इमाम बरकती को निजी सुरक्षा देने जैसे निर्णय किए हों, इससे आम मुसलमानों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है। अंग्रेजी माध्यम के मदरसे खुले हैं, मदरसा शिक्षा के लिए अधिक पैसे दिए गए हैं, पर उच्च शिक्षा में मुसलमानों की स्थिति बेहद बुरी है।
यह भी विडंबना है कि उत्तर बंगाल के मुर्शिदाबाद, मालदह, उत्तर व दक्षिण दिनाजपुर और रायगंज, जहां मुसलमानों की आबादी सबसे ज्यादा यानी 45 से 60 प्रतिशत के बीच है, वहां आम मुसलमानों की स्थिति हुगली, हावड़ा और कोलकाता से अच्छी नहीं है, जहां उनकी आबादी 30 प्रतिशत के आसपास है। ममता बनर्जी के लिए यह भी मुसीबत का सबब है कि उस उत्तर बंगाल में कम से कम 35 सीटें हैं, जिन पर मुसलमान बहुमत या उसके आसपास हैं। इन्ही इलाकों में मुसलमानों की स्थिति ज्यादा ख़राब है।
समझा जाता है कि इन्ही इलाक़ों में ओवैसी का हमला भी अधिक तीखा होगा क्योंकि ये बांग्लादेश की सीमा से सटे इलाक़े हैं। ये वे इलाक़े हैं जहां बीजेपी लंबे समय से हिन्दुओं को यह कह कर गोलबंद करने की जुगाड़ में लगी रही है कि पड़ोसी देश से आने वाले मुसलमान यहां के हिन्दुओं को जल्द ही अल्पसंख्यक बना देंगे।
मुसलिम तुष्टिकरण और मुसलमानों के लिए कुछ खास नहीं करने के परस्पर विरोधी आरोपों का जवाब क्या होगा, यह तो मुख्यमंत्री ही जानें, पर उन्हें ओवैसी और बीजेपी को तो जवाब देना ही होगा, मुसलमान वोटरों को भी संतुष्ट करना होगा। ममता बनर्जी के लिए यह वाकई परीक्षा की घड़ी है।  
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प्रमोद मल्लिक

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