इन अठारह बरसों में जो सरकारें यहाँ बनीं/ बनवाई गईं उनके भ्रष्टाचार के क़िस्सों से हर अफ़ग़ानी अटा पड़ा है। यह उन तमाम वजहों में से सबसे प्रमुख वजह है जो तालिबान को लगातार अमेरिकी और नाटो फ़ौज के लिये चुनौती खड़ी करने में मदद करती रही।
फ़िलहाल अब तक हुई बातचीत के मिनट्स ट्रम्प के हाथ में हैं जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से हाल ही में उनकी अमेरिकी यात्रा के दौरान इस डील में सहयोग का वादा ले चुके हैं।
अफ़ग़ानिस्तान में 28 सितंबर को चुनाव होने हैं। तालिबान और पाकिस्तान का रवैया इसी में साफ़ हो जायेगा! ट्रम्प प्रशासन के एक प्रमुख राजनयिक जो कि इस मामले में तालिबान से बातचीत में शामिल हैं बहुत उत्साहित हैं। जबकि अमेरिकी सरकार के विशेष प्रतिनिधि जालमय खालीजाद ने कई ट्वीट कर ट्रम्प कैंप की क़वायद को डेस्परेट और मैदान छोड़ के भागने की जल्दबाज़ी वाला प्रयास बताया। हालाँकि यह भी सच है कि अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में फँसा छोड़ देने की विरासत ट्रम्प को ओबामा से मिली जो अपने कार्यकाल में इसका हल नहीं ढूँढ पाये थे।
ट्रम्प और तालिबान के समझौते के लगभग फ़ाइनल हो जाने के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान में अशांति बने रहने के कारकों में आईएस/अल क़ायदा और सीआईए की छद्म सेनाओं की उपस्थिति है।
सीआईए की ज़िम्मेदारी है कि वह दुनिया भर में अमेरिका को ख़तरे में डाल सकने वाले संभावित कारकों की जानकारी रखे और जब तक प्रत्यक्ष रूप से सेना न उतारी जाए तब तक उनसे निपटे/उनको निपटाये। सीआईए लंबे समय से सारे लातीनी अमेरिका में और लगभग आधी सदी से अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान में यही काम कर रहा है।
खोस्त प्रोटेक्शन फ़ोर्स नाम के एक खुले मिलीशिया संगठन के अलावा अफ़ीम तस्करों और कई क्षेत्रीय ट्राइबल समूहों की दर्जनों मिलीशिया सीआईए नियंत्रित मानी जाती हैं। चिन्हित लोगों को ग़ायब करने और आतंकी गुटों में अपने एजेंट घुसाने के लिये इनका प्रयोग होता है। ट्रम्प तो बाहर निकल आयेंगे पर सीआईए को तो वहाँ रहना ही है और वह भी तब, जब आईएस वहाँ पुन: सिर उठा रहा हो और अल क़ायदा भी मौजूद हो!
अफ़ग़ानिस्तान के नये बदलावों के चलते भारत एक अजीब मुश्किल में पड़ गया है, लगभग वैसी ही जैसी 1989 में थी, जब सोवियत सेना अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर वापस लौट गई थी। दरअसल, अफ़ग़ानिस्तान भारत और पाकिस्तान के बीच लगातार चलने वाले संघर्ष का भी मैदान है। दोनों देश काबुल में अपनी पसंद की सरकार चाहते हैं।
पाकिस्तान ने बहुत लंबे समय से तालिबान पर दाँव खेल रखा है तो भारत वहाँ सारे ग़ैर पश्तून संगठनों से अपने रिश्ते बनाए हुए है और पश्तून आबादी से भी रिश्ते बनाने की कोशिश करता रहता है। भारत पड़ोसी देशों में अफ़ग़ानिस्तान का सबसे बड़ा आर्थिक सहयोगी है।
हामिद करज़ई के समय से भारत ने डूरंड लाइन के आस-पास पश्तून इलाक़ों में तमाम विकास कार्य किए हैं। साथ ही भारत लगातार अफ़ग़ानिस्तान की सेना को प्रति वर्ष क़रीब एक हज़ार अफ़सरों की ट्रेनिंग और हेलीकाप्टर्स व अन्य मिलिट्री वेहिकल्स की सप्लाई करता है।
भारत ने वहाँ तमाम अस्पतालों और क़रीब दो सौ स्कूलों में पैसा लगाया है। क़रीब सोलह हज़ार अफ़ग़ानी बच्चे भारत में पढ़ रहे हैं। लेकिन यह सब कुछ मिलकर भी तालिबान पर पाकिस्तानी पकड़ का जवाब नहीं बन पाया है जो भारत पर बलोचिस्तान में विद्रोह के प्रायोजन का आरोप लगातार लगाता रहता है। हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान की बहुमत आबादी भारत को किसी भी दूसरे देश से कहीं ज़्यादा भरोसेमंद मित्र देश मानती है।
कुल मिलाकर अगले बरस अमेरिकी चुनाव में जीतने के लिये ट्रम्प ने अफ़ग़ानिस्तान से फ़ौजें वापस बुलाने का जो जुआ खेला है, उससे सिवाय उनके कि जिनको परास्त करने अमेरिका काबुल आया था किसी को लाभ होता नहीं दिख रहा! देखना यह होगा कि क्या इससे ट्रम्प को भी चुनाव में फ़ायदा मिलेगा या नहीं?
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