अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने अब पूरी तरह से चीन के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ दिया है। और अब यह अभियान केवल चीन पर आरोप लगाने तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि इसमें उसे बदनाम करने, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने का एजेंडा भी शामिल हो गया है।
जिस तरह के हथकंडे ट्रम्प प्रशासन चीन के ख़िलाफ़ अपना रहा है वे शीत युद्ध के दिनों की याद दिला रहे हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि एक नए शीत युद्ध की शुरुआत हो गई है। पहले थोड़ा जायज़ा ले लिया जाए कि पिछले कुछ दिनों में हुआ क्या है, जो हमें इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित कर रहा है।
अव्वल तो ट्रम्प ने एकदम से आक्रामक तेवर अपना लिए हैं। वह पूरी ताक़त से चीन पर हमले करके यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि कोरोना वायरस चीन की लैब में बना है। जब उनसे पूछा गया कि क्या उनके पास इसके सबूत हैं तो उन्होंने हाँ कहा, मगर आगे कुछ बताने से इनकार कर दिया। वैसे तमाम वैज्ञानिक और विशेषज्ञों ने उनके इस आरोप को खारिज कर दिया है मगर वह अपना सुर बदल नहीं रहे हैं।
दूसरे उन्होंने यह आरोप भी जड़ दिया है कि इस महामारी के वक़्त चीन का व्यवहार ऐसा नहीं है जिसे अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के हिसाब से सही कहा जा सके और उसे स्वीकार किया जा सके। उनका यह आरोप भी एकतरफ़ा लगता है क्योंकि दुनिया को उनका व्यवहार अटपटा लग रहा है। ख़ास तौर से विश्व स्वास्थ्य संगठन के फंड को रोकने के बाद। उन्होंने चीनी लैब की क्वालिटी को लेकर भी संदेह फैलाने की कोशिश की।
अभी तक ट्रम्प अकेले ही चीन के ख़िलाफ़ बोल रहे थे, मगर अब उन्होंने विदेश मंत्री माइक पोम्पियो को भी मोर्चे पर लगा दिया है। पोम्पियो ने दो अमेरिकी न्यूज़ चैनलों पर ट्रम्प के आरोपों को दोहराकर गरमी पैदा कर दी है। हालाँकि उन्होंने अपने आरोपों की पुष्टि के लिए कोई सबूत नहीं दिए।
इस बीच अमेरिका की प्रसिद्ध पत्रिका पोलिटिको ने कुछ ऐसी सामग्री प्रकाशित की है जिसे अमेरिका समर्थक या चीन के विरोधी प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं। पोलिटिको के मुताबिक़ वुहान में कोरोना फैलने के बाद चीन ने दुनिया भर से बड़े पैमाने पर मेडिकल सामग्री खरीदी, क्योंकि उसे पता चल गया था कि कोरोना अंतरराष्ट्रीय संकट बन सकता है।
इस रिपोर्ट से यह संदेह पैदा करने की कोशिश दिखती है कि चीन इस महामारी से लाभ उठाने की फिराक में था। लेकिन अगर चीन के नज़रिए से देखें तो यह उसके द्वारा घबराहट में की गई खरीदारी भी हो सकती है, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वहाँ रहती है और उसकी ज़रूरतें किसी भी देश की तुलना में बहुत ज़्यादा हैं।
बहरहाल, चीन ने भी अमेरिकी आक्रामकता के जवाब में अपना आक्रामक अभियान छेड़ दिया है। उसने पोम्पियो पर सीधा हमला करते हुए उन्हें झूठा और विकृत मानसिकता का व्यक्ति बताया है।
हालाँकि चीन की तरफ़ से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है मगर चीनी मीडिया उसकी तरफ़ से जवाब दे रहा है। उसने अमेरिकी नेताओं पर घृणित साज़िश करने का आरोप लगाया है।
अब सवाल उठता है कि क्या दोनों देशों के बीच शुरू हुआ यह वाक्युद्ध शीत-युद्ध का संकेत देता है? इसका जवाब तलाशने के लिए हमें शीत युद्ध के लक्षणों के बारे में बात करनी होगी। हालाँकि शीत युद्ध मोटे तौर पर ज़ुबानी जंग और परदे के पीछे चलने वाले षड्यंत्रों से चलता है मगर कहीं न कहीं इस पर खुली जंग का साया भी मँडराता रहता है जैसा कि पिछली सदी में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच हुआ था।
अमेरिका और चीन के बीच कई क्षेत्रों में सैन्य तनाव तो है मगर वह टकराव में तब्दील होगा, ऐसा नहीं लगता। वास्तव में चीन अमेरिका को सैन्य चुनौती देने की कोशिश ही नहीं कर रहा, जबकि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच यह खुलकर होता था।
दूसरे, विश्व स्तर पर सामरिक गोलबंदी के आसार भी नहीं दिख रहे। अमेरिका के साथ उसके मित्र देश ही नहीं हैं। केवल ब्रिटेन थोड़ा सा अमेरिका के साथ जाते हुए दिख रहा है मगर यूरोप के देश दूरी बनाए हुए हैं। ट्रम्प ने नाटो को भी कमज़ोर कर दिया है। उधर चीन ने कोई भी सैन्य गोलबंदी नहीं की है, इसलिए उस तरह का तनाव कहीं दिख नहीं रहा।
वास्तव में ऐसा लगता है कि ट्रम्प प्रशासन इतनी आक्रामकता दो वज़हों से दिखा रहा है। अव्वल तो नवंबर में होने वाले चुनाव हैं। कोरोना संकट ने ट्रम्प की संभावनाओं पर मट्ठा डाल दिया है और वे बौखलाहट में ऊल जलूल बके जा रहे हैं। अब उनकी रणनीति चीन पर आक्रमण करके अपनी लोकप्रियता का ग्राफ़ उठाने की है। वह अमेरिकी राष्ट्रवाद को उभारकर ऐसा करने की फिराक में हैं।
दूसरे, उन्हें यह ख़तरा लग रहा है कि चीन अब व्यापार ही नहीं अंतरराष्ट्रीय लीडरशिप में भी बाज़ी मार रहा है, जो कि अमेरिका के वर्चस्व को सीधे-सीधे चुनौती है। वास्तव में चीन अभी तक एक ध्रुवीय मानी जाने वाली दुनिया का दूसरा ध्रुव बन चुका है और यह चीज़ उन्हें खटक रही है। ज़ाहिर है कि अमेरिकी मतदाताओं को भी यह नागवार गुज़र रही होगी।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस समय एक और प्रतिस्पर्धा चल रही है और वह यह कि कौन सबसे पहले कोरोना का टीका बनाता है। जो भी इस होड़ में जीतेगा, उसके वारे न्यारे हो सकते हैं, क्योंकि इस टीके की माँग विश्व भर में होगी और ज़ाहिर है कि जो पहले बनाएगा वह सिकंदर कहलाएगा।
लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो फ़िलहाल शीत युद्ध के हालात तो क़तई नहीं हैं क्योंकि चीन-अमेरिका की जंग का दायरा बहुत छोटा है और इसके लक्ष्य भी बहुत सीमित हैं। नवंबर में चुनाव के बाद यह गरमी भी शांत हो जाएगी, ऐसा लगता है।
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