अमेरिका का बाइडन प्रशासन डोनाल्ड ट्रंप की अफ़ग़ान-नीति पर अब पुनर्विचार करनेवाला है। वैसे तो ट्रंप प्रशासन ने पिछले साल फ़रवरी में तालिबान के साथ जो समझौता किया था, उसकी प्रशंसा सर्वत्र हो रही थी लेकिन उस वक़्त भी मेरे जैसे लोगों ने संदेह प्रकट किया था कि इस समझौते का सफल होना कठिन है। लेकिन ट्रंप जैसे उथले आदमी ने यह रट लगा रखी थी कि राष्ट्रपति के चुनाव के पहले ही अमेरिकी फौजियों को अफ़ग़ानिस्तान से वे वापस बुला लेंगे। उन्होंने इसे अपना चुनावी मुद्दा भी बना लिया था। अमेरिकी मतदाता के लिए यह ख़ुशी की बात थी कि अमेरिकी फौजियों के ताबूत काबुल से न्यूयॉर्क आना बंद हो जाएँ।
यह भी सही है कि तालिबान ने पिछले एक साल में बहुत कम अमेरिकी ठिकानों को अपना निशाना बनाया और अमेरिकी फौजी नहीं के बराबर मारे गए लेकिन अफ़ग़ानिस्तान का कौनसा हिस्सा है, जहाँ तालिबान ने पिछले एक साल में हिंसा नहीं फैलाई? काबुल, कंधार, हेरात, जलालाबाद, हेलमंद, निमरुज- कौनसा इलाक़ा उन्होंने छोड़ा है। अब तक वे लगभग एक हज़ार लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। उनमें अफ़ग़ान फौजी और पुलिस तो हैं ही, छात्र, किसान, व्यापारी, नेतागण और सरकारी अफसर भी हैं।
तालिबान सत्तारूढ़ होने पर इस्लामी राज कायम करना चाहते हैं लेकिन आज उनके कई गुट सक्रिय हैं। इन गुटों में आपसी प्रतिस्पर्धा जोरों पर है। हर गुट दूसरे गुट को नकारता चलता है। इसीलिए काबुल और वाशिंगटन के बीच कोई समझौता हो जाए, उसे लागू करना कठिन है।
इस समय मुझे तो एक ही विकल्प दिखता है। वह यह कि सभी अफ़ग़ान कबीलों की एक वृहद संसद (लोया जिरगा) बुलाई जाए और वह कोई कामचलाऊ सरकार बना दे और फिर लोकतांत्रिक चुनावों के ज़रिए काबुल में एक लोकतांत्रिक सरकार बने। इस बीच बाइडन-प्रशासन थोड़ा धैर्य रखे और काबुल से पिंड छुड़ाने की जल्दबाज़ी न करे। ट्रंप की तरह वह आनन-फानन घोषणाओं से बचे, यह उसके लिए भी हितकर है, अफ़ग़ानिस्तान और पूरे दक्षिण एशिया के लिए भी।
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