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डीयू में मैथिली? राजनीति में इस्तेमाल की चीज़ रह गई है भाषा

अभी मेरे एक युवा मित्र ने एक ख़बर भेजी कि दिल्ली विश्वविद्यालय मैथिली के अध्ययन के बारे में गंभीरता से विचार कर रहा है। उद्देश्य स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा देना है। यह मैथिली के साहित्य में या उसकी भाषायी विचित्रता में रुचि रखनेवालों को संबोधित नहीं है, उस जनसंख्या को है जो ख़ुद को प्राथमिक रूप से मैथिल मानती है।
अपूर्वानंद

भाषा फिर से चर्चा में है। यह किसी समाज और देश के स्वास्थ्य की निशानी हो सकती है अगर वह सचमुच भाषा के मुद्दों पर बात कर रहा हो। मसलन किसी भाषा में अभिवादन के क्या नियम हैं, क्यों हरियाणवी सुनकर मैथिली भाषी पहली बार सदमे में चले जाते हैं और क्यों उनकी प्रतिक्रिया से हरियाणवी हैरान रह जाते हैं! मुझे शाहपुर जाट के अपने मकान मालिक के साथ अपनी पत्नी पूर्वा का एक संवाद याद है। पानी ख़त्म हो गया था। जैसा दिल्ली के ऐसे इलाक़ों में क़ायदा है, मकान मालिक मानते हैं कि किरायेदारों ने ही पानी बहा दिया होगा। सो, हमारे मकान मालिक आए और उन्होंने पूर्वा को अपने ख़ास अन्दाज़ में कहा, “पानी ख़त्म! अब थूक से नहाना!” पूर्वा के कान इस क़िस्म के संवाद के आदी न थे। आँखों में अपमान के मारे पानी भर आया। अब भले आदमी, हमारे मकान मालिक के घबराने की बारी थी। वह माफ़ी माँगने लगे, “हम तो ऐसे ही बोलते हैं। आपकी बेइज्ज़ती का कोई इरादा नहीं!” लेकिन आँसुओं को सूखने में वक़्त लगा।

बिहार में ही छपरा की भोजपुरी को ज़नाना कहकर आरा के भोजपुरीवाले अपनी मूँछ पर ताव देते हैं। बिना यह सोचे कि उनके यहाँ वही भोजपुरी औरतें भी बोलती हैं। बेगुसरायवालों से मुलायमियत की उम्मीद बस उम्मीद है, ऐसा मैथिलीवाले कहते हैं जिनकी यह समझ है कि मैथिली तो स्वभाव से ही मीठी है। मैथिली में झगड़ा या गाली गलौज भी मैत्री का आमंत्रण मालूम होता है।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

लेकिन क्या हम भाषा पर इस तरह की कोई चर्चा सुन रहे हैं? अभी मेरे एक युवा मित्र ने एक ख़बर भेजी कि दिल्ली विश्वविद्यालय मैथिली के अध्ययन के बारे में गंभीरता से विचार कर रहा है। उद्देश्य स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा देना है। किसी भाषा के अध्ययन का उद्देश्य स्थानीय संस्कृति की रक्षा और विकास क्यों होना चाहिए, इस पर शायद ही कोई बात करे। दिल्ली में मैथिली के अध्ययन से दिल्ली की स्थानीय संस्कृति के संवर्धन का संबंध है? दिल्ली की कुछ गलियों में कहीं करखंदारी की कोई गूँज बची हो। उसे किसी कान के कटोरे में संजोकर क्या कक्षा में लाया जा सकता है? दिल्ली की स्थानीयता का उससे कुछ संबंध हो सकता है। लेकिन मैथिली का?

प्रश्न यह है कि स्थानीयता से हमारी मुराद क्या है? वह बनती कैसे है? दिल्ली विधान सभा में आपको एकाधिक मैथिलीभाषी विधायक मिल जाएँगे। अब एक मैथिली अकादमी भी है। जिस दिन मैंने दिल्ली की सड़कों पर शारदा सिन्हा के छठी मैया के गीत बजते सुने, मैं समझ गया, दिल्ली की स्थनीयता बदल रही है।

दिल्ली के हवाई अड्डे से बाहर निकल कर टैक्सी लेने पर बातचीत शुरू करते ही मालूम हो जाता है कि ड्राइवर महोदय बाँका के हैं। वह कोई अपवाद नहीं। उनकी संख्या सैंकड़ों में है। विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलते ई रिक्शा पर बैठा तो चालक की बोली कुछ अपनी लगी। पूछा, “घर कहाँ?” “देवघर”, उत्तर से लगा अब आराम से पीठ सीट से टिका लेनी चाहिए। अब तो यह आलम है कि स्टेशन से बाहर निकलते ही कई देवघरिया हाथ ऊपर उठते हैं, “अंकल, अंकल!” बैठा तो एक में जा सकता है। दूसरे हँसते हैं, विदा के लिए हाथ हिलाते हैं। झूठ क्यों बोलूँ, देवघर का कोई किसी दिन न मिले तो घर तो पहुँच जाता हूँ, अच्छा नहीं लगता। यह स्वीकार करते हुए कि मैं ख़ुद देवघरिया हिचकिचाते हुए ही बोल पाता हूँ।

तो मैथिली की पढ़ाई से किस स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा? मिथिला की? बिहार की या दिल्ली की? थोड़ा सोचें तो मालूम होता है, संस्कृति को बढ़ावा देने का तर्क या कारण अकादमिक नहीं राजनीतिक है।

यह मैथिली के साहित्य में या उसकी भाषायी विचित्रता में रुचि रखनेवालों को संबोधित नहीं है, उस जनसंख्या को है जो ख़ुद को प्राथमिक रूप से मैथिल मानती है।

किसी विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद में जब इस विषय पर बहस होगी तो यह स्थानीयता का तर्क कितना उपयोगी होगा। यह प्रश्न अवश्य है कि मैथिली एक समृद्ध और जीवंत साहित्यिक परंपरावाली भाषा है। वह साहित्य अकादमिक तवज्जो का हक़दार है। वैसे ही जैसे और भाषाओं की तरफ़ भी अकादमिक ध्यान जाना चाहिए।

मैथिली हो या ब्रज या अवधी, जीवित भाषाएँ हैं। मेरे एक युवा अध्यापक मित्र ने प्रश्न किया कि उन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में क्यों समेट लिया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि शुक्लजी के गद्य युग या आधुनिक युग के आरम्भ के साथ भोजपुरी, अवधी, मैथिली आदि के साहित्य का अवसान होने लगता है। यह बात तथ्यात्मक रूप से भी ग़लत है। फिर इस लगातार लिखे साहित्य को तो हिंदी साहित्य में समेटा नहीं जा सकता, न हिंदी विभाग की इसमें कोई रुचि है। तो इस साहित्य का अध्ययन कहाँ होगा?

हिंदीवादी क्यों घबरा उठते हैं?

इन भाषाओं के अलग अध्ययन का सवाल उठते ही हिंदीवादी घबरा उठते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा होते ही हिंदी खंड-खंड हो जाएगी। लेकिन इन भाषाओं के वकील भी तर्क सांस्कृतिक संरक्षण का ही देते हैं। यह हिंदी राष्ट्रवाद की प्रतियोगिता में कहाँ ठहरेगा? क्योंकि इन भाषाओं के कई वकील इस राष्ट्रवाद के भी समर्थक हैं। यह भी देखना दिलचस्प है कि मैथिली स्थानीयता और हिंदी राष्ट्रवाद में एक गठजोड़ भी है।

इसी समय पंजाब विश्वविद्यालय में एक विवाद उठ खड़ा हुआ। किसी की लापरवाही या विचारधारात्मक सावधानी के कारण उर्दू को विदेशी भाषाओं के समूह में डाल दिया गया। स्वाभाविक रूप से इसका विरोध हुआ। उर्दू भारतीय भाषा है, इसलिए उस समूह में उसे क्यों रखा जाए? इस पर कोई विवाद नहीं, लेकिन देसी भाषाओं को लेकर इतना उत्साह आख़िर किस विचार की अभिव्यक्ति है?

हम इस पर विचार करें कि देशी और विदेशी भाषाओं के बीच के विभाजन के कारण उनके अध्ययन-अध्यापन पर और प्रशासन के उनके प्रति रवैये पर क्या प्रभाव पड़ता है? भाषाओं के मामले में देसीवाद की क्या भूमिका है?

देसीवाद के साथ ही मातृभाषावाद से भाषा के प्रति किस रवैये का पता चलता है? मातृभाषा के प्रति इस उत्साह का कारण क्या है? क्या मातृभाषा को अधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिए क्योंकि उससे स्थानीय संस्कृति का संरक्षण होता है? क्या इसी वजह से उर्दू कमतर हो जाएगी क्योंकि वह किसी की, कहीं की देसी भाषा नहीं है? किसी भाषा की स्वीकार्यता के लिए उसे किसी एक भौगोलिक प्रदेश से उपजा होना साबित करना चाहिए और क्यों यह शर्त भी हो कि उसे बोलने या इस्तेमाल करनेवाले एक ही क़िस्म के नहीं होने चाहिए, वह एक धर्म हो या एक जाति।

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भाषा की धर्मनिरपेक्षता

चेन्नई में टैक्सीवाले बता देते हैं कि वे अंग्रेज़ी जानते हैं। पिछली यात्रा में जब चेन्नई प्रेस गिल्ड से टैक्सी चली तो चालक ने दिलचस्पी ज़ाहिर की, यहाँ क्या प्रेस की मीटिंग थी। जवाब में मैंने पूछा, आप हिंदी जानते हैं? आधे मिनट से भी कम अंतराल के बाद उत्तर मिला, "मैं बेसिकली मुसलमान हूँ, सो उर्दू पढ़ी है।" इस उत्तर से मेरी भाषा की धर्मनिरपेक्ष समझ को धक्का लगा। लेकिन साथ ही ख़याल आया कि हिंदी राष्ट्रवादियों का जीवन इस प्रदेश में उर्दू थोड़ा आसान कर रही है। उसके सहारे वे शहर के रास्ते पहचान सकते हैं। क्या इससे चिंतित होना चाहिए कि मुसलमान तमिलनाडु में उर्दू क्यों पढ़ रहे हैं? क्यों तमिल उनके लिए पर्याप्त नहीं है? क्या इससे तमिल राष्ट्रवाद को सावधान हो जाना चाहिए कि उसकी चादर में एक सीवन दिख रही है?

रास्ते भर चालक से उर्दू में कश्मीर पर तो चर्चा हुई ही क्योंकि मैं उसी सवाल पर एक बैठक से लौट रहा था। उसने यह भी पूछा कि सुना है आपकी तरफ़ बहुत ज़्यादा हिंदू-मुसलमान हो रहा है। ठंडी बयार थी, सो मौसम पर बात फिसल आई और उसने कहा कि यह बारिश की आमद की सूचना है। बात पिछले साल की शहर की बाढ़ की ओर मुड़ गई। कैसे सरकार ठीक उसी वक़्त ग़ायब हो गई जब उसकी ज़रूरत शहर को थी। मस्जिद में खाना बना, बनाने और बाँटने में हिंदू, मुसलमान साथ थे। दूसरी सरकारों ने जो राहत दी, उस पर तमिलनाडु की सरकार ने अपना बिल्ला चिपका कर बाँटा।

बात उर्दू में चेन्नई की सड़क पर चेन्नई के लोगों की ज़िंदगी और राज्य से उनके रिश्तों के बारे में हो रही थी। मुझे पता है कि यह न पटना की उर्दू थी, न लखनऊ की। वह किस स्थानीयता की वाचक थी? उत्तर प्रदेश में उर्दू की पढ़ाई पर आज़ादी के तुरंत बाद लगी पाबंदी किस राष्ट्र या स्थान की हिफ़ाज़त के लिए थी?

भारत के आज के दौर में भाषा पर चर्चा करते वक़्त ख़ुद संकरेपन का शिकार हो जाने का ख़तरा है। स्थानीयता की वकालत कहीं सार्वभौमिक अनुभव के ख़िलाफ़ न खड़ी हो जाए। इस पर भी हम सोचें कि क्यों हम जिन भाषाओं के प्रति श्रद्धा के मारे दूसरों का सर तोड़ने को तैयार हैं, उनकी विद्वत्ता हमारे विश्वविद्यालयों के मुक़ाबले यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अधिक प्रखर क्यों है? यह भी कि हमारे विदेशी भाषाओं के विभागों में शेल्डन पोलोक, फ़्रेंचेस्का ओर्सीनी, डेविड शुलमैन, इमरे बंघा जैसे विद्वान क्यों नहीं हैं? उसका एकमात्र कारण है कि भाषाओं को लेकर हमारे भीतर न जिज्ञासा है, न प्रेम। है तो बस अस्मिता की राजनीति जिसमें भाषा एक साधन मात्र है, इस्तेमाल की एक चीज़।

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