नागरिकता संशोधन विधेयक यानी सीएबी को 625 लेखकों, कलाकारों, फ़िल्मकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संविधान के साथ छलावा क़रार दिया है। उन्होंने इसको वापस लिए जाने की माँग की है। उन्होंने सीएबी को विभाजनकारी, भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक बताया है। उन्होंने कहा कि यह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी के साथ पूरे देश भर के नागरिकों को अप्रत्याशित उत्पीड़न देगा। इससे पहले 1000 से ज़्यादा वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों ने भी ऐसा ही पत्र जारी किया है। बता दें कि सोमवार को लोकसभा में इस विधेयक को पेश किया जा रहा है। सरकार बहुमत में है तो इसके वहाँ से पास हो जाने की संभावना है, लेकिन राज्य सभा में सरकार को इसे पास कराने में मुश्किल आ सकती है।
ताज़ा जारी किए गए पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में लेखिका नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, अरुंधती रॉय, पॉल ज़चारिया, अमिताव घोष, कलाकार टी.एम. कृष्णा, विवान सुंदरम, सुधीर पटवर्धन, फ़िल्मकार अपर्णा सेन, नंदिता दास, आनंद पटवर्धन, बुद्धिजीवि रोमिला थापर, प्रभात पटनायक, रामचंद्र गुहा, सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, हर्ष मंदर, अरुणा रॉय, व बेज़वादा विल्सन, जस्टिस ए पी शाह (सेवानिवृत्त), योगेंद्र यादव, वजाहत हबीबुल्ला और ऐसे ही 625 लोग शामिल हैं।
पत्र में उन्होंने कहा है कि यह भारतीय गणतंत्र की प्रकृति को, मौलिक रूप से और अपूरणीय रूप से क्षति पहुँचाएगा, यही कारण है कि वे और विवेकशील सभी नागरिक सरकार से विधेयक को वापस लेने की माँग करते हैं। उन्होंने कहा कि सरकार संविधान को धोखा नहीं दे।
उन्होंने लिखा है, 'स्वतंत्रता के बाद से, भारतीय नागरिकता संविधान में दृढ़ता से रचा-बचा है। अपने नागरिकता प्रावधानों में संविधान लिंग, जाति धर्म, वर्ग, समुदाय या भाषा की परवाह किए बिना समानता के मूल सिद्धांतों पर ज़ोर देता है।' उन्होंने कहा, 'सांस्कृतिक और शैक्षणिक समुदायों से आने वाले हम सभी इस विधेयक को विभाजनकारी, भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक बताते हैं।'
750 वैज्ञानिकों ने कहा, वापस लें बिल
देश और देश के बाहर रह रहे भारतीय मूल के क़रीब से ज़्यादा वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों ने नागरिक संशोधन विधेयक के मसौदे के विरोध में एक पत्र जारी किया है। उन्होंने इस बात पर दुख जताया कि इस विधेयक में भारतीय नागरिकता के निर्धारण के लिए धर्म को आधार बनाया गया है। उन्होंने इस पर आशंका जताई है कि विधेयक के दायरे से मुसलमानों को बाहर रखने से देश के बहुलवादी ताना-बाना बिखरेगा। बता दें कि यह विधेयक धर्म के आधार पर नागरिकता देने की वकालत करता है और मुसलिमों को नागरिकता देने से बाहर रखा गया है। इसी को लेकर कई जगहों पर विरोध हो रहा है।
वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों ने कहा कि हम इस विधेयक को तत्काल वापस लेने की माँग करते हैं और इसके बदले में ऐसे क़ानून की अपील करते हैं जो ग़ैर-भेदभावपूर्ण तरीक़े से शरणार्थियों और अल्पसंख्यकों की चिंताओं को समझे।
पिछले हफ़्ते ही उन्होंने यह बयान जारी किया है। वैज्ञानिकों ने लिखा है कि हमें इस विधेयक के मसौदे के बारे में पूरी जानकारी नहीं है, लेकिन मीडिया में आई रिपोर्टों के आधार पर हम यह बयान जारी करने को मजबूर हैं।
उन्होंने लिखा, ‘हम समझते हैं कि विधेयक अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को नागरिकता देने की बात करता है। विधेयक का घोषित उद्देश्य पड़ोसी देशों से उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को शरण देना है। जब हम इस प्रशंसनीय उद्देश्य का समर्थन करते हैं तो हमें यह जानकर दुख होता है कि विधेयक भारतीय नागरिकता के निर्धारण के लिए धर्म को एक क़ानूनी मानदंड के रूप में उपयोग करता है।’
जारी बयान में भारत की आज़ादी का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा है कि भारत का विचार, जो स्वतंत्रता आंदोलन से उभरा है और जैसा कि हमारे संविधान में निहित है, वह उस देश का है जिसमें सभी धर्मों के लोगों के साथ समान व्यवहार करने की बात कही गई है।
उन्होंने कहा, ‘प्रस्तावित विधेयक में नागरिकता के लिए एक मानदंड के रूप में धर्म का उपयोग इतिहास के पूरे बदलाव का एक मोड़ होगा और यह संविधान की मूल संरचना के साथ सही नहीं होगा। हमें आशंका है कि विधेयक के दायरे से मुसलमानों को बाहर रखने से देश के बहुलवादी ताने-बाने में बहुत खिंचाव आएगा।’
उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14 का ज़िक्र कर कहा कि भारतीय संविधान का यह अनुच्छेद किसी नागरिक को समानता के अधिकार से वंचित किए जाने से राज्य को रोकता है और देश के अंदर क़ानून या क़ानूनों का समान संरक्षण प्रदान करता है।
उन्होंने कहा कि हालाँकि यह निर्धारित करना क़ानूनी विशेषज्ञों का काम है कि यह मसौदा संविधान का उल्लंघन करता है या नहीं, लेकिन हमें तो निश्चित ही लगता है कि यह इसकी भावना का उल्लंघन करता है।
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