यदि यह पुष्ट हो जाए कि देश में कोरोना की यह भयावह दूसरी लहर 'डबल म्यूटेंट' के कारण ही है तो इसके लिए एक बड़ी लापरवाही ज़िम्मेदार होगी। इतनी बड़ी लापरवाही किसकी होगी? इसका जवाब विशेषज्ञों के इस तथ्य से मिल जाएगा- जिस 'डबल म्यूटेंट' पर इतना शोर है इसका पता पिछले साल 5 अक्टूबर को ही चल गया था। यह संभव हुआ था जीनोम सिक्वेंसिंग से। लेकिन इस जीनोम सिक्वेंसिंग का काम तब आगे नहीं बढ़ सका था। इसका मतलब है कि लापरवाही बरती गई। इसके लिए फंड नहीं दिया गया, कोई निर्देश नहीं दिया गया था। नीति नहीं बनाई गई थी। जनवरी तक ऐसा ही चलता रहा, लेकिन जब कोरोना बढ़ना शुरू हुआ तो ज़िम्मेदारों की नींद खुली! लेकिन अब तो विशेषज्ञों को अंदेशा है कि अब 'ट्रिपल म्यूटेंट' जैसा स्ट्रेन आ गया है। सवाल है कि इस लापरवाही का कितना बड़ा नुक़सान हुआ?
विशेषज्ञों का कहना है कि देश में कोरोना संक्रमण के जो ताज़ा हालात हैं उसमें भारत में ही पाए गए कोरोना के नये स्ट्रेन ‘डबल म्यूटेंट’ का हाथ हो सकता है। हालाँकि, इसकी स्पष्ट तौर पर पुष्टि नहीं हो पाई है। जिस स्ट्रेन का पता अक्टूबर में ही चल गया उसके बारे में अप्रैल महीने तक ज़्यादा जानकारी नहीं है तो क्या इसकी जाँच में देरी नहीं की गई?
भारत में जो 'डबल म्यूटेंट' है उसका सीधा मतलब यह है कि इसमें दो म्यूटेंट हैं। इसमें से एक म्यूटेंट ई484क्यू है और दूसरा एल452आर। इन दोनों म्यूटेंट जब अलग-अलग होते हैं तो इनकी पहचान ज़्यादा तेज़ी से फैलने वाले के तौर पर की गई है और ये कुछ हद तक टीकाकरण या कोरोना ठीक होने से बनी एंटीबॉडी को मात भी दे देते हैं।
24 मार्च को केंद्र सरकार ने कहा था कि देश में एक नये क़िस्म का कोरोना पाया गया है- डबल म्यूटेंट। तब कहा गया था कि इससे संक्रमित लोग देश के 18 राज्यों में पाए गए।
'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर में ही इस नये स्ट्रेन का पता चला था लेकिन जीनोम सिक्वेंसिंग के बारे में नवंबर से लेकर जनवरी तक कोई ख़ास प्रयास नहीं किया गया। यह वह दौर था जब देश में संक्रमण के मामले काफ़ी कम आ रहे थे।
इसी का नतीजा यह हुआ कि देश में पहले छह महीनों में जब कुछ जीनोम सिक्वेंसिंग की गई थी तब तक चीन, इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों में हज़ारों जीनोम सिक्वेंसिंग कर ली गई थीं।
वे देश ऐसा इसलिए कर रहे थे ताकि वे कोरोना संक्रमण से बेहतर ढंग से निपट सकें। जीनोम सिक्वेंसिंग से कोरोना के रूप बदलने के अनुरूप ही इसको नियंत्रित करने की रणनीति पर काम किया जा सके। नये क़िस्म के कोरोना के अनुसार इलाज के लिए दवाइयाँ बनाई जा सकें और इसके अनुरूप ही वैक्सीन को भी विकसित किया जा सके। यानी जीनोम सिक्वेंसिंग में पिछड़ने का सीधा मतलब यह है कि कोरोना की लड़ाई में पिछड़ जाना। यह लचर नीति का भी नतीजा है।
इस बात को विशेषज्ञ भी मानते हैं। 'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, एक विशेषज्ञ ने कहा, 'काफ़ी पहले इसका पता चला था। यह नवंबर और दिसंबर में फिर से पाया गया। फ़रवरी में यह स्ट्रेन विस्फोट कर रहा है, क़रीब इसी दौरान महाराष्ट्र में उछाल से यह मेल खाता है। इस खोज पर तुरंत कार्रवाई की जानी चाहिए थी। पर कुछ नहीं हुआ। अब हम आग लगने पर पानी डालने का काम कर रहे हैं।' एक विशेषज्ञ ने कहा कि पूर्व तैयारी नहीं कर पा रहे हैं बल्कि मामले आने के बाद उस पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
बता दें कि इस साल जनवरी में सरकार ने 10 प्रयोगशालाओं के नेटवर्क के माध्यम से भारत में जीनोम सिक्वेंसिंग के प्रयास को तेज़ करने के लिए भारतीय SARS-CoV2 जीनोमिक्स कंसोर्टियम (INSACOG) की स्थापना की।
अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, हालाँकि, फ़रवरी में INSACOG के काम शुरू करने के बाद से जीनोम सिक्वेंसिंग में सुधार आया है, लेकिन अभी भी देश भर में क़रीब 13,000 जीनोम सिक्वेंसिंग ही की गई है। यह अभी भी पर्याप्त नहीं है। INSACOG को इसलिए बनाया गया है कि हर रोज़ आ रहे नए मामलों के पाँच प्रतिशत जीनोम सिक्वेंसिंग की जाए। यह एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। बता दें कि हर दिन 2.5 लाख से अधिक नए मामले आ रहे हैं। इस हिसाब से क़रीब 12500 सैंपल भेजे जाने चाहिए जबकि वास्तविकता यह है कि 1 फ़ीसदी से भी कम सैंपल की जीनोम सिक्वेंसिंग हो रही है।
अब एक नया ख़तरा उभर रहा है। ‘डबल म्यूटेंट’ पर शोध अभी व्यवस्थित हुआ भी नहीं है और कहा जा रहा है कि डबल म्यूटेंट में ही एक नये म्यूटेंट के संकेत मिले हैं। यानी यह ट्रिपल म्यूटेंट जैसा है।
ट्रिपल म्यूटेंट का मतलब है कि तीन अलग-अलग म्यूटेंट का समावेश। ऐसे मामले दूसरी लहर का सामना कर रहे महाराष्ट्र, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ से लिए गए सैंपलों में मिले हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि ट्रिपल म्यूटेंट शरीर की इम्यूनिटी को बायपास करने यानी सुरक्षा कवच को भेदने में ज़्यादा सक्षम हो सकता है। इसका साफ़ मतलब होगा कि यह स्थिति ज़्यादा ख़तरनाक होगी।
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