विशेष सीबीआई अदालत ने भले ही सबूतों के अभाव में बाबरी मसजिद विध्वंस में साज़िश से इनकार किया और सभी आरोपियों को बरी कर दिया है, लेकिन जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्रहान का कुछ और ही कहना है। लिब्रहान आयोग के अध्यक्ष रहे मनमोहन सिंह लिब्रहान का कहना है कि बाबरी मसजिद विध्वंस एक साज़िश थी और मुझे अब भी इस पर भरोसा है। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मसजिद विध्वंस के मामले की जाँच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया था। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के ही कम से कम दो आदेशों में बाबरी विध्वंस मामले में साज़िश की बात कही गई थी। इसमें से एक आदेश तो पिछले साल नवंबर का ही है जब अयोध्या टाइटल सूट पर सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था। और दूसरा आदेश 2017 का था जब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही थी।
सुप्रीम कोर्ट के इन दो आदेशों में क्या कहा गया है, इससे पहले यह जान लें कि जस्टिस लिब्रहान क्या मानते हैं। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से बातचीत में जस्टिस लिब्रहान ने कहा, 'मैंने पाया कि यह एक साज़िश थी, मुझे अभी भी इस पर विश्वास है। मेरे सामने पेश किए गए सभी साक्ष्यों से यह साफ़ था कि बाबरी मसजिद विध्वंस की सुनियोजित योजना बनाई गई थी... मुझे याद है कि उमा भारती ने स्पष्ट रूप से इसकी ज़िम्मेदारी ली थी। यह कोई एक अनदेखी ताक़त नहीं थी जिसने मसजिद को ध्वस्त किया बल्कि वो इनसान थे।' उन्होंने आगे कहा कि मेरे निष्कर्ष सही, ईमानदार और भय या किसी अन्य पूर्वाग्रह से मुक्त थे।
साज़िश की ऐसी बात सुप्रीम कोर्ट ने भी की थी। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ जब 9 नवंबर 2019 को राम जन्मभूमि के टाइटल सूट को लेकर फ़ैसला सुना रही थी तब इसने कहा था कि बाबरी मसजिद विध्वंस 'सोची-समझी कार्रवाई' थी। बेंच में शामिल तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, मौजूदा मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और एस ए नज़ीर ने कहा था, 'विवाद के लंबित रहने के दौरान सोच-समझकर सार्वजनिक पूजा स्थल को तहस नहस करते हुए मसजिद के ढाँच को गिराया गया था। मुसलमानों को ग़लत तरीके से एक मसजिद से वंचित किया गया है, जिसे 450 साल से भी पहले बनाया गया था।'
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में यह भी कहा गया था कि मसजिद को ढहाना 'क़ानून के शासन का एक बड़ा उल्लंघन' था।
इससे दो साल पहले 19 अप्रैल 2017 को जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष और रोहिंटन एफ़ नरीमन की पीठ ने बाबरी मसजिद के विध्वंस को 'भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को झकझोर देने वाले' अपराध के रूप में बताया था। इस बेंच ने साज़िश रचे जाने की जाँच को उठाया था और लखनऊ में इसकी सुनवाई के लिए केस को स्थानांतरित कर दिया था।
अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, पीठ ने निर्देश दिया था कि आईपीसी की धारा 120 बी के तहत आपराधिक साज़िश के अतिरिक्त आरोप लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा और विष्णु हरि डालमिया (2019 में निधन) पर लगाए जाएँ। इसके अलावा दो अन्य, अशोक सिंघल और गिरिराज किशोर का क्रमशः 2015 और 2014 में निधन हो गया था।
दो केस चल रहे थे
यानी ढाँचे को ढहाए जाने के मामले में दो अलग-अलग मामले चल रहे थे। एक केस ढाँचे को ढहाने की साज़िश को लेकर था और दूसरा भीड़ को उकसाने को लेकर। साज़िश मामले की सुनवाई लखनऊ अदालत में चली जबकि भीड़ को उकसाने के मामले की सुनवाई रायबरेली में। सीबीआई ने 1993 में 49 लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट पेश की थी जिनमें से 17 अभियुक्तों की ट्रायल के दौरान मौत हो चुकी है। रायबरेली के मामले में आरोप 2005 में तय किए गए जबकि लखनऊ के मामले में आरोप 2010 में तय किए गए।
सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में यह आदेश दिया कि दोनों मामलों को एक साथ जोड़ दिया जाए और हर रोज़ सुनवाई की जाए।
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट
सुप्रीम कोर्ट अपने कई फ़ैसलों में जिस साज़िश की बात करता रहा था उसको लेकर लिब्रहान आयोग ने कई तथ्य रखे थे। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार, बाबरी मस्जिद विध्वंस की जाँच के लिए 1992 में गठित लिब्रहान आयोग ने 2009 में पेश अपनी रिपोर्ट में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती सहित आरएसएस और बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं के शामिल होने का संकेत दिया था। रिपोर्ट ने कहा, 'उन्होंने या तो सक्रिय रूप से या निष्क्रिय रूप से विध्वंस का समर्थन किया।'
आयोग ने कहा कि कारसेवकों का इकट्ठा होना 'एकाएक या स्वैच्छिक' नहीं था, बल्कि 'पूरी तरह सुनियोजित' था। रिपोर्ट में 60 से अधिक लोगों के नाम थे- जिनमें बीजेपी के वरिष्ठ नेता आडवाणी, जोशी, भारती और ए बी वाजपेयी, आरएसएस और वीएचपी नेता, नौकरशाह शामिल थे। रिपोर्ट में उन्हें 'देश को सांप्रदायिक तनाव के कगार पर ले जाने' के लिए 'दोषी' के रूप में बताया गया था।
बातचीत में ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से जस्टिस लिब्रहान ने कहा, 'वे सभी, आडवाणी, वाजपेयी, मेरे सामने पेश हुए, और जो मैंने पाया, मैंने अपनी रिपोर्ट में प्रस्तुत किया, लेकिन वे ख़ुद के ख़िलाफ़ गवाह नहीं हो सकते... उनमें से कुछ ने विध्वंस की ज़िम्मेदारी ली। उमा भारती ने स्पष्ट रूप से ज़िम्मेदारी ली थी... अब, अगर जज कहते हैं कि वह ज़िम्मेदार नहीं हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ... मेरे सामने पेश किए गए सबूतों और गवाहों से सिर्फ़ मैं ही नहीं, कोई भी उचित रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि यह एक पूर्वनियोजित कार्रवाई थी।'
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आडवाणी द्वारा दिसंबर 1992 तक राम जानकी रथ यात्रा विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए लोगों को जुटाने के लिए की गई थी।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से बातचीत में जस्टिस लिब्रहान ने कहा कि उन्हें यह पता लगाना था कि मसजिद को किसने ध्वस्त किया, इससे क्या हालात पैदा हुए, साथ ही साथ विध्वंस के तथ्य क्या थे। उन्होंने कहा, 'कुछ लोगों के लिए एक पवित्र मंशा हो सकती है, लेकिन राजनेताओं के लिए यह उनके पक्ष में वोट की खेती करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण साधनों में से एक था।' उन्होंने यह भी कहा कि विध्वंस को प्रशासनिक तैयारी और योजना से रोका जा सकता था। उन्होंने कहा कि उन्होंने अपनी रिपोर्ट में इसका ज़िक्र किया है।
नौकरशाही की भूमिका पर आयोग ने कहा था, 'यह बहुत स्पष्ट है कि प्रशासन कारसेवकों या कारसेवा पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सका था और न ही इसे नियंत्रित कर सका था...।'
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