असम में एनआरसी की अंतिम सूची आने के बाद दिल्ली बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी, बीजेपी शासित राज्य हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने अपने-अपने राज्यों में एनआरसी की माँग उठाई है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कहा है कि अगर ज़रूरत पड़ी तो वह भी इसे यूपी में लागू करेंगे।
देश में असम इकलौता ऐसा राज्य है जहाँ एनआरसी की व्यवस्था लागू है। इसके मुताबिक़, जिस व्यक्ति का नाम सिटिजनशिप रजिस्टर में नहीं होता है उसे अवैध नागरिक माना जाता है। इसे 1951 की जनगणना के बाद तैयार किया गया था। इसमें असम के हर गाँव के हर घर में रहने वाले लोगों के नाम और संख्या दर्ज की गई है।
क्या ज़रूरत थी एनआरसी की?
आगे बढ़ने से पहले यह समझना होगा कि आख़िर एनआरसी है क्या और इसे क्यों शुरू किया गया था। देश की आज़ादी के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोग असम आने लगे थे। 1971 के आते-आते पाकिस्तान की सेना के अत्याचारों से त्रस्त होकर पूर्वी पाकिस्तान के नागरिक भारी संख्या में असम आ गए थे। इनमें से अधिकतर बांग्लाभाषी मुसलिम थे।
असम में अवैध आप्रवासियों की पहचान करने और उन्हें देश से बाहर निकालने की मांग को लेकर 1979 में अखिल असम छात्र संघ (आसू) द्वारा 6 वर्षीय आन्दोलन चलाया गया था। यह आन्दोलन 15 अगस्त, 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ख़त्म हुआ था।
अब बात करते हैं कि असम में एनआरसी का वहां के बीजेपी नेताओं और हिंदू संगठनों के द्वारा पुरजोर विरोध करने के बाद भी आख़िर क्यों दूसरे राज्यों के नेता एनआरसी की मांग उठा रहे हैं।
इसके लिए आपको थोड़ा पीछे लौटना होगा। ऊपर हमने बताया कि पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों से त्रस्त होकर बड़ी संख्या में लोग भागकर पूर्वी पाकिस्तान से असम आ गए थे और इनमें से अधिकांश बांग्लाभाषी मुसलमान थे। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक़, यह सब कवायद इन्हीं लोगों को देश से बाहर करने की है। और इसके नाम पर बीजेपी देश भर के हिंदू बहुल इलाक़ों में ध्रुवीकरण का सियासी लाभ उठाना चाहती है।
बीजेपी के नेताओं ने एनआरसी का ऐसा हौव्वा देश भर में खड़ा कर दिया है कि मानो देश की सारी समस्याओं का एकमात्र समाधान बस यही है। असम का परिणाम जानने के बाद भी वे अपने राज्य में एनआरसी लागू करने को लेकर छटपटा रहे हैं।
बीजेपी के लिए चिंता की बात यह है कि एनआरसी के मुद्दे पर उसे अपने सहयोगियों का भी विरोध झेलना पड़ेगा। जैसे अगर बिहार में वह एनआरसी का मुद्दा उठाती है तो उसे राज्य सरकार में सहयोगी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के विरोध का सामना करना पड़ेगा। जेडीयू इससे पहले तीन तलाक़, अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर भी बीजेपी का विरोध कर चुकी है।
अब इसे लेकर बीजेपी और संघ के स्टैंड के बारे में बात करते हैं। बीजेपी और संघ इन्हें घुसपैठिये कहकर पुकारते रहे हैं। लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष दोनों ही उत्तर और उत्तर-पूर्व की हरेक जनसभा में इसे देश की सबसे गंभीर समस्या करार देते रहे। बीजेपी अध्यक्ष तो इन लोगों को दीमक कहकर संबोधित कर चुके हैं। बीजेपी को इसका फ़ायदा पूर्वोत्तर के चुनाव में तो मिला ही, इसके बाहर भी मिला।
संघ, बीजेपी की मुसीबत
लेकिन एनआरसी बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए मुसीबत भी बन चुका है। क्योंकि संघ की हाल ही में राजस्थान के पुष्कर में चली तीन दिवसीय बैठक में इस मुद्दे पर चिंता जताई गई है कि एनआरसी की फ़ाइनल सूची से छूटे हुए लोगों में अधिकांश हिंदू हैं। संघ ने कहा है कि एनआरसी की फ़ाइनल सूची में कुछ त्रुटियाँ हैं और सरकार को इन्हें दूर करना चाहिए।
संघ ने मोदी सरकार से कहा है कि वह नागरिकता संशोधन विधेयक को दिसंबर में एक बार फिर संसद में पेश करे। संघ ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि एनआरसी की फ़ाइनल सूची से जो 19 लाख लोग बाहर रह गए हैं, उनमें बड़ी संख्या में हिंदू शामिल हैं और उन्हें नागरिकता विधेयक के जरिये राहत दी जाने की कोशिश की जा सकती है।
अब आप समझ सकते हैं कि एनआरसी का यह मुद्दा क्यों खड़ा किया जा रहा है। कुल मिलाकर यह वोटों की फसल काटने की कोशिश है। क्योंकि एनआरसी के नाम पर देश में एक समुदाय को डराने और उन्हें घुसपैठिया साबित करने की कोशिश की जा रही है और इस बात से क़तई इनकार नहीं किया जा सकता। वरना क्यों संघ असम की एनआरसी से बाहर रहे लोगों में सिर्फ़ हिंदुओं की बात करता, वह बाक़ी समुदायों की बात भी तो कर सकता था।
अपनी राय बतायें