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‘एक देश-एक चुनाव’ से पहले देश की ज़रूरत है ‘स्वच्छ चुनाव’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह विधि आयोग को पत्र लिखकर ‘एक देश-एक चुनाव’ के समर्थन में तर्क दे चुके हैं। वर्ष 2003 में लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि सरकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने के मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर रही है। उस समय भी केंद्र में बीजेपी की ही सरकार थी।
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सरकार कह रही है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक बार में कराए जाने से सरकारी खजाने पर बोझ कम पड़ेगा। एक जानकारी के मुताबिक़, 2009 के लोकसभा चुनाव में 1100 करोड़ और 2014 के लोकसभा चुनाव में 4000 करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे। जबकि 2014 में चुनाव आयोग का ख़र्च प्रति मतदाता 14 रुपये था जो 2019 में बढ़कर 72 रुपये हो गया।

इसके अतिरिक्त यदि उम्मीदवारों के ख़र्च की बात करें तो चुनावों को लेकर काम करने वाली संस्था एडीआर की रिपोर्ट्स के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल 30 हजार करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे, जो 2019 में बढ़कर क़रीब 65 हज़ार करोड़ हो गए। 

बीजेपी और मोदी सरकार कह रही है कि एक साथ चुनाव से दूसरा सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि राज्यों को बार-बार आचार संहिता का सामना नहीं करना पड़ेगा। इससे सरकारी कामकाज में भी रुकावट नहीं आएगी। जबकि कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी दलों का कहना है कि ‘एक साथ चुनाव कराना देश की संघीय व्यवस्था पर चोट पहुँचाना होगा।’  वैसे साल 1967 तक देश में चुनाव एक साथ ही होते थे लेकिन 1971 में जब इंदिरा गाँधी ने लोकसभा चुनाव तय समय से एक साल पहले करा दिए। बाद में विधानसभाओं के भंग होने, केंद्र में सरकारों के गिरने से मध्यावधि चुनावों की वजह से यह क्रम टूट गया। 
लेकिन सवाल यह है कि 'एक देश-एक चुनाव' से बड़ा मुद्दा चुनाव सुधारों का है जिसकी माँग देश में सत्तर के दशक से ही उठनी शुरू हो गयी थी लेकिन आज कोई भी सत्ताधारी दल उस पर ध्यान नहीं दे रहा है।
1971 में जब चुनाव हुए और विपक्ष को क़रारी हार मिली तो यह आरोप लगने लगे कि सत्ताधारी दल ने चुनाव में धनबल का जमकर दुरुपयोग किया है। इसी बीच चुनाव सुधार का मुद्दा चर्चा में आया। इससे चिंतित जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने बेंगलुरू के पास हरदनहल्ली में अपने 30-35 बुद्धिजीवी मित्रों की बैठक बुलाई और कई दिनों तक चर्चा की। इस बैठक के मेजबान रामनाथ गोयनका थे। इस तरह जेपी ने पहली बार चुनाव सुधार का एजेंडा देश के सामने रखा। उस समय तारकुंडे समिति की सिफ़ारिशों का सबसे ज़्यादा समर्थन दो पार्टियों जनसंघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने किया था।
फिर जेपी के कहने पर विपक्ष की हर पार्टी ने चुनाव सुधार पर काम किया। जनसंघ में लालकृष्ण आडवाणी, भाकपा में इंद्रजीत गुप्त और सोशलिस्ट पार्टी में मधु लिमये, इस दिशा में आगे बढ़े। उसके बाद 1975 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनसंघ, अन्नाद्रमुक आदि दलों की संयुक्त समिति ने अनेक सुझाव दिये। 1975 में आठ दलों ने एक स्मरण पत्र दिया, जिसमें कई सुझाव दिए गए थे। उसके बाद शुरू हुआ चुनाव सुधारों को लेकर समितियों के गठन का दौर। 
जेपी ने प्रसिद्ध न्यायविद वीएम तारकुंडे की अध्यक्षता में चुनाव सुधार पर विचार के लिए एक कमेटी गठित की। चुनाव आयोग ने 1977 में पूर्व के सभी सुधारों से संबंधित प्रस्तावों की समीक्षा कर 22 अक्टूबर 1977 को एक समग्र प्रतिवेदन भारत सरकार को भेजा।
1982 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एसएल शकधर ने पूर्व के सभी सुझावों की समीक्षा के बाद एक नया प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा। लेकिन इन सुझावों पर  कुछ भी अमल नहीं हो पाया। इसी क्रम में 1990 में पूर्व केंद्रीय क़ानून मंत्री दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट आई।1992 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने गोस्वामी समिति की रिपोर्ट लागू करने के लिए नरसिम्हा सरकार को पत्र भी लिखा, लेकिन इन प्रस्तावों और आयोग के पत्राचारों पर किसी ठोस पहल का समय कभी नहीं आया। जब भी दबाव बढ़ा, सरकार ने कुछ तात्कालिक संशोधनों को पारित कर अपना पिंड छुड़ा लिया।
1989 में जनप्रतिनिधित्व क़ानून - 1951 में संशोधन कर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के इस्तेमाल का रास्ता साफ़ हुआ। अस्सी के दशक में तत्कालीन पीएम राजीव गाँधी ने मतदान की उम्र 21 से घटाकर 18 वर्ष कर दी थी और दलबदल क़ानून को कठोर बनाया।
नब्बे के दशक में जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन अड़ गए और कई राज्यों में पहचान पत्र बनने तक चुनावों को टाल दिया तो मतदान के लिए फ़ोटो पहचान पत्र अनिवार्य कर दिया गया। लेकिन साथ ही सरकार ने सुधार के उलट कुछ ऐसे संशोधन भी किए जो चुनावी पारदर्शिता और राजनीतिक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले थे। उदाहरण के लिए जनप्रतिनिधित्व क़ानून की धारा 17(1) में सरकार ने संशोधन कर सगे-संबंधियों, परिचितों और कार्यकर्ताओं द्वारा चुनाव प्रचार में किए गए ख़र्च को प्रत्याशी के खाते से अलग कर दिया। सभी जानते हैं कि चुनावी ख़र्च की सीमा निर्धारित होने के बावजूद आज प्रत्येक प्रत्याशी का चुनावी ख़र्च बेहिसाब है।
चुनाव सुधार को लेकर संजीदगी का पुट टीएन शेषन के कार्यकाल के दौरान आया। मसलन, चुनाव के दौरान कड़ी आचार संहिता लागू करना, उम्मीदवारों की संपत्ति का लेखा-जोखा, चुनावी ख़र्च और प्रचार की निगरानी आदि।
1989 में ही चुनाव आयोग ने सरकार को सुझाया कि दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से अयोग्य करार दिया जाए। 2001 में नकारात्मक मतदान के अधिकार का प्रस्ताव भी दिया, लेकिन सरकार की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। 2004 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने सुझाव दिया कि प्रत्याशियों को खारिज करने का विकल्प ईवीएम में शामिल हो।

बावजूद इसके जब कोई समाधान नहीं दिखा तो भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दबाव बढ़ाना शुरू किया और पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया। 

दागी नेताओं को अयोग्य ठहराने वाले प्रस्ताव पर अदालती फ़ैसला आने के बावजूद इसे उलटने के लिए अध्यादेश लाया गया, हालाँकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी द्वारा उस प्रस्ताव की प्रति फाड़ देने के बाद मनमोहन सिंह सरकार ने इसे वापस ले लिया था।
चुनाव सुधारों पर हमारे देश में जब जब कोई बात उठी है हर सरकार इससे बच कर निकलने की जुगत भिड़ाती रही। जब गोस्वामी समिति की रिपोर्ट आई तो केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ख़ुद संकट में थी। नरसिम्हा राव सरकार ने भी इसकी सुध नहीं ली। 1993 में वोहरा समिति और फिर 1999 में न्यायमूर्ति बी.जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशें आईं। राजग सरकार ने इन्हें ठंडे बस्ते में ही रहने देने में भलाई समझी।
2001 में संविधान समीक्षा के लिए गठित आयोग ने भी संशोधन का सुझाव दिया था। 2004 में चुनाव आयोग ने नए सिरे से विस्तृत प्रस्ताव भेजा, लेकिन संप्रग सरकार के दोनों कार्यकाल दौरान मनमोहन सरकार मौन रही। चुनाव सुधारों को लेकर हमारे देश की सरकारों की स्थिति किसी सांप-छछूंदर जैसी ही है।
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राइट-टू-रिकॉल की माँग जेपी ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान 1974 में की थी। लेकिन आज तक इस पर कुछ नहीं हुआ। यही नहीं चुनावों में धनबल के दुरुपयोग को देखकर यह भी बात उठी कि सरकारी फ़ंड से चुनाव लड़ाए जाएँ। चुनाव लड़ने के लिए अगर सरकार राजनीतिक पार्टियों को पैसा दे तो चुनावों में पैसे का दख़ल कम हो सकता है। क्योंकि इस दौर में चुनाव, चुनाव नहीं होकर ख़रीद-फरोख़्त का कारोबार ज़्यादा नज़र आते हैं। जून, 1998 में माकपा के इंद्रजीत गुप्ता की अगुवाई में एक संसदीय समिति बनी थी। समिति में मनमोहन सिंह, सोमनाथ चटर्जी, विजय कुमार मल्होत्रा आदि शामिल थे। समिति ने राजनीतिक दलों के लिए सरकारी फ़ंडिंग की सिफ़ारिश की थी। लेकिन जब मनमोहन सिंह 10 साल प्रधानमंत्री रहे तो उन्हें अपनी ही वे सिफ़ारिशें याद नहीं आईं? अभी तक इस बारे में कोई नियम नहीं बना है। 
चुनाव की इस महँगी प्रक्रिया को राज्य पोषित बनाने के विचार को 1999 में आई विधि आयोग की रिपोर्ट तथा वर्ष 2000 में आई संविधान की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय समिति में भी समर्थन मिला था।
2005 में मंत्रिमंडल ने चुनावों का ख़र्च राज्य द्वारा उठाए जाने के संबंध में एक विधेयक को संसद में पेश करने की अनुमति दे दी। लेकिन यह विधेयक मतदान के लिए कभी पेश नहीं किया गया और आज 14 साल बाद फिर वही सवाल खड़ा है कि चुनावी चंदे की पारदर्शिता इलेक्ट्रोल बांड से आएगी या चुनावी चंदे पर पाबंदी लगाकर सरकारी ख़र्च से चुनाव कराए जाएँ?
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1970 से लेकर आज तक चुनाव सुधारों को लेकर जितनी भी समितियाँ बनीं या जितनी भी रिपोर्ट्स आई हैं, सबमें एक बात प्रमुखता से उठायी गयी है वह है चुनावी ख़र्च की पारदर्शिता। प्रत्याशी अपनी आय-व्यय के स्रोत जाहिर करें और अपने आपराधिक रिकॉर्ड को भी बताएँ। लेकिन हक़ीक़त यह है कि आज भी सब एक पर्दे के पीछे छुपा रहता है। जिस इलेक्ट्रोल बांड को चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर लाया गया उसने तो चंदे के खेल का अब तक का सबसे गंदा चेहरा देश के सामने उजागर किया है। कौन किस पार्टी को चंदा दे रहा है, यह चुनाव आयोग तक को पता नहीं चल पा रहा है और वह इस जानकारी के लिए अपने अधिकार की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहा है। ‘एक देश-एक चुनाव’ से पहले इस देश को साफ़ और स्वच्छ चुनाव प्रक्रिया की ज़रूरत है जिस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। 
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संजय राय

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