हम जो कुछ भी इस समय अपने ईर्द-गिर्द घटता हुआ देख रहे हैं उसमें नया बहुत कम है, शासकों के अलावा। केवल सरकारें ही बदलती जा रही हैं, बाक़ी सब कुछ लगभग वैसा ही है जो पहले किसी समय था।
कोरोना संकट के दौरान परदेस में फँसे और पाई-पाई को मोहताज़ ग़रीब और प्रवासी मज़दूरों के लिए कांग्रेस की ओर से मदद का हाथ बढ़ाने की पेशकश से बीजेपी ख़ेमा सकपका क्यों गया?
विदेशों से जिन लोगों को लाया गया है, उनको मुफ्त की हवाई-यात्रा, मुफ्त का खाना और भारत पहुँचने पर मुफ्त में रहने की सुविधाएँ भी दी गई हैं। लेकिन इनके मुक़ाबले हमारे नंगे-भूखे मज़दूरों से सरकार रेल-किराया वसूल कर रही है।
सोनिया गाँधी ने मज़दूरों का ट्रेन किराया पार्टी द्वारा देने की घोषणा करके केंद्र सरकार को बेनकाब कर दिया है। सरकार से जवाब देते नहीं बन रहा है और अब वह राज्य सरकारों के सिर पर ठीकरा फोड़ने में लगी हुई है।
क्या दिल्ली, क्या यूपी और क्या बाक़ी राज्य सरकारें, सभी को कोरोना के कारण आए आर्थिक संकट से निकलने का रास्ता सिर्फ शराब के जरिये होने वाली कमाई से ही दिख रहा है।
नये कोरोना वायरस के जन्म और संक्रमण से पनपी वैश्विक आपदा की चुनौतियों के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में 28 मार्च 2020 को PM CARES फंड बनाया गया।
सफलता क्या है? सफलता ही वह पैमाना है, वह स्केल है, वह मापदंड है जिसके आधार पर समाज व्यक्ति के महत्व को आँकता है, उसके मूल्य का निर्धारण करता है। पर समाज क्या है?
राज्यों की सीमाओं पर अभी ‘कच्ची’ दीवारें उठ रही हैं, प्रदेशों को जोड़ने वाली सड़कों पर अभी ‘अस्थायी’ गड्ढे खोदे जा रहे हैं। सब कुछ कोरोना से बचाव के नाम पर हो रहा है। कोई न तो सवाल कर रहा है और न कोई जवाब दे रहा है।
देश कोरोना के संकट में फँसा है और आप लोगों से थालियाँ और तालियाँ बजवा रहे हैं। एक तरफ़ राहत कार्यों के लिए आप लोगों से दान माँग रहे हैं और दूसरी तरफ़ फ़ौजी नौटंकियाँ में करोड़ों रुपये बर्बाद करने पर उतारू हैं।
समाज की सोच किस तरह से बदलती है, इसका एक अच्छा उदाहरण मशहूर लेखक, उपन्यासकार और नाटककार रोम्यां रोलाँ से जुड़ा है, जिन्हें 1918 में स्पैनिश फ्लू की महामारी ने दबोच लिया था।
धर्म विश्वास और दिव्य रहस्योद्घाटन पर निर्भर है जबकि विज्ञान प्रयोग और तर्क पर निर्भर है। अगर हमें प्रगति करनी है तो हमें धर्म छोड़कर विज्ञान को अपनाना चाहिए।