बंबई उच्च न्यायालय ने सरकार को समाज के जाने माने लोगों की मदद लेने की सलाह दी। मैं बंबई उच्च न्यायालय को कहना चाहता था कि इस समाज में अब कोई ऐसा बचा नहीं। सबकी प्रतिष्ठा रौंद डाली गई है।
जो कम्पनी आज 5000 लोगों को खाना बाँट रही है, वह जब 1000 कामगारों की छँटनी करेगी तो हम जो उससे यह अनुदान लेकर लोगों को ज़िंदा रखने का संतोष लाभ कर रहे हैं, क्या उन कामगारों की तरफ़ से कुछ बोल पाएँगे?
पिछले महीने दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाक़े में जो हिंसा हुई, उसके गुनहगारों को पहचानने और पकड़ने में दिल्ली पुलिस जुटी हुई है। पुलिसकर्मी पूरी चुस्ती के साथ एक-एक कर उन्हें पकड़ रही है।
भूखे भजन न होई गोपाला। पुरानी कहावत है। जब मैं हर रात इस चिंता में रहूँ कि कल सुबह खाना नसीब होगा कि नहीं, कितने बजे आएगा, कितना मिलेगा, ठीक इसी घड़ी कोई मेरी आध्यात्मिक चिकित्सा करने आ धमके तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूँगा?
कोरोना वायरस के फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन किया गया तो हज़ारों लोग पैदल ही घर की ओर निकल गए। आख़िर ये चुपचाप निकल क्यों गए? इन्होंने आवाज़ क्यों नहीं उठाई?
युद्ध, महामारी, ये दो ऐसी स्थितियाँ हैं जिनमें हम सबको भेदभाव भुलाकर न सिर्फ़ एक हो जाने के लिए कहा जाता है, बल्कि राज्य से भी एक हो जाने के लिए कहा जाता है। इसलिए विद्रोह की बात तो कोई सोच ही नहीं सकता।
ऑश्वित्ज़ एक क़त्लगाह का नाम है। ऑश्वित्ज़ में कैद और अनिवार्य हत्या की प्रतीक्षा कर रहे लोगों में से जो बचे रह गए थे उन्हें आज से 75 साल पहले, 27 जनवरी, 1945 को सोवियत संघ की लाल सेना ने मुक्त किया।
जेएनयू में कौन थे ये गुंडे? क्या ये सत्ताधारी दल से जुड़े थे? क्या ये किसी छात्र संगठन के थे? वे इतने इत्मीमान से निकल कैसे गए? एक भी पकड़ा क्यों न जा सका?
नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन क्यों है? क्या यह सिर्फ़ मुसलमान का मामला है? क्या मेरे सामने किसी और को बेइज़्ज़त किया जा रहा हो तो मुझे ख़ामोश रहना चाहिए? क्या उसके बाद भी में इंसान रह जाऊँगा?
नागरिकता संशोधन विधेयक केंद्रीय सरकार के मंत्रिमंडल ने पारित कर दिया है। सरकार इसे क्यों लाना चाहती है? क्या धार्मिक आधार पर ऐसे भेदभाव की इजाज़त संविधान देता है?
महाराष्ट्र में आख़िरकार भारतीय जनता पार्टी जीत गई। कैसे, यह प्रश्न अप्रासंगिक है। जीतना ही असल बात है। जीत ही परम सत्य है। जीत ही नैतिकता है। जो जीतता है, वही सच्चा और नैतिक है।
9 नवंबर, 2019 के बाद अब यह कहा जा रहा है कि ठहरे रहने का नहीं, आगे बढ़ने का वक़्त है। शायद उच्चतम न्यायालय ने अपने फ़ैसले से हमें आगे बढ़ने का अवसर दिया है।