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बंगाल चुनाव: बीजेपी का टैगोर प्रेम क्या ढोंग है?

विधानसभा चुनाव में बंगाली संस्कृति बड़ा चुनावी मुद्दा होगा। लगता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से इसकी तैयारी कर रहे हैं। गुरुदेव की तरह बढ़ती हुई दाढ़ी और उनके गेटअप में प्रधानमंत्री की वायरल फ़ोटो से बीजेपी ने अपने बंगाली अस्मिता की राजनीति का आगाज कर दिया है। क्या बंगाली नवजागरण और गुरुदेव की विरासत पर बीजेपी का दावा चुनावी है?
रविकान्त

बंगाल में चुनाव की सरगर्मियाँ तेज़ हैं। बीजेपी और ममता बनर्जी के बीच कशमकश जोरों पर है। अप्रैल-मई में होने वाले चुनाव को लेकर बीजेपी और ममता बनर्जी ने पूरी तरह से कमर कस ली है। अमित शाह का लगातार बंगाल दौरा, रोड शो और उसके जवाब में ममता बनर्जी की बड़ी रैलियाँ यह साबित करती हैं कि मुक़ाबला काँटे का है।

फ़िलहाल इस राजनीति का केन्द्र बीरभूम ज़िले का चर्चित बोलपुर है। यह समूचे बंगाली समुदाय के लिए पुण्यभूमि है। बंगाली सांस्कृतिक जागरण के नायक रवीन्द्रनाथ टैगोर की कार्यस्थली है, बोलपुर। टैगोर ने 1901 में यहीं पर एक स्कूल खोला था। दरख्तों की छाया में स्थापित इस स्कूल को 1907 में शांति निकेतन नाम दिया गया। 1921 में यह विश्वविद्यालय बना और इसका नाम हुआ, विश्व भारती शांति निकेतन। सौ वर्ष पूरे होने पर 24 दिसंबर 2020 को विश्व भारती के शताब्दी समारोह को वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए प्रधानमंत्री मोदी ने संबोधित किया। अपने अभिभाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद और वैश्विक विजन को याद किया। 

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सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी और बीजेपी का टैगोर के राष्ट्रवाद और वैश्विक नज़रिए में कोई सरोकार है?

बंगाली समुदाय अपनी संस्कृति के प्रति बहुत भावुक है। शक्ति की आराधना करने वाला बंगाली समाज अपने नायकों को ईश्वर की तरह पूजता है। विधानसभा चुनाव में बंगाली संस्कृति बड़ा चुनावी मुद्दा होगा। लगता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से इसकी तैयारी कर रहे हैं। गुरुदेव की तरह बढ़ती हुई दाढ़ी और उनके गेटअप में प्रधानमंत्री की वायरल फ़ोटो से बीजेपी ने अपने बंगाली अस्मिता की राजनीति का आगाज कर दिया है। क्या बंगाली नवजागरण और गुरुदेव की विरासत पर बीजेपी का दावा चुनावी है? विश्व भारती के संदर्भ में ही इस दावे की पड़ताल की जा सकती है।

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ शुरू हुए स्वाधीनता आंदोलन के दरम्यान भारत की दुर्दशा के कारणों की पड़ताल की जा रही थी। ज़्यादातर अभिजात बौद्धिक तबक़े ने राजनीतिक व्याधियों को पराधीनता का कारण माना। इसके बरक्स रवींद्रनाथ टैगोर सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को भारत की दुर्दशा का कारण मानते हैं। इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि टैगौर बहुजन नायकों की तरह भारत की सामाजिक और आर्थिक व्याधियों के लिए बुनियादी शिक्षा के अभाव को दोषी मानते हैं। उनके शब्दों में,

‘मेरे विचार में तो भारत की छाती पर जो दुखों की मीनार खड़ी है, उसकी जड़ें केवल शिक्षा के अभाव में जमी हुई हैं। जातीय विभाजन, धार्मिक टकराव, कार्य विमुखता और नाजुक आर्थिक परिस्थितियाँ; ये सभी इसी एक कारक की देन हैं।’

आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए गाँधी द्वारा चरखा चलाने के आह्वान की आलोचना करते हुए टैगोर ने कहा, “भारत का भविष्य शिक्षा पर ही निर्भर करता है, चरखा चलाने के 'महान' त्याग पर नहीं।”

भारत के भविष्य को सँवारने के लिए रवीन्द्र नाथ टैगोर ने सार्वजनिक जीवन में क़दम रखते हुए सबसे पहले स्कूल खोला। गुरुकुल की तरह स्थापित यह अपनी तरह का पहला स्कूल था। कवि, चित्रकार और संगीतकार द्वारा स्थापित यह स्कूल प्रकृति के मुक्त वातावरण में स्थापित हुआ।

कक्षाएँ ही चहारदीवारी से मुक्त नहीं थीं बल्कि पठन-पाठन भी तमाम दायरों से स्वतंत्र था। शांतिनिकेतन में अनुशासन के स्थान पर प्रेरणा पर जोर दिया जाता था। प्रतिस्पर्धा के स्थान पर विचार-विमर्श, संवाद-संप्रेषण और बौद्धिक जिज्ञासा पैदा करना टैगोर का उद्देश्य था। उन्होंने  अपने जीवन की पूरी कमाई शांति निकेतन स्थापित करने में लगा दी। भाषणों और नोबेल पुरस्कार से प्राप्त धनराशि टैगोर ने शांति निकेतन पर ख़र्च कर दी। महात्मा गांधी ने भी शांति निकेतन के लिए धन संग्रह किया। शांति निकेतन में साहित्य, कला, दर्शन के साथ-साथ विज्ञान की शिक्षा को प्राथमिकता दी गई। अंग्रेजी के बजाय बांग्ला को पढ़ाई का माध्यम बनाया गया। दुनिया की तमाम सभ्यताओं और संस्कृतियों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।

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शांति निकेतन में बड़ी तादाद में विदेशी छात्र भी पढ़ने आते थे। अध्यापकों में सिलवाँ लेवी, स्टेनकोनो, नंदलाल बोस, क्षितिमोहन सेन और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे मूर्धन्य शामिल थे। नोबेल से सम्मानित प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन शांति निकेतन के विद्यार्थी रहे हैं। टैगोर और शांति निकेतन के बारे में उन्होंने लिखा,

“शांतिनिकेतन में पला-बढ़ा होने के नाते, मैं टैगोर को एक शिक्षाविद के रूप में अधिक जानता हूँ। यह स्कूल अनेक दृष्टियों से विलक्षण था। प्रयोगशाला कार्य को छोड़कर सारी कक्षाएँ (जब भी मौसम साथ देता) खुले मैदान में होती थीं। रवींद्रनाथ के इस सिद्धांत के प्रति कि खुले में पढ़ते हुए हम प्रकृति से भी बहुत कुछ सीखते ग्रहण करते हैं, वातावरण हमें बहुत लुभाता था। पाठ्यक्रम की दृष्टि से तो स्कूल का कार्य बहुत बोझिल नहीं था। प्रायः परीक्षाएँ भी नहीं होती थीं और सामान्य शैक्षणिक मानदंडों के आधार पर यह कलकत्ता के जाने-माने स्कूलों से स्पर्धा नहीं कर पाता था, किंतु जिस सहज भाव से कक्षा में चल रही बातचीत परंपरागत भारतीय साहित्य से समकालीन और क्लासिकी पाश्चात्य चिंतन की परिक्रमा कर चीन, जापान या किसी और सभ्यता तक पहुँच जाती थी, वह निश्चय ही अद्भुत था। समय-समय पर भारत को ग्रस लेने वाली सांस्कृतिक संकीर्णता और अलगाववादी प्रवृत्तियों की तुलना में तो शांति निकेतन स्कूल में विविधता का उत्सव-सा मनता रहता था।”

1921 में जब रवीन्द्रनाथ टैगोर लंदन से लौटे तब भारत में पश्चिम का बहिष्कार चल रहा था। गाँधी के आह्वान पर शुरू असहयोग आंदोलन में विदेशी वस्त्रों, सरकारी स्कूलों और संस्थानों का बहिष्कार किया जा रहा था। भारतीय नौजवानों में पश्चिम के प्रति उपजे नफ़रत और क्रोध को टैगोर ने अलग नज़रिए से देखा। दरअसल, इसका असर भारत के बाहर भी था। टैगोर इस बात से दुखी थे। रोम्या रोलां ने अपनी किताब 'महात्मा गांधी: जीवन और दर्शन' में लिखा है,

“सन् 1921 की वसंत ऋतु में जब रवींद्रनाथ लंदन में थे और उन्हें यह दुखद ख़बर मिली थी कि भारत के छात्र किस तरह पाश्चात्य शिक्षा के बहिष्कार में जुट गए हैं, तभी लंदन में ही उनकी आँखों के सामने एक ऐसी घटना घटी, जिसमें उन्होंने मूर्खतापूर्ण राष्ट्रीयता का एक उग्र दृष्टांत देखा। उन्होंने देखा कि उनके अंग्रेज़ मित्र पियर्सन के एक भाषण में कुछ भारतीय छात्रों ने अपमानजनक व्यवहार किया। क्रोध से अंधे होकर उन्होंने शांति निकेतन के प्राचार्य को पत्र लिखा। उन्होंने लिखा, ‘ऐसा आचरण केवल असहिष्णु चित्त की हीनता ही प्रमाणित करता है। उन्होंने यह भी लिखा कि यह सब असहयोग आंदोलन का ही परिणाम है’।” 

टैगोर के अभियोग का गांधी ने जवाब देते हुए कहा,

‘पश्चिमी शिक्षा भारत की युवा शक्ति को निस्तेज कर रही है।’

अलबत्ता, छात्रों के दुर्व्यवहार की आलोचना करते हुए उनका कहना था कि,

‘मैं यह नहीं चाहता कि अपने घर के चारों ओर दीवार उठा लूँ या उसकी खिड़कियाँ बंद कर लूँ बल्कि मैं तो यह चाहता हूँ कि उस घर में सभी देशों की संस्कृतियों की हवा बेरोकटोक आए। लेकिन मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उस हवा के झोंके से मैं ख़ुद ही गिर जाऊँ।’  

टैगोर बहुत सावधानी से राष्ट्रवाद की कट्टरता और बढ़ती संकीर्णता को देख रहे थे। वह एक ऐसे भारत की कल्पना करते हैं जिसमें दुनिया के तमाम विचारों की आवाजाही हो। भारत का तसव्वुर विविध दर्शन, साहित्य और कलाओं से सराबोर हो। टैगोर का विजन वैश्विक और मानवतावादी है। इसीलिए टैगोर राष्ट्रवाद और पूरब-पश्चिमवाद की आलोचना करते हैं।

टैगोर ने विश्व भारती को अपने सपनों का विश्वविद्यालय बनाया। यहाँ प्रकृति के आगोश में गुरु के समीप रहकर विद्यार्थी अध्ययन ही नहीं करते थे बल्कि विचारों में भी समावेशी बनते थे। प्रसिद्ध फ़िल्मकार सत्यजीत राय ने 1991 में कहा था,

‘मैं शांतिनिकेतन में बिताए तीन वर्षों को अपने जीवन के सबसे अधिक उपयोगी वर्ष मानता हूँ। शांतिनिकेतन ने ही मुझे सबसे पहले भारतीय और सुदूर प्राच्य कलाओं के दर्शन कराए। उससे पूर्व तो मैं पूरी तरह पाश्चात्य कला, संगीत और साहित्य के मोहपाश में फँसा हुआ था। शांतिनिकेतन ने ही मुझे पूर्व और पश्चिम की साझी सृष्टि का वह अस्तित्व प्रदान किया है जो आज मैं हूँ।’ 

स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र, सांस्कृतिक बहुलता और विचारों की विविधता पर टिप्पणी करते हुए, टैगोर के जीवनीकार एडवर्ड थॉमसन के पुत्र ई. पी. थॉमसन ने लिखा है,

‘इस भारतीय समाज में विश्व के सभी विचारों की धारा प्रवाहमान है;  हिंदू, मुसलिम, ईसाई, धर्मनिरपेक्ष, स्तालिनवादी, उदारवादी, माओवादी, लोकतांत्रिक समाजवादी, गांधीवादी और न जाने कितने-कितने वादों में विश्वास रखने वाले! पूर्व और पश्चिम का कोई ऐसा विचार नहीं है जो किसी न किसी भारतीय के मस्तिष्क में सक्रिय नहीं हो।’  

जाहिर तौर पर भारत के बारे में थॉमसन के विचारों को पढ़कर टैगोर बहुत ख़ुश होते। लेकिन सवाल यह है कि थॉमसन जिस भारत की प्रशंसा कर रहे थे, क्या वह आज भी वैसा ही है।

आज हिंदुत्व की राजनीति ने अन्य सभी विचारधाराओं को खारिज ही नहीं किया है बल्कि शत्रु विचार बना दिया है। इसलिए मुसलिम आतंकवादी और पाकिस्तानी हैं। वामपंथी नक्सली और और देशद्रोही हैं। गांधीवादी, समाजवादी, उदारवादी 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' हैं। हिंदुत्व की कट्टरता और फासिस्ट राजनीति आज भारतीय लोकतंत्र के स्थाई मुहावरे बन गए हैं। दिल्ली की सीमाओं पर डटे आंदोलनकारी किसानों को भी देशद्रोही और खालिस्तानी बताकर, उनका दानवीकरण किया जा रहा है।

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किसानों के आंदोलन को देखकर टैगोर का नाटक 'राजा ओ रानी' याद आता है। हुकूमत द्वारा थोपी गई शोषण और अन्यायकारी नीतियों के ख़िलाफ़ भूखी जनता विद्रोह पर उतर आती है। तड़प-तड़पकर मर रही जनता के साथ नाटक में सहृदय रानी आ जाती है। लेकिन किसान आंदोलन में ठंड से दम तोड़ते और आत्महत्या करते किसानों के साथ लोकतांत्रिक सरकार का कोई पक्ष नहीं है। यही कारण है कि शांति निकेतन के पूर्व छात्र अमर्त्य सेन ने मोदी सरकार को ब्रिटिश सरकार से ज़्यादा निर्दयी क़रार दिया है।

सोवियत संघ की यात्रा पर स्कूलों की व्यवस्था देखकर टैगोर बहुत प्रभावित हुए थे। लेकिन उन्होंने सोवियत संघ में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबंदी की तीखी आलोचना भी की थी। आज के भारत में ये दोनों बातें चिंतित करती हैं। सरकारी स्कूल तबाह हो चुके हैं।

आज़ादी के सात दशक बाद भी ड्रॉप आउट की समस्या ख़त्म नहीं हुई है। शिक्षाविद अनिल सद्गोपाल का मानना है कि सरकार और अभिजात व्यवस्था में आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और ग़रीब पिछड़े बच्चों को जबरन बेदखल किया जा रहा है। यह ड्रॉप आउट नहीं बल्कि पुश आउट है।

नई शिक्षा नीति 2020 में व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर ग़रीब बच्चों को उच्च शिक्षा से वंचित कर स्किल्ड लेबर बनाने की साज़िश की गई है। दूसरी तरफ़ जेएनयू, जामिया, हैदराबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी, जाधवपुर विश्वविद्यालय से लेकर ख़ुद शांति निकेतन के स्वतंत्र शैक्षिक माहौल को ख़त्म करके, इनका भगवाकरण किया जा रहा है। पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बोलने की आज़ादी पर पहरा बिठा दिया गया है। सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों को देशद्रोह और यूएपीए जैसी संगीन धाराओं में जेल में ठूँसा जा रहा है। ऐसे में बीजेपी और नरेंद्र मोदी का टैगोर प्रेम महज ढोंग लगता है।

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