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फ़ोटो साभार : ट्विटर/शफिउर रहमान

म्यांमार: फौजी शासन, दमन का दौर कब तक चलेगा?

तो क्या म्यांमार की जनता को एक बार फिर से लंबे सैनिक शासन के लिए तैयार हो जाना चाहिए? नए शासकों ने कहा है कि वे साल भर के अंदर नए चुनाव कराएँगे। लेकिन उनके इस वादे पर किसी को भरोसा नहीं है, इसलिए संघर्ष जारी रहेगा। बर्मियों को सैन्य शासकों से लड़ने का लंबा अभ्यास हो गया है। साथ ही पिछले पाँच सालों में नियंत्रित लोकतंत्र ने उनमें लोकतंत्र और आज़ादी की भूख को और भी बढ़ा दिया है। 
मुकेश कुमार

एक फ़रवरी को तख्ता पलटने के बाद से म्यांमार के फौजी शासकों ने बर्मी जनता का जो दमन शुरू किया था, उसकी तीव्रता बढ़ती जा रही है और वह अधिक हिंसक होता जा रहा है। दुनिया भर में हो रही निंदा-भर्त्सना का उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। हाँ, वे अपनी तरफ़ से पूरा संयम बरतने का झूठा दावा करके दुनिया को भरमाने की नाकाम कोशिशें ज़रूर कर रहे हैं। 

इसकी ताज़ा मिसाल है बुधवार को देश के यांगोन और मंडालय समेत कई शहरों में प्रदर्शनकारियों पर किया गया बेरहम बल प्रयोग। इस कार्रवाई में चालीस से ज़्यादा लोगों के मारे जाने की ख़बर है।

 शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे बर्मियों पर पुलिस और सेना ने बड़ी निर्ममता से लाठियाँ और गोलियाँ चलाई हैं। इन तमाम घटनाओं के सैकड़ों वीडियो दुनिया भर में उपलब्ध हैं, जो बताते हैं कि फौजी शासकों द्वारा संयम बरतने के तमाम दावे झूठे हैं। 

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प्रदर्शनकारियों को कुचलने के लिए उस कुख्यात फौजी टुकड़ी का प्रयोग भी किया जा रहा है जिसने रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार में भूमिका निभाई थी। इस नरसंहार में हज़ारों मुसलमानों को मार डाला गया था और हज़ारों को ही जेल में ठूँसकर अमानवीय यातनाएँ दी गई थीं। इन फौजियों के अत्याचारों की वज़ह से ही लाखों रोहिंग्या भागकर पड़ोसी देशों में शरण लेने के लिए मजबूर हो गए थे। 

विरोध का सिलसिला तख़्तापलट के दूसरे दिन से ही शुरू हो गया था। पहले देश के सबसे बड़े शहर यांगोन में प्रदर्शन हुए और फिर उसके बाद देश के दूसरे बड़े-छोटे शहरों में फैलने शुरू हो गए। शासकों को यह उम्मीद थी कि विरोध-प्रदर्शन कुछ समय में शांत हो जाएँगे या वह उसे कुचलने में कामयाब हो जाएँगे, लेकिन हुआ उल्टा। दमन के बावजूद लोकतंत्र की बहाली की माँग कर रहे प्रदर्शनकारियों की संख्या लगातार बढ़ती गई। 

बर्मी सेना और पुलिस अब तक कम से कम अस्सी लोगों की हत्या कर चुकी है और क़रीब डेढ़ हज़ार लोगों को उसने जेल में ठूँस दिया है। गिरफ़्तार किए गए लोगों में देशी-विदेशी पत्रकार भी शामिल हैं। ये सिलसिला लगातार जारी है। 

म्यांमार के लिए फौजी हस्तक्षेप और दमन कोई नई बात नहीं है। बीसवीं सदी के साठ के दशक से ही बर्मी फौजी शासकों को झेल रहे हैं और उनसे संघर्ष भी कर रहे हैं।

1948 में आज़ाद हुए म्यांमार में दस साल बाद ही फौजी हस्तक्षेप हुआ, लेकिन अच्छी बात यह रही कि वह दो वर्षों बाद समाप्त भी हो गया। 1960 में हुए चुनाव के बाद नागरिक सरकार फिर से बन गई।

म्यामांर का दुर्भाग्य 1962 में शुरू हुआ जब सैन्य तख्ता पलट के ज़रिए ने विन ने सत्ता पर कब्जा कर लिया और फिर यह फौजी तानाशाह 26 वर्षों तक देश को अपने बूटों तले कुचलता रहा। 1988 में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन शुरू हुआ जिसके बाद से विन को सत्ता से हटना पड़ा। एक परिषद का गठन करके सेना ने 1990 में इस उम्मीद से चुनाव करवाए कि जीत उसकी होगी, लेकिन उल्टा हो गया। आंग सान सू ची की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की शानदार जीत हुई। सेना ने उसे सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया और अगले 22 साल तक वह काबिज़ रही।

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सन् 2008 में बनाए गए संविधान के तहत 2011 में लोकतंत्र बहाली का कार्यक्रम बनाया गया और 2015 में चुनाव कराए गए। चुनाव में एनएलडी फिर जीती, मगर सत्ता पर सेना की पकड़ बरक़रार रही क्योंकि संविधान के मुताबिक़ संसद के एक चौथाई सदस्यों को चुनने का अधिकार सेना के पास था। उसने अपनी इस ताक़त के बल पर सरकार को ऐसा कोई भी क़दम उठाने से रोक दिया जो लोकतंत्र की तरफ़ जा सकता था। 

नवंबर, 2020 में हुए चुनाव ने स्थितियाँ एकदम से बदल डालीं। इस चुनाव में 476 सीटों में से 396 सीटें एनएलडी ने जीत लीं। इस जीत का मतलब था कि उनके पास इतना बहुमत आ गया कि वे संविधान में संशोधन करके सेना की भूमिका को सीमित कर सकती थी। 

एनएलडी की नेता आँग सान सू ची ने चुनाव प्रचार के दौरान इस आशय के बयान भी दिए थे। सेना इसके लिए तैयार नहीं थी, इसलिए शपथ ग्रहण समारोह के एक दिन पहले ही उसने तख्तापलट दिया।

तख्तापलट की अफवाहें पहले से ही हवा में थी और कई पश्चिमी देशों ने अपनी आशंकाओं का इज़हार भी कर दिया था, मगर सेना तो मन बनाकर बैठी थी, इसलिए उसने क़तई परहेज नहीं किया और मिन आन हैलांग ने बागडोर अपने हाथ में ले ली। 

तख्तापलट के साथ ही राष्ट्रपति विन मिंट और आंग सान सू ची सहित एनएलडी के तमाम बड़े नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया और वे आज तक क़ैद में ही हैं। आंदोलनकारी उनकी रिहाई की माँग कर रहे हैं, मगर सैनिक शासक उन्हें छोड़ने के मूड में नहीं हैं, बल्कि उन्होंने उन पर और आरोप लगाकर क़ैद में रखने का इंतज़ाम कर दिया है।

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एनएलडी के नेताओं ने एक अंतरिम सरकार का गठन कर लिया है और दुनिया भर के देशों से अपील की है कि वे उसे अधिकृत सरकार के रूप में मान्यता प्रदान करें।

संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख एंतोनियो गुतरेस ने सैनिक शासन द्वारा किए जा रहे दमन की कड़ी निंदा की है और यह भी कहा है कि केवल निंदा ही काफी नहीं है, दुनिया को कार्रवाई करना चाहिए और ज़रूर करना चाहिए। पश्चिमी देशों ने भी चिंता जताई है और आर्थिक एवं दूसरे तरह के प्रतिबंधों की बात कही है। लेकिन इस बात की संभावना कम दिख रही है कि कोई बड़ी कार्रवाई हो पाएगी क्योंकि सुरक्षा परिषद में रूस और चीन ऐसे किसी क़दम को वीटो कर सकते हैं।

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दरअसल, दुनिया को चीन से ही उम्मीद है, क्योंकि म्यांमार पर उसका अच्छा प्रभाव है और वह उसे लोकतंत्र बहाली के लिए तैयार कर सकता है। लेकिन जो देश ख़ुद लोकतांत्रिक नहीं है और हांगकांग में लोकतंत्र का दमन कर रहा है, उससे इस तरह की उम्मीद रखना छलावा ही होगा। चीन अपने सामरिक कारणों से कुछ ज़्यादा नहीं करने वाला और न ही भारत ऐसा करने में रुचि रखता है, क्योंकि उसे भी म्यांमार के शासकों से बनाकर रखना है।

तो क्या म्यांमार की जनता को एक बार फिर से लंबे सैनिक शासन के लिए तैयार हो जाना चाहिए? नए शासकों ने कहा है कि वे साल भर के अंदर नए चुनाव कराएँगे। लेकिन उनके इस वादे पर किसी को भरोसा नहीं है, इसलिए संघर्ष जारी रहेगा। बर्मियों को सैन्य शासकों से लड़ने का लंबा अभ्यास हो गया है। साथ ही पिछले पाँच सालों में नियंत्रित लोकतंत्र ने उनमें लोकतंत्र और आज़ादी की भूख को और भी बढ़ा दिया है। इसलिए ऐसा नहीं लगता कि वे हार मानकर बैठ जाएँगे। वे लड़ेंगे और फौजी शासकों की नींद हराम करते रहेंगे।
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