ओआईसी में कश्मीर
इस घटना के तुरन्त बाद ही पाकिस्तान ने 57 मुसलमान-बहुल देशों के संगठन ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ इसलामिक कोऑपरेशन में कश्मीर का मुद्दा उठाया। ओआइसी ने कश्मीर की स्थिति को बदलने पर चिंता जताई और स्थानीय लोगों के तमाम राजनीतिक अधिकार जल्द से जल्द बहाल करने की मांग कर दी। पर इसलामाबाद इससे संतुष्ट नहीं था। उसने मांग की कि ओआइसी सभी सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाए और इसमें कश्मीर पर चर्चा हो और भारत पर हर तरह का दबाव बनाया जाए।क़रार में रिलायंस की हिस्सेदारी खरीदने से लेकर साझा उपक्रम की नई कंपनी बनाने, तेल साफ करने वाला कारखाना लगाने से लेकर कई तरह की बातें थीं। सऊदी अरब इस पर अरबों डॉलर का निवेश करने को तैयार हो गया। ऐसे में वह नहीं चाहता था कि भारत पर दबाव बनाया जाए।
सऊदी को दरकिनार करने की राजनीति
लेकिन ओआइसी में सऊदी अरब के ख़िलाफ़ चल रहा असंतोष एक दूसरा और बड़ा कारण था। अरब देशों को छोड़ ज़्यादातर मुसलिम देश सऊदी अरब के बहावी इसलाम की छाया से बाहर निकलना चाहते हैं क्योंकि उनके अपने यहां आक्रामक व उग्रवादी इसलाम तेज़ी से फैल रहा है। इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्रूनेई जैसे देश बहावी इसलाम से बाहर निकलना चाहते हैं क्योंकि इंडोनेशिया जैसे उदार और शांतिप्रिय देश में भी कट्टर इसलाम तेज़ी से फैल रहा है।सऊदी अरब के प्रभाव को कम करने और ओआइसी में उसे किनारे करने के लिए कश्मीर का इस्तेमाल इसी समय निर्णायक ढंग से होना शुरू हुआ। पाकिस्तान ने अक्टूबर में ओआइसी के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाने को सऊदी अरब से कहा। वह बैठक नहीं हुई।
मलेशिया-तुर्की
पहले मलेशिया ने सीएए पर भारत से आधिकारिक तौर पर विरोध जताया, भारत ने उसके जवाब में कुआलालम्पुर से पाम ऑयल लेना बंद कर दिया। मलेशिया का 30 प्रतिशत पाम ऑयल भारत खरीदता है। मलेशियाई अर्थव्यस्था को झटका लगा।उस बैठक की एक बड़ी बात यह उभरी कि उसमें तुर्की के राष्ट्रपति रिचप तैयप अर्दोवान ने भाग लिया। अर्दोवान दरअसल इसलामी दुनिया पर अपनी पकड़ बनाना चाहते हैं। वह उम्मा के प्रमुख बनना चाहते हैं जो फिलहाल सऊदी अरब है।
कश्मीर पर मुखर तुर्की
अर्दोवान का मलेशिया दौरा अहम इसलिए भी था कि उसके कुछ दिन पहले उन्होंने कश्मीर के मुद्दे पर बहुत ही मुखर होकर भारत का विरोध किया था। अंकारा ने कश्मीर के विशेष दर्जा को ख़त्म करने का ज़ोरदार विरोध किया। उसने सीएए और एनआरसी पर भी भारत का जम कर विरोध किया।संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में भाग लेने न्यूयॉर्क गए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अर्मीनिया और साइप्रस के प्रतिनिधियों से मुलाक़ात की। इन दोनों देशों से तुर्की के गंभीर सीमा विवाद हैं, हमेशा ही तनातनी का माहौल रहता है। भारत ने संदेश साफ़ दे दिया तुर्की भारत को परेशान न करे।
लेकिन तुर्की की कश्मीर में दिलचस्पी घटने के बजाय बढ़ती ही चली गई। उसने 'संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के आधार कश्मीरियों के हितों को ध्यान में रखते हुए कश्मीर समस्या के निपटारे' की बात एक नहीं कई बार कही, ज़ाहिर है, इससे भारत चिढ़ा।
तुर्की को चीन की शह क्यों?
इस मामले में चीन की भूमिका के तीन आयाम हैं। चीन पाकिस्तान के साथ मिल कर तुर्की के नज़दीक आना चाहता है क्योंकि उसे बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के लिए तुर्की से रास्ता चाहिए। यदि उसे यह रास्ता मिल जाए तो वह सेंट्रल एशिया से निकल कर तुर्की होते हुए यूरोप तक बड़े आराम से पहुँच जाएगा। तुर्की के रास्ते के इस्तेमाल करते हुए वह भूमध्य सागर के बंदरगाहों का भी प्रयोग कर सकता है।दूसरे, चीन तुर्की का इस्तेमाल कर कश्मीर के मुद्दे पर भारत पर दबाव अधिक बढ़ा सकता है। इसके पीछे समीकरण यह है कि यदि तुर्की मुसलिम उम्मा का प्रमुख बन ही गया तो चीन के लिए यह फ़ायदेमंद होगा कि वह कश्मीर मुद्दे को इस तरह उलझाए रखे कि भारत अक्साइ चिन की ओर न देखे।
चीन की कोशिश है कि जिस तर पाकिस्तान कश्मीर पर मुखर है, लेकिन उसे उइगुर में मुसलमानों के साथ हो रहा कोई अन्याय नहीं दिख रहा है, वैसा ही तुर्की भी करे। तुर्की उइगुर मुसलमानों पर चुप रहे।
हागिया सोफिया से संकेत
यही तुर्की के साथ दिक्क़त है क्योंकि तुर्की की दिलचस्पी मुसलिम उम्मा का प्रमुख बनने में है, कश्मीर तो सिर्फ एक बहाना है। मुसलमानों का नेता बनने की कोशिश के रूप में ही हागिया सोफ़िया को म्यूजियम से मसजिद में तब्दील कर दिया गया। इसके उद्घाटन कार्यक्रम की अजीब स्थिति यह थी कि देश का राष्ट्रपति एक धार्मिक समारोह में सार्वजनिक रूप से भाग ले रहा था, वह नमाज पढ़ रहा था। तुर्की संवैधानिक रूप से अभी भी धर्मनिरपेक्ष देश है। अर्दोवान धर्म के इस लबादा को फेंक देना चाहते हैं।तुर्की-पाकिस्तान
ऐसे में तुर्की उइगुर के मुद्दे पर चुप कैसे रहे, दिक्क़त यह है। चीन चाहता है, वह चुप रहे। मलेशिया चुप है, पाकिस्तान चुप है, तुर्की भी चुप रहे।कश्मीर पर पाक-तुर्की जोड़ी
भारत के लिए परेशानी का सबब यह है कि तुर्की कश्मीर के मुद्दे पर बिल्कुल पाकिस्तान की भाषा बोलने लगा है। वह खुले आम कश्मीर, संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव वगैरह की बात करने लगा है। फरवरी 2020 में अर्दोवान ने कहा,“
'तुर्की की सरकार और इसके लोग कश्मीर के साथ खड़े हैं, उन पर तरह-तरह का उत्पीड़न हो रहा है। हम इस बात पर चिंतित हैं कि हाल में कुछ कदम उठाए जाने के बावजूद राज्य की स्थिति बदतर हुई है। तुर्की चाहता है कि कश्मीर समस्या का समाधान संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के मुताबिक हमारे कश्मीरी भाइयों की आकांक्षाओं के अनुरूप निकाला जाए।'
रिचप तैयप अर्दोवान, राष्ट्रपति, तुर्की
सऊदी पर पाकिस्तानी दबाव
कश्मीर पर तुर्की की इस गहरी दिलचस्पी का ही नतीजा है कि पाकिस्तान ने सऊदी अरब पर दबाव बनाया है कि वह ओआइसी के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाए। पाकिस्तान के विदेश मंत्री महमूद शाह कुरेशी ने पिछले सप्ताह तल्ख़ी से कहा कि यदि सऊदी अरब यह बैठक नहीं बुलाता है तो पाकिस्तान बुलाएगा और उसमें वे देश भाग लेंगे जो कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ हैं, इसमें शिरकत करेंगे।महमूद शाह कुरैशी के इस एलान अगले ही दिन पाकिस्तान ने सऊदी अरब को एक अरब डॉलर का क़र्ज़ वापस कर दिया।
इस क़र्ज़ वापसी का मजेदार पक्ष यह है कि उसे चुकाने में अभी चार महीने का समय बचा था, यानी इसलाबाद ने समय से पहले ही कर्ज चुका दिया। इसकी वजह यह मानी जा रही है कि इसके पहले रियाद ने पाकिस्तान को देने वाले तेल की सप्लाई रोक दी थी।
पाक को सऊदी तेल नहीं
इसकी कहानी यह है कि 2018 में जब पाकिस्तान फटेहाल था, कोई पैसे देने को तैयार नहीं था, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी इनकार कर दिया था, सऊदी अरब ने पाकिस्तान को 6.20 अरब डॉलर का क़र्ज़ दिया। इसमें 3 अरब डॉलर नकद और 3.2 अरब डॉलर का तेल था।यह अजीब स्थिति है। जिस तुर्की का आधा देश यूरोप में पड़ता है, यूरोपीय संघ का सदस्य बनने के लिए जिसका आवेदन अभी भी संघ के मुख्यालय ब्रसेल्स में लंबित पड़ा हुआ है, वह इसलामी देशों का प्रधान बनना चाहता है।
नास्तिक और कम्युनिस्ट देश चीन जो स्वयं एक तरह के इसलामी उग्रवाद का शिकार है, वह इसलामी देशों की राजनीति में फँस रहा है।
कश्मीर के मुसलमानों के लिए आँसू बहाने वालों को शिनजियांग के मुसलमानों से कोई मतलब नहीं है। 57 मुसलमान देशों का संगठन ओआईसी तमाम मुद्दों पर चुप और गुमसुम है।
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