loader

पसरती जा रही है मंदी, सरकार को क्यों नहीं दिख रही?

मंदी को स्वीकार न करके भी सरकार जो क़दम उठा रही है वह मंदी से लड़ने की उल्टी दिशा है। कई बार लगता है कि यह समझ का फेर या ग़लती न होकर अपने प्रिय लोगों का खजाना भरने और बाक़ी सभी को भगवान भरोसे छोड़ने की सोची-समझी रणनीति है। आर्थिक सलाहकार सलाह न माँगे जाने से परेशान होकर भाग रहे हैं और सारे फ़ैसले अनपढ़ लोग ले रहे हों तो इसे मात्र समझ का फेर मानना भी मूर्खता ही होगी।
अरविंद मोहन

बहुत जल्द ही आर्थिक मंदी देश के शासन में राजनैतिक लड़ाई का रूप लेने जा रही है। मंदी से राजस्व वसूली में आई गिरावट के बाद केंद्र ने राज्यों की हिस्सेदारी में कटौती शुरू कर दी है। उसने विलासिता की चीजों पर जीएसटी के ऊपर लगने वाले उपकर वसूलने के बाद भी राज्यों के हिस्से के लगभग बीस हज़ार करोड़ रुपए नहीं दिए हैं। मामला सिर्फ़ भुगतान न करने या देरी का नहीं है। केंद्र ने यह भुगतान न करने का पत्र राज्यों को लिखा है और राजस्व में आ रही गिरावट को वजह बताया है, जबकि जीएसटी क़ानून के अनुसार राज्यों का हिस्सा रोका नहीं जा सकता है। केरल समेत कई राज्यों ने विरोध किया है और 18 दिसंबर को होने वाली जीएसटी काउंसिल की बैठक में यह मुद्दा ज़ोर-शोर से उठने की उम्मीद है। कई राज्यों के राजस्व में इतनी कमी आ गई है कि वे अपने कर्मचारियों का वेतन देने में परेशानी महसूस करने लगे हैं। राज्य राजस्व वसूल कर सिर्फ़ अपने अधिकारियों-कर्मचारियों के ऊपर ख़र्च करे यह मुश्किल तो है ही विलासिता की चीजों और सिगरेट-शराब जैसी चीजों पर नया उपकर लगाकर और वसूली करे यह भी आसान विकल्प नहीं है।

सम्बंधित खबरें

मुश्किल यह है कि ऐसी स्थिति आने और सुब्रमण्यन स्वामी जैसे बीजेपी नेताओं के खुलकर बोलने के बावजूद सरकार अभी भी मंदी का खंडन ही कर रही है। जिस दिन जीडीपी अर्थात सकल घरेलू उत्पादन के विकास दर में छह साल का सबसे निचला स्तर आ जाने की ख़बर आई उससे ठीक एक दिन पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण संसद में यह बात बहुत ज़ोर-शोर से कह रही थीं कि विकास दर में कुछ कमी ज़रूर आई है लेकिन मंदी नहीं है। इसके साथ ही वह अपनी तरफ़ से दिखाई जानी वाली मुस्तैदी की चर्चा भी कर रही थीं और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में तेज़ी लाने वाले क़दमों का ज़िक्र कर रही थीं। तीसरी तिमाही की गिरावट का सबसे डरावना पक्ष यह है कि करखनिया उत्पादन में गिरावट शुरू हो गई है और संरचना क्षेत्र में मंदी पहुँच गई है। कोयले की माँग में चौथाई तक की कमी दिखने लगी है तो बिजली-घरों का प्लांट लोड फ़ैक्टर पचास फ़ीसदी के नीचे आ गया है और रेलवे का ऑपरेटिंग रेशियो दस साल के निचले स्तर पर आ गया है। बाद में वित्त मंत्री की तरफ़ से नहीं, सरकार की तरफ़ से बयान आया कि चिंता की कोई बात नहीं है।

पर यह चिंता की बात है। आर्थिक गिरावट के लिए बहुत ज़्यादा आँकड़े देकर इस चर्चा को बोझिल करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन कुछ आँकड़े बताना ज़रूरी है।

विकास दर में एक फ़ीसदी गिरावट का व्यावहारिक मतलब प्रति व्यक्ति आय में सौ रुपए से ज़्यादा (103 रुपये) की कमी होना है। और इस कमी का मतलब प्रति व्यक्ति ख़र्च और खपत का कम होना है। और इन दोनों परिघटनाओं का मतलब आर्थिक कामकाज और उत्पादन में गिरावट है।

अब यहाँ एक और आँकड़े की चर्चा ज़रूरी है। सरकार ने खपत में आने वाली गिरावट को बताने वाले आँकड़ों को जारी नहीं किया है। एनएसएसओ यानी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय, जो हमारी काफ़ी पुरानी और प्रतिष्ठित एज़ेंसी है और जिसका दुनिया भरोसा करती है, के अनुसार 2011-12 और 2017-18 के बीच हमारी सामान्य खपत में 3.7 फ़ीसदी, ग्रामीण इलाक़ों की खपत में 8.8 फ़ीसदी और खाद्य पदार्थों की खपत में 10 फ़ीसदी की गिरावट आई है। सरकार का कहना है कि ये आँकड़े अविश्वसनीय हैं क्योंकि ऐसा होता तो ग़रीबी और बेकारी आसमान पर पहुँच गई होती।

अर्थतंत्र से और ख़बरें

सरकार की मंशा क्या?

सरकार की मंशा साफ़ होती और उसे आँकड़ों की विश्वसनीयता पर शक होता तो भी उसे इन्हें जारी करना चाहिए था क्योंकि ज़्यादा जानकार लोग उनकी ग़लतियों को पकड़ें और अन्य उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर उसके सही-ग़लत होने का आन्दाज़ा लगाएँ। मुश्किल यह है कि यह सरकार अकेले इसी आँकड़े से ही नहीं डरती- यह आँकड़ों से डरती है। और इसी के चलते इसने जीडीपी की गणना की जो नई शृंखला शुरू कराई उसे लेकर जानकारों में काफ़ी विवाद था। पिछले मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन तो ढाई फ़ीसदी का मार्जिन देकर ही गणना करने की सलाह देते हैं। और सिर्फ़ उनकी ही बात नहीं है, आज सरकार द्वारा दिए जाने वाले सारे ही आँकड़े संदिग्ध हो गए हैं।

भले ही वित्त मंत्री और सरकार के लोग मंदी का खंडन करें या अभी भी विकास दर के आसमान चढ़ने की उम्मीद पालें और पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना पालें लेकिन इस बार के बजट के बाद से सरकार कई खेप में जो क़दम उठाए हैं उनसे साफ़ है कि वह मंदी को आते देखकर अपनी तरफ़ से कोशिश कर रही है। 

कोई चाहे तो इस तत्परता पर ख़ुश हो सकता है लेकिन यह सवाल उठाना ही होगा कि जब नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के बाद से ही मंदी साफ़ दिखने लगी तब से ही क़दम क्यों न उठाए गए।

पिछला अंतरिम बजट तो चुनाव की छाया में पेश हुआ, लेकिन नियमित बजट देते हुए भी निर्मला जी को मंदी क्यों नहीं दिखी। और बजट के बाद से ही कम से कम पाँच पैकेज के रूप में घोषित इन क़दमों ने अगर बजट के सारे ‘सुपर रिच’ विरोधी तेवर को ढीला कर दिया है तो फिर बजट में बेकार में ऐसे क़दम उठाने का ताव दिखाने की क्या ज़रूरत थी। और यह सवाल भी उठाना ही होगा कि मंदी को देखते हुए भी क़दम उठाने में इतनी देरी क्यों (एक कारण तो चुनाव में आर्थिक मंदी को मुद्दा न बनने देने की मंशा हो सकती है) हुई और क्या इस देरी ने मंदी से लड़ना और मुश्किल नहीं बना दिया।

ताज़ा ख़बरें

सरकार गंभीर क्यों नहीं?

और मंदी को स्वीकार न करके भी सरकार जो क़दम उठा रही है वह मंदी से लड़ने की उल्टी दिशा है। कई बार लगता है कि यह समझ का फेर या ग़लती न होकर अपने प्रिय लोगों का खजाना भरने और बाक़ी सभी को भगवान भरोसे छोड़ने की सोची-समझी रणनीति है। आर्थिक सलाहकार सलाह न माँगे जाने से परेशान होकर भाग रहे हैं और सारे फ़ैसले अनपढ़ लोग ले रहे हों तो इसे मात्र समझ का फेर मानना भी मूर्खता ही होगी। सरकार का खंडन-मंडन चुनाव के हिसाब से ठीक हो सकता है लेकिन जब हर कहीं से आर्थिक विकास दर गिरते जाने की ख़बर आ रही है तो पाँच ट्रिलियन की इकॉनमी लाने का दावा करने वाली सरकार को कुछ चीजें स्वीकार करके गंभीर कोशिश शुरू करनी चाहिये। वह गंभीरता सिरे से ग़ायब है।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अरविंद मोहन

अपनी राय बतायें

अर्थतंत्र से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें