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ऐसी ऑनलाइन शिक्षा! छात्रों की पढ़ाई छूटने की नौबत आई

कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा कितनी कारगर है या इसका कैसा असर है, इस सवाल का शायद तब उत्तर मिल गया होगा जब लेडी श्रीराम कॉलेज की एक छात्रा ऐश्वर्या रेड्डी ने आत्महत्या कर ली। ऐश्वर्या लैपटॉप नहीं ख़रीद पा रही थीं और ऑनलाइन पढ़ाई करने में सक्षम नहीं थीं। उन्होंने सुसाइड नोट में लिखा था कि यदि वह शिक्षा जारी नहीं रख सकती तो जी नहीं सकती हैं। 

यदि इससे जवाब नहीं मिला हो तो शायद इस ताज़ा सर्वे में जवाब मिल जाए। सर्वे के अनुसार, सिर्फ़ 26 फ़ीसदी छात्राओं और 37 फ़ीसदी छात्रों की ऑनलाइन क्लास के लिए मोबाइल और इंटरनेट तक पहुँच है। स्थिति तो इस कगार पर पहुँच गई है कि 37 फ़ीसदी छात्राओं को स्कूल छोड़ने की नौबत आ गई है। जिनकी इंटरनेट तक पहुँच है उनमें से भी कई इंटरनेट की स्पीड और ऑनलाइन परीक्षा के दौरान दूसरी तकनीकी गड़बड़ियों से इतने परेशान हैं कि शिक्षा उनके लिए भारी बोझ लगने लगी है। 

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यह सर्वे उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, तेलंगाना और दिल्ली में 3176 परिवारों में किया गया। द राइट टू एजुकेशन फोरम, सेंटर फ़ॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज़ और चैंपियंस फ़ॉर गर्ल्स एजुकेशन ने यह सर्वे किया है। इसमें पाया गया कि सर्वे किए गए क़रीब 70% परिवारों के पास पर्याप्त भोजन नहीं था। सर्वे किए गए छात्रों में से 52 फ़ीसदी के पास टेलीविज़न था और सिर्फ़ 11 फ़ीसदी बच्चों की शैक्षणिक प्रसारण तक पहुँच थी। 61 फ़ीसदी छात्रों ने कहा कि स्कूल बंद होने तक उनके कोर्स पूरे नहीं हुए थे। 

कोरोना संक्रमण के कारण मार्च महीने में लॉकडाउन लगाने से पहले से ही स्कूल-कॉलेज बंद होने लगे थे और उसके बाद भी अधिकतर शिक्षण संस्थानों में यही दिक्कतें हैं। इससे लाखों छात्र प्रभावित हुए हैं। वे छात्र जो संपन्न घरों से आते हैं और शहरों में रहते हैं उनके सामने ज़्यादा दिक्कतें नहीं हैं। लेकिन उन छात्रों के सामने ज़्यादा दिक्कत है जिनके परिवार के लोगों की नौकरियाँ चली गई हैं या दूसरी आमदनी घट गई है।

ऐसे ग़रीब परिवारों को अपनी आर्थिक स्थिति को संभालना ही मुश्किल हो रहा है। ऐसे गंभीर आर्थिक संकट में भी ग़रीब परिवारों को अपने बच्चों के लिए मोबाइल खरीदना पड़ रहा है और इंटरनेट डाटा पर हर महीने रुपये ख़र्च करने पड़ रहे हैं।

गाँवों से आकर बड़े शहरों में पढ़ने वालों के सामने दोहरी मार पड़ी है। एक तो उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब है और दूसरे ऑनलाइन पढ़ाई के लिए उनके सामने लैपटॉप, इंटरनेट/वाईफाई की समस्या है। गाँवों में तो इंटरनेट की स्पीड भी सही नहीं आती है। ऐसे में उनकी पढ़ाई नहीं हो पाती और परीक्षा में फ़ेल होने का डर बना रहता है।

डीयू में ऑनलाइन शिक्षा की स्थिति

ऑनलाइन शिक्षा कितनी कारगर हो सकती है इसको मापने का बेहतर तरीक़ा यह है कि सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय में ऑनलाइन शिक्षा की स्थिति देखी जाए। जुलाई महीने में ऑनलाइन मॉक परीक्षा हुई थी। इसमें कई खामियाँ निकलकर सामने आईं। जिस वेबसाइट को छात्र इस्तेमाल करते आ रहे थे उसको खोलने पर मैसेज आने लगा था कि ग़लत यूआरएल है। जिन कुछ छात्रों से वेबसाइट खुली उनमें से कई की शिकायतें थीं कि उन्होंने जिस विषय को चुना वह वेबसाइट पर था ही नहीं। किसी को नेटवर्क नहीं मिला तो किसी को ओटीपी नहीं मिला। छात्रों की इतनी शिकायतें आईं कि विश्वविद्यालय की वेबसाइट क्रैश हो गई। 

एक रिपोर्ट के अनुसार, जेएनयू जैसे अग्रणी विश्वविद्यालय में ऑनलाइन क्लास में छात्र क़रीब 35 फ़ीसदी और छात्राएँ क़रीब 30 फ़ीसदी ही शामिल हो रहे हैं। 

जो छात्र नेत्रहीन हैं उनके लिए तो ऑनलाइन शिक्षा किसी काम का नहीं है। 

online education in india during lockdown disadvantages - Satya Hindi

यह तो हुई दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू में ऑनलाइन शिक्षा की स्थिति। अब कल्पना करें कि मध्य प्रदेश के मालवा या राजस्थान के बांसवाड़ा या फिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर या बिहार के सहरसा में स्कूल-कॉलेजों में क्या स्थिति होगी? 

इससे भी दूर-दराज के गाँवों में क्या स्थिति होगी जहाँ नेटवर्क सही नहीं आता है और मोबाइल का इंटरनेट तक सही से नहीं चलता है?

शहरों में जिन बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा मिलना संभव हो रहा है वहाँ अभिभावकों की शिकायतें हैं कि लगातार मोबाइल और लैपटॉप से पढ़ाई करने से बच्चों की आँखों पर ख़तरनाक असर पड़ रहा है। इसके लिए तो ट्विटर पर हैशटैग से अभियान भी चलाया जाता रहा। लेकिन इसका कुछ भी असर नहीं पड़ा।

यानी कुल मिलाकर स्थिति यह है कि ऑनलाइन शिक्षा में अभी इतनी खामियाँ हैं कि इसे जारी रखना ख़तरे से खाली नहीं है। इन अनगिनत गड़बड़ियों के बीच ही परीक्षा की बात की जा रही है। जब पढ़ाई ही नहीं हुई तो परीक्षा क्यों ली जा रही है? यहीं पर विशेषज्ञ से लेकर आम अभिभावक ज़ीरो सेशन की बात कर रहे हैं। ज़ीरो सेशन यानी बिना परीक्षा दिए ही सभी छात्रों को पास करना। भले ही इस राय से असहमति हो लेकिन कोरोना जैसी महामारी में क्या ऐसे अप्रत्याशित फ़ैसले नहीं लिए जा सकते। ख़ासकर तब जब ऐश्वर्या रेड्डी जैसी छात्राओं की जान पर बन आने की नौबत आ जा रही हो!
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क़मर वहीद नक़वी

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