सामना में संपादकीय-
आज कल हमारे देश में कोई भी किसी को तालिबानी कह रहा है। क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान का तालिबानी शासन मतलब समाज व मानव जाति के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। पाकिस्तान, चीन जैसे राष्ट्रों ने तालिबानी शासन का समर्थन किया है, क्योंकि इन दोनों देशों में मानवाधिकार, लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई मोल नहीं बचा है। हिंदुस्तान की मानसिकता वैसी नहीं दिख रही है। हम हर तरह से ज़बरदस्त सहिष्णु हैं। लोकतंत्र के बुरके की आड़ में कुछ लोग तानाशाही लाने का प्रयास कर रहे होंगे फिर भी उनकी सीमा है। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना तालिबान से करना उचित नहीं है।
‘तालिबान का कृत्य बर्बर होने के कारण निंदनीय है। उसी तरह से आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल का समर्थन करनेवालों की मानसिकता तालिबानी प्रवृत्तिवाली है। इस विचारधारा का समर्थन करनेवाले लोगों को आत्मपरीक्षण करने की ज़रूरत है।’ ऐसा मत वरिष्ठ कवि-लेखक जावेद अख्तर ने व्यक्त किया है और इसे लेकर कुछ लोग हंगामा करने लगे हैं।
जावेद अख्तर अपने मुखर बयानों के लिए जाने जाते हैं। इस देश की धर्मांधता, मुस्लिम समाज के चरमपंथी विचार, राष्ट्र की मुख्यधारा से कटे रहने की उसकी नीति पर जावेद ने सख़्त प्रहार किए हैं। देश में जब-जब धर्मांध, राष्ट्रद्रोही विकृतियाँ उफान पर आईं, उन प्रत्येक मौक़ों पर जावेद अख्तर ने उन धर्मांध लोगों के मुखौटे फाड़े हैं। कट्टरपंथियों की परवाह किए बगैर उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ गाया है। फिर भी संघ की तालिबान से की गई तुलना हमें स्वीकार नहीं है।
संघ और तालिबान जैसे संगठनों के ध्येय में कोई अंतर नहीं होने की उनकी बात पूरी तरह से ग़लत है। संघ की भूमिका व उनके विचारों से मतभेद हो सकते हैं और ये मतभेद जावेद अख्तर बार-बार व्यक्त करते हैं। उनकी विचारधारा धर्मनिरपेक्ष है इसलिए ‘हिंदू राष्ट्र’ की संकल्पना का समर्थन करनेवाले तालिबानी मानसिकता वाले हैं, ऐसा कैसे कहा जा सकता है?
बर्बर तालिबानियों ने अफ़ग़ानिस्तान में जो रक्तपात, हिंसाचार किया है व जो मानव जाति का पतन कर रहे हैं, वह दिल दहलाने वाला है। तालिबान के डर से लाखों लोगों ने देश छोड़ दिया है। महिलाओं पर जुल्म हो रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान नर्क बन गया है। तालिबानियों को वहाँ सिर्फ़ धर्म अर्थात शरीयत की ही सत्ता लानी है। हमारे देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का प्रयास करनेवाले जो-जो लोग व संगठन हैं, उनकी हिंदू राष्ट्र निर्माण की अवधारणा सौम्य है। धर्म के नाम पर पाकिस्तान व हिंदुस्तान इन दो राष्ट्रों के निर्माण के बाद हिंदुओं को उनके हिंदुस्तान में लगातार दबाया न जाए। हिंदुत्व मतलब एक संस्कृति है, उस पर हमला करनेवालों को रोकने का अधिकार वे मांग रहे हैं। अयोध्या में बाबरी ढहाई गई व वहाँ राम मंदिर बननेवाला है लेकिन आज भी बाबरी के लिए जो हिजड़ेगिरी कर रहे हैं, उनका इंतज़ाम करो और ऐसा क़ानूनी तौर पर करो, ऐसा कोई कह रहा होगा तो वे तालिबानी कैसे?
कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया। इससे कश्मीर की घोंटी गई साँस मुक्त हो गई। इन साँसों को फिर से रोक दो, ऐसी मांग करनेवाले लोग ही तालिबानी हैं। कश्मीरी पंडितों की घर वापसी ज़रूरी है। इस पर किसी के भी बीच मतभेद नहीं होना चाहिए। बीते दौर में ‘बीफ’ प्रकरण को लेकर जो धार्मिक उन्माद भड़का और इस पूरे प्रकरण के कारण जो लोग भीड़ की हिंसा का शिकार बने, उसका समर्थन शिवसेना ही क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी नहीं किया है। हिंदुत्व के नाम पर किसी तरह का उन्माद यहाँ स्वीकार नहीं है। ईरान में खुमैनी का शासन था और अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता आई है। इन दोनों शासनों से हिंदुत्व का संबंध जोड़ना हिंदू संस्कृति का अपमान है। ‘मुझे इस देश का खुमैनी नहीं बनना है।’ ऐसा सीधा बयान उस समय हिंदू हृदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे ने दिया था।
शिवसेना अथवा संघ का हिंदुत्व व्यापक है। वह सर्वसमावेशक है। उसमें मानवाधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, महिलाओं के अधिकार, ऐसे प्रगतिशील विचार शामिल हैं। संघ अथवा शिवसेना तालिबानी विचारोंवाली होती तो इस देश में तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ क़ानून नहीं बना होता व लाखों मुस्लिम महिलाओं को आज़ादी की किरण नहीं दिखी होती। संघ की स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपनाई गई भूमिका संदिग्ध होने का आरोप कुछ विरोधी लगाते हैं। इस मुद्दे को एक तरफ़ रख दें लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राष्ट्रीय स्वाभिमान वाला संगठन है। इस बारे में दो मत होने की संभावना नहीं है।
देश की ज़्यादातर जनसंख्या धर्मनिरपेक्ष है। वह सभ्य होने के साथ-साथ एक-दूसरे का आदर करती है। इसलिए उन्हें तालिबानी विचार आकर्षित नहीं कर सकते, जावेद अख्तर का ऐसा कहना सही है। हिंदुस्तान में हिंदुत्ववादी विचार अति प्राचीन है। वजह यह है कि रामायण, महाभारत हिंदुत्व का आधार है। बाहरी हमलावरों ने हिंदू संस्कृति पर तलवार के दम पर हमला किया। अंग्रेज़ों के शासन में धर्मांतरण हुए। उन सभी के ख़िलाफ़ हिंदू समाज लड़ता रहा लेकिन वह कभी भी तालिबानी नहीं बना। हिंदुओं के मंदिर तोड़े गए, जबरन धर्मांतरण कराए गए, परंतु हिंदू समाज ने संयम नहीं छोड़ा। इसी अति संयम का यह समाज शिकार बनता रहा है। दुनिया के हर राष्ट्र आज धर्म की बुनियाद पर खड़े हैं। चीन, श्रीलंका जैसे राष्ट्रों का अधिकृत धर्म बौद्ध, अमेरिका-यूरोपीय देश ईसाई तो शेष सभी राष्ट्र ‘इस्लामिक रिपब्लिक’ के रूप में अपने धर्म की शेखी बघारते हैं। परंतु विश्व पटल पर एक भी हिंदू राष्ट्र है क्या? हिंदुस्तान में बहुसंख्यक हिंदू होने के बावजूद भी यह राष्ट्र आज भी धर्म निरपेक्षता का झंडा लहराता हुआ खड़ा है। बहुसंख्यक हिंदुओं को लगातार दबाया न जाए, यही उनकी एक वाजिब अपेक्षा है। जावेद अख्तर हम जो कह रहे हैं, वो सही है न?
(सामना से साभार)
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