ग़रीब हो या अमीर, जब जनता 20 लाख करोड़ रुपये के सुहाने पैकेज वाले झुनझुने की झंकार सुनने को बेताब हो तब तीन दिनों से राहत कम और भाषण ज़्यादा बरस रहा है।
लाखों की संख्या में जो मज़दूर इस समय गर्मी की चिलचिलाती धूप में भूख-प्यास झेलते हुए अपने घरों को लौटने के लिए हज़ारों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं उन्हें शायद बहुत पहले ही आभास हो गया था कि देश को ही आत्म-निर्भर होने के लिए कह दिया जाएगा।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक कहते हैं कि मुझे दर्जनों नेताओं ने फ़ोन किए, उनमें भाजपाई भी शामिल हैं कि प्रधानमंत्री का भाषण इतना उबाऊ और अप्रासंगिक था कि 20-25 मिनट बाद उन्होंने उसे बंद करके अपना भोजन करना ज़्यादा ठीक समझा।
लंबे संघर्षों के बाद आख़िरकार कामगारों के 8 घंटा काम के जिस अधिकार को 'अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ (आईएलओ) ने 1919 में मान्यता दी थी, ठीक एक सदी बाद क्या इस तरह अपनी आँखों के सामने उन्हें 'उड़नछू' हो जाते वह देखता रहेगा?
मैंने प्रवासी मज़दूरों से संबंधित जनहित याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बारे में जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस एपी शाह के करण थापर के साथ साक्षात्कार देखे।
कहा जाता है कि समुद्र में जब ज्वार आता है तब ही मछलियाँ पकड़ी जाती हैं यानी संकट ही अवसर का बेहतर वक़्त होता है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने माना कि यह संकट का समय है, लेकिन इसमें जीतना है।
जस्टिस दीपक गुप्ता, जो हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए हैं, उन्होंने अपने विदाई भाषण में कहा कि भारतीय न्यायिक प्रणाली आज, ग़रीबों के ख़िलाफ़ और अमीरों की पक्षधर हो गयी है।
भारत-चीन सीमा पर तनाव बढ़ने की घटनाओं को लेकर मीडिया में बढ़ा-चढ़ाकर रिपोर्टें जारी की जा रही हैं। इससे दोनों देशों के रिश्तों में अनावश्यक तनाव पैदा होता है।
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लॉकडाउन खोलने को लेकर नागरिकों के मन में जैसी चिंताएँ हैं वैसी उन लोगों के मनों में बिलकुल नहीं हैं जो दुनिया भर में सरकारों में बैठे हुए हैं।